मेरी माँ Class 6 Summary Notes in Hindi Chapter 6
मेरी माँ Class 6 Summary in Hindi
भारत के अमर क्रांतिकारियों में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ का नाम आदरणीय है। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री रामप्रसाद बिस्मिल देश की स्वतंत्रता के लिए अग्रेंज़ों से लड़ते रहे। वे सफल साहित्यकार व रचनाकार भी थे। अंग्रेज़ों के अत्याचार सहते हुए जेल से ही उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘निज जीवन की एक छटा’ लिखी। इस आत्मकथा में से चयनित पाठ से अपनी माता और भारत माता के प्रति प्रेम और श्रद्धा-भक्ति करने की प्रेरणा मिलती है।
चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण – माँ केवल जीवन ही नहीं देतीं, व्यक्तित्व का निर्माण भी करती हैं। बालक ‘बिस्मिल’ के पालन-पोषण और चरित्र निर्माण में उनकी माता जी की सक्रिय व सकारात्मक भूमिका रही। छोटी आयु से ही देशसेवा और स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो गए। माँ के प्रोत्साहन और मार्गदर्शन में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के व्यवहार में ईमानदारी, दृढ़ता और सेवाभाव के मूल्य विकसित हुए।
माँ की प्रेरणा- अपनी माता का जीवन ‘बिस्मिल’ के लिए असीम प्रेरणा का स्रोत रहा। उनके संघर्ष, परिश्रम और शिक्षा के प्रति रुझान का अच्छा प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ा। माँ ने परिवार की शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी बखूबी निभाई। माँ ने हमेशा सत्य का आचरण करने की सीख दी।
जन्मदात्री माँ का ऋण – जिस प्रेम और दृढ़ता से माँ ने ‘बिस्मिल’ का जीवन सुधारा, वह अतुलनीय है। वे शाश्वत जीवन मूल्यों और देश भक्ति की नींव रखने वाली माँ से उऋण न हो पाने की भावना व्यक्त करते हैं। ‘बिस्मिल’ की आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में उनकी माँ सदैव सहयोग देती रही।
भारत माता के लिए सर्वोच्च बलिदान महान देश भक्त ‘बिस्मिल’ अपने बलिदान पर अपनी माँ के द्वारा धैर्य धारण करने का विश्वास प्रकट करते हैं। उनके संस्कारों ने, उन्हें अधीर न होने दिया और वे अपने कर्तव्य पथ पर अडिग बढ़ते रहे। परतंत्रता की बेड़ियों से माताओं की माता ‘भारत माता’ को मुक्त करने हेतु सहर्ष बलिदान देते हैं। वे जानते हैं कि भारत माता के चरणों में अपना बलिदान देने पर उनकी माँ गर्व महसूस करेंगी। स्वाधीन भारत के इतिहास में दृढ़ निश्चयी श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ का बलिदान हमेशा स्मरणीय रहेगा। माँ के चरण कमलों को प्रणाम कर वे परमात्मा का स्मरण करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर देते हैं।
मेरी माँ शब्दार्थ और टिप्पणी
पृष्ठ 51
होनहार भावी, अच्छे लक्षणों वाला। गज़ब – कमाल । आधिपत्य – प्रभुत्व, अधिकार । आत्मकथा- अपने जीवन की कथा । प्रकाशित – जो छापा एवं प्रचारित किया गया हो । अंश – भाग
पृष्ठ 52
अनुरोध – याचना करना । सद्व्यवहार सदाचार, अच्छा व्यवहार | संकल्प – निश्चय प्रतिज्ञा । हस्ताक्षर दस्तखत, (सिग्नेचर ) | खारिज – अस्वीकृत । आचरण – व्यवहार । नितांत – एकदम, बिल्कुल।
पृष्ठ 53
प्रबंध-व्यवस्था । अक्षर-बोध । वर्ण- ज्ञान । देवनागरी- भारत की प्रसिद्ध लिपि । वार्तालाप – बातचीत । निर्वाह- गुजारा। प्राणदंड – मृत्युदंड । जन्मदात्री – जन्म देने वाली । उऋण ऋण से मुक्त। अवर्णनीय – जिसका वर्णन न किया जा सके।
पृष्ठ 54
संलग्न – साथ जुड़ा हुआ, लगा हुआ । श्रेय – यश । ताड़ना-दंड देना। धृष्टतापूर्ण- उद्दंडता । परिणाम – नतीजा। सदैव – हमेशा । सांत्वना – ढाढ़स बँधाना, तसल्ली देना। उज्ज्वल – दीप्तिमय, चमकीला । विचलित- अस्थिर |
मेरी माँ पाठ लेखक परिचय
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक क्रांतिकारी वीरों ने अपना बलिदान दिया। ‘सरफरोशी की तमन्ना’ जैसा तराना लिखने वाले रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ भी उन्हीं क्रांतिकारियों में से एक थे। मात्र तीस वर्ष की आयु में अंग्रेज़ सरकार द्वारा उन्हें फ़ाँसी पर लटका दिया गया। असाधारण प्रतिभा के धनी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ एक अच्छे कवि और लेखक भी थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें उनकी आत्मकथा काफ़ी चर्चित रही। ‘मेरी माँ’ उनकी आत्मकथा का ही एक अंश है।
Class 6 Hindi मेरी माँ पाठ
“श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ बड़े होनहार नौजवान थे। गज़ब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुंदर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते।” यह कहना है हमारे देश के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह का बिस्मिल के बारे में।
रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ का जन्म जब हुआ, उस समय भारत पर अंग्रेज़ों का आधिपत्य था। ‘बिस्मिल’ छोटी-सी आयु से ही भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज़ों से लड़ते रहे। अंग्रेज़ों ने उन्हें जेल भेज दिया और फ़ाँसी की सज़ा दे दी। जेल में भी उन्होंने अंग्रेज़ों के अनेक अत्याचार सहे। जेल में रहते-रहते ही उन्होंने चोरी-छिपे अपनी आत्मकथा लिखी और अंग्रेज़ों से बचते-बचाते जेल से बाहर भेजते रहे। उनके साथियों ने उसे प्रकाशित भी करवा दिया। इसका नाम रखा गया- ‘निज जीवन की एक छटा । ‘ इस पुस्तक ने अंग्रेज़ों के होश उड़ा दिए। लोगों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध क्रोध और बढ़ गया। इस तरह इस आत्मकथा के कारण अंग्रेज़ बिस्मिल को फ़ाँसी देने के बाद भी उन्हें हरा न सके।
इस आत्मकथा के माध्यम से आज भी ‘बिस्मिल’ हमारे मस्तिष्क में जीवित हैं। आज भी यह आत्मकथा लोगों को प्रेरित करती है। क्या आप भी उनकी आत्मकथा को पढ़ना चाहते हैं? क्या कहा? हाँ? तो यहाँ प्रस्तुत है उसी आत्मकथा का एक अंश।
लखनऊ कांग्रेस में जाने के लिए मेरी बड़ी इच्छा थी। दादीजी और पिताजी तो विरोध करते रहे, किंतु माताजी ने मुझे खर्च दे ही दिया। उसी समय शाहजहाँपुर में सेवा-समिति का आरंभ हुआ था। मैं बड़े उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग देता था। पिताजी और दादीजी को मेरे इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे, किंतु माताजी मेरा उत्साह भंग न होने देती थीं, जिसके कारण उन्हें अक्सर पिताजी की डाँट-फटकार तथा दंड सहन करना पड़ता था। वास्तव में, मेरी माताजी देवी हैं।
मुझमें जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माताजी तथा गुरुदेव श्री सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है। दादीजी और पिताजी मेरे विवाह के लिए बहुत अनुरोध करते, किंतु माताजी यही कहतीं कि शिक्षा पा चुकने के बाद ही विवाह करना उचित होगा। माताजी के प्रोत्साहन तथा सद्व्यवहार ने मेरे जीवन में वह दृढ़ता उत्पन्न की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी मैंने अपने संकल्प को न त्यागा।
एक समय मेरे पिताजी दीवानी मुकदमे में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझसे करा लें। कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामे पर कर दूँ। मैंने तुरंत उत्तर दिया कि यह तो धर्म विरुद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता। वकील साहब ने बहुत समझाया कि मुकदमा खारिज हो जाएगा। किंतु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, न मैंने हस्ताक्षर किए। अपने जीवन में हमेशा सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था।
ग्यारह वर्ष की उम्र में माताजी विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। उस समय वह नितांत अशिक्षित एक ग्रामीण कन्या के समान थीं। शाहजहाँपुर आने के थोड़े दिनों बाद दादीजी ने अपनी छोटी बहन को बुला लिया। उन्होंने माताजी को गृहकार्य की शिक्षा दी। थोड़े दिनों में माताजी ने घर के सब काम-काज को समझ लिया और भोजनादि का ठीक-ठीक प्रबंध करने लगीं। मेरे जन्म होने के पाँच या सात वर्ष बाद उन्होंने हिंदी पढ़ना आरंभ किया। पढ़ने का शौक उन्हें खुद ही पैदा हुआ था।
मुहल्ले की सखी-सहेली जो घर पर आया करती थीं, उन्हीं में जो शिक्षित थीं, माताजी उनसे अक्षर-बोध करतीं। इस प्रकार घर का सब काम कर चुकने के बाद जो कुछ समय मिल जाता, उसमें पढ़ना-लिखना करती । परिश्रम के फल से थोड़े दिनों में ही वह देवनागरी पुस्तकों का अध्ययन करने लगीं। मेरी बहनों को छोटी आयु में माताजी ही शिक्षा दिया करती थीं। जब से मैंने आर्यसमाज में प्रवेश किया, माताजी से खूब वार्तालाप होता।
उस समय की अपेक्षा अब उनके विचार भी कुछ उदार हो गए हैं। यदि मुझे ऐसी माता न मिलतीं तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भाँति संसार-चक्र में फँसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की है, जैसी मेजिनी को उनकी माता ने की थी । माताजी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यही था कि किसी की प्राणहानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राणदंड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी थी।
जन्मदात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण उतारने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि मैं अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूँ तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने जिस प्रकार अपनी देववाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है।
तुम्हारी दया से ही मैं देश-सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक झुक जाता है। तुम्हें यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया।
यदि मैंने धृष्टतापूर्ण उत्तर दिया तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया बल्कि आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मांतर परमात्मा ऐसी ही माता दें।
महान से महान संकट में भी तुमने मुझे अधीर नहीं होने दिया। सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सांत्वना देती रहीं। तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक इच्छा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु की दुखभरी खबर सुनाई जाएगी। माँ!
मुझे विश्वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता या भारत माता की सेवा में अपने जीवन को बलि-देवी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कोख कलंकित न की, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्ज्वल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा। गुरु गोबिंद सिंह जी की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु की खबर सुनी तो बहुत प्रसन्न हुई थीं और गुरु के नाम पर धर्म-रक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बाँटी थी। जन्मदात्री ! वर दो कि अंतिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूँ।
– रामप्रसाद ‘बिस्मिल’