अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 4 Summary
अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में – प्रभाष जोशी – कवि परिचय
प्रश्न :
प्रभाष जोशी के जन्म के बारे में बताते हुए उनका साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर :
1937 ई. में डॉ. प्रभाष जोशी का जन्म इंदौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत नई दुनिया के संपादक राजेंद्र माथुर के सानिध्य में की और उनसे पत्रकारिता के संस्कार लिए। इंडियन एक्सप्रेस के अहमदाबाद, चंडीगढ़, संस्करणों का संपादन, प्रजापति का संपादन और सर्वोदय संदेश में संपादन सहयोग किया। 1983 में उनके संपादन में जनसत्ता अखबार निकला जिसने हिंदी पत्रकारिता को नई ऊँचाइयाँ दीं। गाँधी, बिनोवा और जयप्रकाश के आदर्शों में यकीन रखने वाले प्रभाष जी ने जनसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा। जनसत्ता में नियमित स्तंभ लेखन करते हैं। कागद कारे नाम से उनके लेखों का संग्रह प्रकाशित है। सन् 2005 में जनसत्ता में लिखे लेखों, संपादकियों का चयन हिन्दू होने का धर्म शीर्षक से पुस्तकाकार आया है।
प्रभाष जी में मालवा की मिट्टी के संस्कार गहरे तक बसे हैं और वे इसी से ताकत पाते हैं। देशज भाषा के शब्दों को मुख्यधारा में लाकर उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को एक नया तेवर दिया और उसे अनुवाद की कृत्रिम भाषा की जगह बोलचाल की भाषा के करीब लाकर टटका बनाया। प्रभाष जी ने पत्रकारिता में खेल, सिनेमा, साहित्य जैसे गैर पारंपरिक विषयों पर गंभीर लेखन की नींव डाली। क्रिकेट, टेनिस हो या कुमार गंधर्व का गायन, इन विषयों पर उनका लेखन मर्मस्पर्शी गहराइयों में ले जाता है।
पाठ का संक्षिप्त परिचय –
पाठयपुस्तक में प्रभाष जोशी का अपना मालवा (खाऊ-उजाडू सभ्यता में ) पाठ जनसत्ता 1 अक्टूबर 2006 के कागद कारे स्तंभ से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने मालवा प्रदेश की म्ट्टि, वर्षा, नदियों की स्थिति उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जनजीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है। पहले के मालवा ‘मादक धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर’ और अब के मालवा ‘नदी नाले सूख गए, पग पग नीर वाला मालवा सूखा हो गया’ से तुलना की है। जो मालवा अपनी सुख समृद्धि एवं सम्पन्नता के लिए विख्यात था, वही अब खाऊ-उजाडू सभ्यता में फँसकर उलझ गया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बन गई है। इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है।
लेखक की पर्यावरण संबंधी चिंता सिर्फ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमिक हो गई है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम अपनी जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरणीय विनाश की पूरी तस्वीर खींची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने पर्यावरणीय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।
Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata Mein Class 12 Hindi Summary
उगते सूरज की साफ चमकीली धूप राजस्थान में ही रह गई। मालवा में तो आसमान बादलों से छाया हुआ था। ऐसा लगा कि अभी वर्षा त्रहु गई नहीं है। चारों ओर मटमैला बरसाती पानी भरा हुआ था। सभी छोटे-बड़े नाले बह रहे थे। इतना ज्यादा पानी यह धरती नहीं सोख सकती। ऊपर से ये बादल बरसने को तैयार। नवरात्रि की पहली सुबह थी। मालवा में घटे स्थापना की तैयारी चल रही थी। घर-आँगन को गोबर से लीपने और रंगोली सजाने का काम हो रहा था। बहू-बेटियाँ नहाने-धोने और सजकर त्योहार मनाने में लगी थीं। रास्ते में छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की ही भीड़ थी, लेखक तो चटक-उजली धूप, ज्वार-बाजरे और सोयाबीन की फसलें देखने आया था।
क्वार का महीना मालवा में मानसून के जाने का होता है। इस बार तो वह जाते हुए भी धौंस दे रहा था। नागदा स्टेशन पर मीणाजी बिना चीनी की चाय पिलाते हैं और सारे जरूरी समाचार भी देते हैं। वे क्वालालपुर में भारत के हारने से दुःखी थे। फिर वे मौसम और खेती पर आ गए। उन्होंने बताया कि अधिक वर्षा के कारण सोयाबीन की फसल तो गल गई, पर गेहूँ, चना अच्छा होगा। उन्होंने चाय-भजिया अच्छा बनवा दिया। लेखक और उनकी पत्नी मजे से खाते-पीते उज्जैन पहुँच गए। रास्ते में शिप्रा नदी भी मिली। वह भरपूर बह रही थी। गए महीने उज्जैन में शिप्रा का पानी घरों में घुस गया था। कहीं कोई खतरा न था। अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता, जैसा गिरा करता था। पहले का औसत पानी गिरा तो भी बहुत लगता है इस बार भी बरसात चालीस इंच ही हुई।
इंदौर से उतरते ही गाड़ी में सामान रखवाते हुए दव्वा को कहा कि हमें सब नदियाँ, तालाब, जलाशय देखने हैं। सब पहाड़ चढ़ने हैं। पर बाद में सोचा कि अब उमर सत्तर की हो चली है। इस उमर में शरीर भी पहले जैसा फुर्तीला, लचीला, गर्वीला नहीं हो सकता। अब नदी-नाले पार नहीं होंगे, पहाड़ नहीं चढ़े जाएँगे। इस अहसास के बावजूद दो जगहों से नर्मदा देखी।
कहीं मटमैली, कहीं छिछली तो कहीं अथाह गहरी दिखाई दी। ज्योर्तिलिंग का तीर्थधाम वह नहीं लगता था। बड़ी-बड़ी मशीनें और ट्रक गुरा रहे थे। इतने बाँधों के बावजूद नर्मदा में अब भी खूब पानी और गति है। नेमावर के पास बिजवाड़ा में नर्मदा शांत, गंभीर और भरी-पूरी थी। हम चुपचाप उसे प्रणाम कर रहे थे। रात भर हम उसके किनारे ही सोए। सवेरे उठकर उसके किनारे बैठ गए। हम नदी को माँ मानते हैं-नर्मदा मैया। उसके किनारे बैठना माँ की गोद में डूबना है।
ओंकारेश्वर और नेमावर जाते हुए दोनों बार विंध्य के घाट उतरने पड़े। एक तरफ सिमरोल कः घाट, दूसरी तरफ बिजबाड़। दोनों में सागौन के जंगल। सिमरोल के बीच से चोरल खूब बहती हुई मिली। बिजवाड़ में हर नाला बह रहा था। बचपन पर पितृपक्ष और नवरात्रि में ऐस्म ही पानी मिलता था। शिप्रा नदी छोटी होते हुए भी उज्जैन में महाकाल के पाँव पखार कर पवित्र हो गई। यह चंबल विंध्य के जामापाव पर्वत से निकलकर निमाड़, मालवा, बुंदेलखंड, ग्वालियर होती हुई इटावा के पास जमना में मिली। चंबल को लेखक ने बिलोद में देखा।
वह खूब बह रही थी। वहाँ काफी पानी था। इसके आगे बीहड़ों में डाकू रहते हैं। आगे बहुत बड़ा बाँध है। इस बार गाँधी सागर बाँध के सब फाटक खोलने पड़े। बहुत पानी भर गया था। हालोद के आगे यशवंत सागर को इस बार उसने इतना भर दिया कि पच्चीसों साइफन चलाने पड़े। 2-3 दिन तक पुल पर से पानी बहता रहा। मालवा के पठार की सब नदियाँ भर गई। नदी का सदानीरा रहना जीवन के स्रोत का सदा जीवित रहना है।
नदियों के बाद नंबर था तालाबों का। आज के इंजीनियर स्वयं को पानी का सबसे बड़ा प्रबंधक मानते हैं; पर मालवा में विक्रमादित्य; भोज और मुंज पहले से ही यह काम कर गए थे। उन्होंने पानी को रोकने के लिए तालाब, बावड़ियों का निर्माण कराया ताकि बरसात का पानी रोका जा सके। आज के इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। नदी-नाले सूख गए। पग-पग पर नीर वाला मालवा सूखा हो गया। कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था अतः हाथीपाला नाम आया है। चन्द्रभागा पुल के नीचे इतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभंगा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने वाली नदियाँ उसे हरा-भरा और गुलजार रखती थीं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल-ये सदानीरा नदियाँ अब मालवा के गालों के आँसू भी नहीं बहा सकतीं।
1899 में मालवा में सिर्पक 15.75 इंच पानी गिरा था। 1973 में 77 इंच पानी गिरा। यदि 28 इंच से कम बारिश हो तो वह सूखे का साल होता है। हम जिस विकास को औद्योगिक सभ्यता कहते हैं, वह उजाड़ की अपसभ्यता है। नई दुनिया की लाइब्रेरी में कमलेश सेन अशोक जोशी ने धरती के वातावरण को गर्म करने वाली खाऊ-उजाडू सभ्यता की जो कतरनें निकाल रखी हैं वे यह बताने को काफी हैं कि मालवा की धरती गहन गंभीर क्यों नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गर्म हो रहा है ? क्यों हमारी धरती के ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल रही है? क्यों मौसम का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों यूरोप और अमेरिका में इतनी गर्मी पड़ रही है? क्योंकि वातावरण को गर्म करने वाली कार्बनडाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा। हम भी अपनी मालवा की धरती को उजाड़ने में लगे हैं। हम अपनी जीवन-पद्धति को क्या समझते हैं।
शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
निथरी – फैली, चमकीली, चौमासा – बारिश के चार महीने, मटमैला – मिट्टी युक्त उसी रंग का पानी, घट स्थापना – नवरात्रि के समय कलश रखना, स्थापित करना, ओटले – मुख्यद्वार, घऊँघऊँ – बादलों के गरजने की आवाज़, लहलहाती – हरी-भररी हवा के झोंके से लहलहाती, क्वार – हिंदी में भादों के बाद का महीना, पानी भोत गिरयो – पानी बहुत गिरा, बरसात बहुत हुई, फसल तो पण गली गई – फसल पानी में डूब गई और नष्ट हो गई, उनने – उन्ल्ेंने, झड़ी लगी थी – बरसात अधिक होना, निरंतर पानी गिरना, अत्ति की – बढ़ा चढ़ाकर, अतिश्योक्ति में, इत्ता पानी – इतना पानी, साइफन – पानी निकालने की पाइप, मालवा धरती गहन गंभीर – ‘मालवा की धरती गहन गंभीर है।
पश्चिम के रिनेसां – पश्चिम के पुनर्जागरण, डग-डग रोटी, पग-पग नीर जहाँ डगर-डगर पर रोटी मिलती है और पग-पग पर पानी मिलता है यानी मालवा की धरती खूब समृद्ध है’, विपुलता की आश्वस्ति -संपन्नता, समृद्धि का आश्वासन, अबकी मालवो खूब पाक्यो है – अबकी मालवा खुब समृद्ध है। यानी इतनी बरसात हुई है कि फसलें हरी-भरी हो गई हैं, नी यार पेले माता बिठायंगा – इस बार माता की मूर्ति स्थापित करूँगा, रड़का – लुढ़का, मंदे उजाले से गमक रही थी – हल्के प्रकाश में सुर्गंधित हो रही थी, चवथ का चाँद – चतुर्थी का चाँद, छप्पन का काल – 1956 का दौर, समय, दुष्काल का काल – बुरा समय, अकाल, कतरनें – अखबार की कतरन, पूर – बाढ़, गाद – झाग, कूड़ा-कचरा, कलमल करना – सँकरे रास्ते में पानी बहने की आवाज।