दूसरा देवदास Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 20 Summary
दूसरा देवदास – ममता कालिया – कवि परिचय
प्रश्न :
ममता कालिया का जीवन-परिचय देते हुए उनके साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालिए तथा भाषा-शैली पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : ममता कालिया का जन्म 1940 ई. में मथुरा, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी शिक्षा के कई पड़ाव रहे जैसे नागपुर पुणे, इंदौर, मुंबई आदि। दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी विषय से एम. ए. किया। एम. ए, करने के बाद सन् 1963-1965 तक दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्राध्यापिका रहीं। 1966 से 1970 तक एस. एन. डी. टी. महिला विश्वविद्यालय, मुंबई में अध्यापन कार्य, फिर 1973 से 2001 तक महिला सेवा सदन डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद में प्रधानाचार्य रहीं। 2003 से 2006 तक भारततीय भाषा परिषद, कलकत्ता (कोलकाता) की निदेशक रहीं। वर्तमान में नई दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।
रचनाएँ : उनकी प्रकाशित कृतिया हैं- बेघर, नरक दर नरक, एक पत्नी के नोट्स, प्रेम कहानी, लड़कियाँ, वौड़ आदि (उपन्यास) हैं तथा 12 कहानी संग्रह प्रकाशित हैं जो ‘संपूर्ण कहानियाँ’ नाम से दो खंडों में प्रकाशित हैं। हाल ही में उनके दो कहानी संग्रह और प्रकाशित हुए हैं, जैसे पच्चीस साल की लड़की, धियेटर रोड के कौवे।
साहित्यिक योगदान : कथा साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ‘साहित्य भूषण’ 2004 में तथा वहीं से ‘कहानी सम्मान’ 1989 में प्राप्त हुआ। उनके समग्र साहित्य पर अभिनव भारती, कलकत्ता (कोलकाता) ने रचना पुरस्कार भी दिया। इसके अतिरिक्त उन्हें सरस्वती प्रेस तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान का ‘श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार’ भी प्राप्त है।
भाषा-शैली : ममता कालिया शब्दों की पारखी हैं। उसका भाषा ज्ञान अत्यन्त उच्चकोटि का है। साधारण शब्दों में भी अपने प्रयोग से जादुई प्रभाव उत्पन्न कर देती है। विषय के अनुरूप सहज भावाभिव्यक्ति उनकी खासियत है। व्यंग्य की सटीकता एवं सजीवता से भाषा में एक अनोखा प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। अभिव्यक्ति की सरलता एवं सुबोधता उसे विशेष रूप से मर्मस्पर्शी बना देती है।
पाठ का संक्षिप्त परिचय –
पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘दूसरा देवदास’ कहानी हर की पौड़ी, हरिद्वार के परिवेश को केंद्र में रखकर युवामन की संवेदना, भावना और विचार जगत की उथल-पुथल को आकर्षक भाषा-शैली में प्रस्तुत करती है। यह कहानी युवा हृदय में पहली आकस्मिक मुलाकात की हलचल, कल्पना और रूमानियत का उदाहरण है। ‘दूसरा देवदास’ कहानी में लेखिका ने इस तरह घटनाओं का संयोजन किया है कि अनजाने में प्रेम का प्रथम अंकुरण संभव और पारो के ह्वदय में बड़ी अजीब परिस्थितियों में उत्पन्न होता है और यह प्रथम आकर्षण और परिस्थितियों के गुंफन ही उनके प्रेम को आधार और मजबूती प्रदान करता है जिससे यह सिद्ध होता है कि प्रेम के लिए किसी निश्चित व्यक्ति, समय और स्थिति का होना आवश्यक नहीं है। वह कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय और स्थिति में उपज सकता है, हो सकता है। कहानी के माध्यम से लेखिका ने प्रेम को बंबईया फिल्मों की परिपाटी से अलग हटाकर उसे पवित्र और स्थायी स्वरूप प्रदान किया है। कथ्य, विषय-वस्तु, भाषा और शिल्प की दृष्टि से कहानी बेजोड़ है।
Dusra Devdas Class 12 Hindi Summary
इस कहानी में लेखिका हरिद्वार के वातावरण का चित्रण करते हुए बताती है कि हर की पौढ़ी पर संध्या कुछ अलग प्रकार से उतरती है। यह समय आरती का समय होता है। पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपए में बिकते हैं वे आरती के समय दो-दो रूपये के हो जाते हैं। आरती शुरू होने वाली है। कुछ भक्तों ने 101 या 51 रुपये वाली स्पेशल आरती बोल रखी है। पंडित की आरती वाले गण आरती के इंतजाम में व्यस्त हैं।
पीतल में हजारों बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी गई हैं, देशी घी के डिब्बे सजे हैं तथा गंगा की मूर्ति के साथ चामुंडा, बालकृष्ण, राधा-कृष्ण, हनुमान तथा सीता-राम की मूर्तियाँ श्रृंगारपूर्ण रूप में स्थापित हैं। आप जिसे चाहें उसे आराध्य के रूप में चुन लें। आरती से पहले औरतें पवित्र गंगाजल में डुबकी लगा रही हैं। पंडे मर्दों के माथे पर चंदन-तिलक और औरतों के माथे पर सिंदूर का टीका लगा देते हैं। लोग तरह-तरह की खुशी में आरती करवा रहे हैं।
अचानक हजारों दीप जल उठते हैं। पंडित हाथ में अंगोछा लपेट कर पंचमंजिली नीलांजलि को पकड़कर आरती शुरू कर देते हैं। समवेत स्वर, घंटे-घड़ियालों की ध्वनि, फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ, एक अनोखे दृश्य की सृष्टि हो जाती है। गंगापुत्र दोने में रखा पैसा उठाकर मुँह में दबा लेता है। गंगा मैया ही उसकी जीविका का साधन है। जब पुजारियों का स्वर थकने लगता है तब लाउडस्पीकरों पर लता मंगेशकर का मधुर स्वर गूँज उठता है। हर की पौड़ी ‘ओम जय जगदीश हरे’ की आरती से गुंजायमान हो जाती है। ज्यादातर औरतें गीले कपड़ों में ही खड़ी होकर आरती में शामिल हो जाती हैं। दीपकों की छवियाँ गंगाजल में दिखाई देती हैं। भक्तजन पंडितों को खुशी-खुशी दक्षिणा देते हैं। भक्तों के लिए यहाँ हुआ खर्च सुखदायी होता है।
संभव काफी देर से नहा था। जब वह घाट पर आया तो पंडे ने उसके माथे पर चंदन का तिलक लगाना चाहा तो संभव ने चेहरा हटा लिया, पर जब पंडे ने कहा कि चंदन तिलक बगैर अस्नान अधूरा है तब उसने चुपचाप तिलक लगवा लिया। तभी मंदिर के पुजारी ने आवाज लगाई-‘अरे दर्शन तो करते जाओ।’ उसकी इन चीजों में आस्था तो नहीं थी, पर नानी ने कहा था कि मंदिर में सवा रुपया चढ़ाकर आना। उसने दो रुपए का नोट निकाला, पुजारी ने चरणामृत दिया, लाल रंग का कलावा उसकी नाजुक-सी कलाई में बाँध दिया।
उसने थाली में सवा पाँच रुपए रखे। वहीं एक लड़की गीले कपड़ों में आँख मूँदकर अर्चना कर रही थी। उसके गीले बाल पीठ पर काले चमकीले शाल की तरह लग रहे थे। आकाश और जल की साँवली बेला में वह लड़की एक कांस्य प्रतिमा सी लग रही थी। आरती हो चुकी थी अत: उसने पंडित जी से कहा हम कल आरती की बेला में आएँगे। पुजारी ने इस ‘हम’ शब्द को युगल अर्थ में लिया और फल-फूलने का आशीर्वाद देकर कहा कि जब भी आओ साथ ही आक। लड़की और लड़का दोनों हैरान रह गए। दोनों की नजरें मिलीं। लड़की अपनी चप्पलें पहनकर आगे बढ़ गई। संभव ने आगे लपक कर देखना चाहा कि लड़की किस ओर गई है, पर वह ओझल हो चुकी थी। वह इधर-उधर भटकता घर पहुँचा। नानी ने खाने की जिद की, पर संभव को भूख न थी। संभव की आँख लग गई और लड़की का कल आने की बात याद हो आई। उसने नानी को जगाकर खाना माँगा।
संभव ने इसी साल एम. ए. किया था। वह सिविल सर्विसेज की प्रतियोगी परीक्षा में बैठने वाला था। अभी तक उसके जीवन में कोई लड़की नहीं आई थी। उसने इस लड़की का नाम भी नहीं पूछा, पर वह उसे भीड़ में भी पहचान सकता था। वह उस लड़की के बारे में तरह-तरह की कल्पना करने लगा। वह जेब में बीस रुपये का नोट डालकर हर की पौड़ी की ओर चल दिया। वहाँ आज भारी भीड़ थी। वहाँ उसे एक बालक मिला जो अपनी बुआ के साथ रोहतक से आया था। वह मंसादेवी भी जाने वाला था। वहाँ ‘रोप वे’ है। संभव भी वहाँ चला गया।
वहाँ तरह-तरह की चीजें बिक रही थीं। संभव को जो बच्चा हर की पौड़ी पर मिला था, वह दूर पीली कार में नजर आया। बच्चे की लाल कमीज को उसने पहचान लिया। इसे बच्चे से सटी हुई जो दुबली, पतली, साँवली-सलोनी आकृति बैठी थी, यह वही लड़की थी, जो कल शाम के समय हर की पौड़ी पर उससे टकराई थी। संभव उसे देखकर बहुत बेचैन हो गया। उसका मन हुआ कि वह पंछी की तरह उड़कर उस पीली केबिल कार में पहुँच जाए। बहुत जल्द केबिल कार नीचे पहुँच गई। संभव ने लपककर बच्चे को कंधे से थाम लिया और बोला-‘कहो दोस्त।’ तभी एक महीन सी आवाज आई-‘मन्नू घर नहीं चलना है।’ संभव ने बालक से पूछ्छ- ‘ये तुम्हारी बुआ है।’ मन्नू ने हाँ उत्तर दिया। संभव ने उस बुआ से मिलने की इच्छा प्रकट की तो वह बुआ से मिलाने लगा।
लड़की ने मीठी महीन आवाज में कहा- “ऐसे कैसे दोस्त हैं तुम्हारे, तुम्हें उनका नाम ही नहीं पता।” इस समय लड़की ने गुलाबी परिधान नहीं पहना था, सफेद साड़ी पहन रखी थी। उसने मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेते हुए सोचा-” मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत, अनूठी है, इधर बाँधो, उधर लग जाती है।” बालक ने बुआ का नाम पुकारा-पारो। संभव ने हँसते हुए अपना नाम बताया-‘ संभव देवदास।’
शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
गोधूलि बेला = संध्या का समय (Evening time), ब्यालू = भोजन (Food ), नीलांजाल = आरती (Prayer) मनोरथ = मन की इच्छा, अरमान (Desire), बेखटके – बिना किसी रुकावट के (Without hurdle), कलावा = कलाई में बाँधी गई लाल डोरी, मौली (Red thread), प्रकोष्ठ = कक्ष, कमरा (Room), झुटपुटा = कुछ-कुछ अँधेरा, कुछ-कुछ उजाला (Light \& darkness), अस्फुट = अस्पष्ट (Not clear), जी खोलकर देना = उदारतापूर्वक खर्च करना (Kind hearted), आत्मसात = अपने में समा लेना (Swallow), नजरें बचाना = एक-दूसरे से कतराना (To hide), नौ दो ग्यारह होना = भाग जाना, गायब होना (To disappear)।
दूसरा देवदास सप्रसंग व्याख्या
1. हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है। दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला। पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपये के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं, भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं। इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं। एक-दो रुपये का मुँह थोड़े ही देखना है। गंगा सभा के स्वयंसेवक खाकी वर्दी मे मुस्तैदी से घूम रहे हैं। वे सबको सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं। शांत होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है। कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है।
स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये वाली। गंगातट पर हर छोटे-बड़े मंदिर पर लिखा है – ‘गंगा जी का प्राचीन मंबिर।’ पंडितगण आरती के इंतजाम में क्यस्त हैं। पीतल की नीलांजलि में सहम्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं। सबने देशी घी के डब्ेे अपनी ईमानदारी के प्रतीक स्वरूप सजा रखे हैं। गंगा की मूर्ति के साथ-साथ चामुंडा, बालकृष्ण, राधा-कृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियों की भृंगारपूर्ण स्थापना है। जो भी आपका आराध्य हो, चुन लें।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। यहाँ लेखिका हर की पौड़ी पर होने वाली आरती के दृश्य का चित्रांकन कर रही है।
व्याख्या : लेखिका बताती है कि हर की पौड़ी पर संध्या का दृश्य बड़ा मनोहारी होता है। इसका अपना रंग होता है। इसे शाम को दीपक जलाने का समय कह लीजिए अथवा सायंकालीन आरती का। पाँच बजे तक इस गंगा तट पर फूलों के दोने एक-एक रुपए में मिलते हैं पर आरती के समय इनकी कीमत दो रुपए हो जाती है, पर भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं होती। वे बड़ी-बड़ी मनोकामनाएँ लेकर यहाँ आते हैं अतः वे एक-दो रुपए की परवाह नहीं करते। वहाँ गंगा-सभा के स्वयंसेवक व्यवस्था करते घूमते रहते हैं। वे लोगों से प्रार्थना करते हैं वे सीढ़ियों पर बैठने की कृपा करें।
अब वे शांत हो जाएँ क्योंकि आरती होने वाली है। कुछ भक्त स्पेशल आरती कराते हैं। स्पेशल आरती 101 या 151 रुपए वाली होती है। गंगा तट पर सभी मंदिरों को गंगाजी का प्राचीन मंदिर जताया जाता है। इस समय पंडित जी आरती के प्रबंध में व्यस्त हो जाते हैं। आरती का पात्र पाँच मंजिला और पीतल का बना होता है। इसमें हजारों बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी होती हैं। अपनी ईमानदारी दिखाने के लिए वे घी के डब्बे सजाकर रखते हैं। यहाँ अनेक मूर्तियाँ स्थापित की हुई हैं। इनमें गंगाजी की मूत्ति के साथ चामुंडा, बालकृष्ग, राधाकृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। सभी को अपना आराध्य चुनने की छूट है।
विशेष :
- लेखिका ने हर की पौड़ी के दृश्य का यथार्थ एवं सजीव अंकन किया है।
- चित्रात्मक शैली प्रयुक्त है।
2. औरतें ज्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं। गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पंचमंजिली नीलांजलि गरम हो उठी है। पुजारी नीलांजलि को गंगाजल से स्पर्श कर, हाथ में लपेटे अंगोछे को नामालूम छंग से गीला कर लेते हैं। दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है कि वे अपना संबोघन गंगाजी के गर्भ तक पहूँचा रहे हैं। पानी पर सहम्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं। पूरे वातावरण में अगरू-चंबन की दिव्य सुगंध है।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित हैं। यहाँ गंगा-तट पर सांध्यकालीन आरती के दृश्य का सजीव वर्णन हुआ है।
व्याख्या : आरती के समय औरतें गंगाजल में स्नान करती हैं। वे जो वस्त्र पहने होती हैं वे पानी की डुबकी में गीले हो जाते हैं और वे उस समय उन्हें नहीं बदलती। अतः उन्हीं गीले कपड़ों में खड़ी होकर आरती में सम्मिलित हो जाती हैं। पुजारी के हाथ में पाँच मंजिल वाली पीतल की आरती होती है। उसमें न जाने कितनी बत्तियाँ एक साथ जलती हैं। इससे वह नीलांजलि (आरती का पात्र) गरम हो उठता है। पुजारी इस आरती पात्र को गंगाजल से स्पर्श करा लेते हैं ताकि वह कुछ ठंडा हो जाए।
इसके साथ-साथ वे अपने हाथ पर लपेटे अंगोछे (वस्त्र) को गीला कर लेते हैं, इससे आरती-पात्र गरम प्रतीत नहीं होता। जब पुजारी नीलांजलि को गंगा का स्पर्श करवाता है तो दर्शकों को ऐसा लगता है कि मानो पुजारी गंगा के बिल्कुल भीतर तक अपने भावों को ले जा रहा है। उस समय नीलांजलि की यत्तियों की परछाइयाँ गंगा के जल पर पड़ती हैं। तब पानी में झिलमिलती बत्तियों की प्रतिच्छवियाँ अद्भुत दृश्य की सृष्टि कर देती हैं। यह दृश्य बड़ा ही मनमोहक प्रतीत होता है। वातावरण में चारों ओर अगरबत्ती और चंदन की सुगंध फैल जाती है।
विशेष :
- सांध्यकालीन आरती के दृश्य का मनमोहक दृश्य अंकित हुआ है।
- भक्तों की विशेषकर स्त्रियों की श्रद्धा प्रकट होती है।
- भाषा सरल है।
- वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।
3. अभी तक उसके जीवन में कोई लड़की किसी अहम् भूमिका में नहीं आई थी। लड़कियाँ या तो क्लास में बाई तरफ की बेंचों पर बैठने वाली एक कतार थी या फिर ताई-चाची की लड़कियाँ जिनके साथ खेलते खाते वह बड़ा हुआ था। इस तरह बिल्कुल अकेली, अनजान जगह पर, एक अनाम लड़की का सद्य-स्नात दशा में सामने आना, पुजारी का गलत समझना, आशीराद देना, लड़की का घबराना और चल देना सब मिलाकर एक नई निराली अनुभूति थी जिसमें उसे कुछ सुख और ज्यादा बेचैनी लग रही थी। उसने मन-ही-मन तय किया कि कल शाम पाँच बजे से ही वह घाट पर जाकर बैठ जाएगा। पौड़ी पर इस तरह बैठेगा कि कल वाले पुजारी के वेवालय पर सीधी आँख पड़े। (पृष्ठ 153) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया की कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इस कहानी का मुख्य पात्र संभव है। उसके जीवन में यह लड़की (पारो) पहली ही है।
व्याख्या : लेखिका बताती है कि अभी तक संभव के जीवन में कोई लड़की मुख्य रूप से नहीं आई थी। अभी या तो उसकी क्लास में लड़कियाँ पढ़ती थीं उसके साथ बेंचों पर दाएँ-बाएँ बैठती थीं या फिर ताई-चाची की लड़कियाँ थीं। उनके साथ खेलते हुए वह बड़ा हुआ था। हरिद्वार में गंगा-घाट पर जो लड़की उसने देखी थी वह अनोखी थी। वह बिल्कुल अनजान थी। उसे उसने उसी समय नहायी हुई दशा में देखा था।
उसे लेकर पुजारी ने गलत अर्थ ले लिया था तथा उन्हें युगल समझकर आशीर्वाद भी दे दिया था। लड़की इस स्थिति से घबरा गई थी और चल पड़ी थी। यह एक विचित्र अनुभव था। यह अनुभव जहाँ उसे सुख पहुँचा रहा था वहीं वह बेचैनी का अनुभव कर रहा था। इसी मनोदशा में उसने तय किया कि वह कल शाम को पाँच बजे से ही गंगा-तट पर जाकर बैठ जाएगा। वह पौड़ी पर इस स्थिति में बैठेगा ताकि कल वाले पुजारी पर सीधी आँख पड़े। वह इसके बहाने उस लड़की (पारो) को देखना चाहता था।
विशेष : संभव की मन:स्थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है।
4. भीड़ लड़के ने विल्ली में भी देखी थी, बल्कि रोज देखता था। दफ्तर जाती भीड़, खरीद-फरोख्त करती भीड़, तमाशा देखती भीड़, सड़क क्रॉस करती भीड़ लेकिन इस भीड़ का अंदाज निराला था। इस भीड़ में एकसूत्रता थी। न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उदेश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था बल्कि स्नान से ज्यादा समय ध्यान ले रहा था। दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम् त्याग विया है, उसके अंदर ‘स्व’ से जनित कोई कुंठा शेष नहीं है, वह शुद्ध रूप से चेतनास्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंब है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इसमें लेखिका हरिद्वार के गंगा-तट का वर्णन करती है।
व्याख्या : कहानी का मुख्य पात्र संभव गंगा-तट पर भारी भीड़ देखता है। वैसे उसने भीड़ अपने दिल्ली शहर में भी देखी थी। वह वहाँ रोज ही भीड़ देखता है। वहाँ दफ्तर जाने वालों की भीड़ होती है, खरीददारों की भीड़ होती है, तमाशा देखने वालों की भीड़ होती है, सड़क पार करने वालों की भीड़ होती है। इस भीड़ में एकसूत्रता दिखाई देती है। यहाँ की भीड़ में जाति, भाषा का कोई अंतर नहीं होता। सभी का एक ही उद्देश्य है कि जीवन के प्रति कल्याण की भावना।
यहाँ दिल्ली जैसी भागमभाग नहीं थी। कोई दूसरे का अतिक्रमण भी नहीं कर रहे थे। यहाँ स्नान करने वाले व्यक्ति सैलानी भाव से नहीं, बल्कि भक्ति भाव से डुबकी लगा रहा था। संभव ने देखा कि एक व्यक्ति जलधारा के बीच खड़ा होकर सूर्य की ओर हाथ जोड़े हुए था। वह भक्तिभाव में डूबा प्रतीत होता था। उसके अंदर विनय भाव था। लगता था उसने सारा अहं भाव छोड़ दिया है। अब वह ‘स्व’ के प्रति विशेष लगाव नहीं रखता। उसके मन में कोई कुंठा नहीं है। वह शुद्ध चेतन स्वरूप, आत्मरूप एवं निर्मल प्रतीत हो रहा है। वह पूरी तरह भक्ति में निमग्न है।
विशेष : चित्रात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
5. रोपवे के नाम में कोई धर्माडंबर नहीं था। ‘उषा ब्रेको सर्विस’ की खिड़की के आगे लंबा क्यू था। वहीं मंसा देवी पर चढ़ाने वाली चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। पाँच, सात और ग्यारह रुपये की। कई बच्चे बिंदी-पाउडर और उसके साँचे बेच रहे थे, तीन-तीन रुपये। उन्होंने अपनी हथेली पर कलात्मक बिंदिया बना रखी थीं। नमूने की खातिर। उससे पहले संभव ने कभी बिंदी जैसे शृंगार प्रसाधन पर ध्यान नहीं दिया था। अब यकायक उसे ये बिंदियाँ बहुत आकर्षक लगी। मन-ही-मन उसने एक बिंदी उस अज्ञातयौवना के माथे पर सजा दी। माँग में तारे भर देने जैसे कई गाने उसे आधे अधूरे याद आ कर रह गए। उसका नंबर बहुत जल्द आ गया। अब वह दूसरी कतार में था जहाँ से केबिल कार में बैठना था। सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया की कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। संभव अपने मन में बसी लड़की की खोज में मनसा देवी के मंंदर जाता है। वहाँ ‘रोपवे’ से जाया जाता है। वह वहीं खड़ा है।
व्याख्या : यद्यपि हर की पौड़ी तथा उस क्षेत्र में धर्म के नाम पर अनेक आडंबर हैं, पर ‘रोपवे ‘ में ऐसा कोई धर्माडंबर नह़’ है। इस ‘उषा ब्रेको सर्विस’ चलाती है। वहाँ उसकी खिड़की पर लंबी लाइन लगी थी। उसी जगह मंसा देवी पर चढ़ाने के लिए चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। ये 5-7-11 रुपए में मिल रही थीं। वहाँ कई बच्चे बिंदी, पाउडर, उसके साँचे 3-3 रुपयों में बेच रहे थे। उन लड़कों ने दिखाने के लिए अपने हाथों पर कलात्मक बिंदियाँ भी बना रखी थीं।
आज से पहले संभव ने बिंदी की ओर कभी ध्यान नहीं दिया था। आज उस लड़की की वजह से उसे ये बिंदियाँ बड़ी आकर्षक लग रही थीं। उसने अपने मन में कल्पना से एक बिंदी उस अनजानी यौवना (पारो) के माथे पर लगा दी। मन में बिंदी लगाकर सोचा कि यह बिंदी कैसी लगेगी। उसे उस समय वे गाने याद आ गए जिनमें माँग भरने का उल्लेख था। यही सोचते-सोचते उसका नंबर आ गया। वह टिकट लेकर केबिल कार में चढ़ने वालों की पंक्ति में आ गया। यहाँ सभी काम तेजी के साथ किए जा रहे थे।
विशेष :
- वातावरण का सजीव चित्रण है।
- संभव की मनःस्थिति का सजीव अंकन है।
6. दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम् त्याग दिया है, उसके अंदर स्व से जनित कोईं कुंठा शेष नहीं है, वह शुद्ध रूप में चेतन स्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। हर की पौड़ी पर इस कहानी का नायक संभव स्नानार्थियों की भीड़ से परे हटकर एक ध्यामग्न स्नानार्थी को देखता है।
व्याख्या : गंगा की हर की पौड़ी से थोड़ा हटकर दूध जलधारा में एक व्यक्ति स्नान और भक्ति भावना का अनोखा दृश्य उपस्थित कर रहा था। उसने अपना मुख सूर्य की ओर कर रखा था और हाथ जोड़ हुए था, मानो सूर्मलससक्कार कर रहा हो। उसके चेहरे पर शांति विराजमान थी। वइ इतना भाव-विभोर था कि उसे अपना तक ध्यान में न था। वह चेहरे पर बिना भाब लिए हुए था। उसने अपना अहं भाव त्याग दिया था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसमें ‘स्व’ में उत्पन्न कोई कुंठा भाव शेष नहीं रह गया है। वह शुद्ध रूप में चेतन स्वरूप बन गया प्रतीत होता था। वह आत्मा-परमात्मा के आनंद में डूबा हुआ था। उसके आनंद में निर्मलता झलक रही थी।
विशेष :
- गद्यांश में तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है।
- वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
7. यकायक सहम्र दीप जल उठते हैं, पंडित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं। हाथ में अंगोछा लपेट के पंचमंजिली नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है-जय गंगे माता, जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता, जय गंगे माता। घंटे घड़ियाल बजते हैं। मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं। गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा लिखित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इस कहानी में लेखिका ने घटनाओं का संयोजन इस प्रकार किया है कि अनजाने में प्रणय अंकुरण संभव और पारो के हृदय में हो जाता है। यहाँ लेखिका हरिद्वार में हर की पौड़ी पर सायंकालीन आरती के दृश्य का मनोहारी चित्रण कर रही है।
व्याख्या : लेखिका बताती है कि हर की पौड़ी पर संध्या के समय आरती का दृश्य बड़ा ही मनोहर होता है। वहाँ संध्या कुछ अलग रंग में ही उतरती है। संध्या होते ही आरती के हज़ारों दीपक जल उठते हैं। तब पंडित अपने आसन से उठकर खड़े हो जाते हैं। वे अपने हाथ में अंगोछा (वस्त्र) लपेट लेते हैं, ताकि आरती की गर्मी से बच सकें। उनके हाथ में पाँच मंजिली नीलांजलि (आरती का पात्र) होता है और फिर आरती शुरू हो जाती है। सबसे पहले पुजारी अपने भर्राए गले से आरती के स्वर गुंजार करता है।
इस आरती-गाने में वह गंगा माता का गुणगान करता है। घंटे-घड़ियाल बजने लगते हैं। लोग अपनी-अपनी मनौतियाँ मनाने के लिए फूलों की छोटी-छोटी नावें गंगा की लहरों पर प्रवाहित कर देते हैं। ये छोटी-छोटी किश्तियाँ लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती चली जाती हैं। ये किशितयाँ दोने के रूप में होती हैं। गोताखोर इन दोनों को पकड़कर उनमें रखे पैसों को उठाकर अपने मुँह में दबा लेते हैं।
विशेष :
- लेखिका ने हर की पौड़ी पर होने वाली संध्याकालीन आरती का यथार्थ चित्रण किया है।
- वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
- भाषा सरल एवं सुबोध है।
8. न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उद्देश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था। बल्कि स्नान से ज्यादा समय ध्यान ले रहा था।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश ममता कालिया द्वारा रचित कहानी ‘दूसरा देवदास’ से अवतरित है। इसमें संभव की कथा उकेरी गई है जो दिल्ली से हरिद्वार आया है। यहाँ वह श्रद्धालुओं की अद्भुत, शांत व अनुशासित भीड़ देखकर चकित है।
व्याख्या : संभव दिल्ली का रहने वाला था। वह हरिद्वार में अपनी नानी के यहाँ आया हुआ था। वहाँ उसने गंगा-तट पर काफी भीड़ देखी। वैसे उसने भीड़ दिल्ली में भी देखी थी, पर यह भीड़ उससे अलग थी। यहाँ की भीड़ का ढंग अनोखा था। यहाँ की भीड़ में न तो जाति का महत्त्व था, न भाषा का। यहाँ तो सभी का ही उद्देश्य एक समान था। यहाँ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सभी लोगों के मन में जीवन के प्रति कल्याण की भावना थी। यहाँ की भीड़ में भागम-भाग नहीं थी, कहीं कोई आगे निकलने का प्रयास नहीं कर रहा था। सभी कुछ अनुशासित था। संभव की एक अनोखी बात यह भी लगी कि यहाँ गंगा में स्नान करने वाले आनंद के लिए डुबकी नहीं लगा रहे थे वरन् उनका ध्यान स्नान से ज़्यादा ध्यान (ईश्वर स्मरण) की ओर था। उनमें धार्मिंक आस्था का भाव अधिक था।
विशेष :
- संभव गंगा-तट की भीड़ की तुलना दिल्ली की भीड़ से करता है।
- विभिन्नता में एकता की भावना दर्शाई गई है।
- सरल-सुबोध भाषा का प्रयोग है।