गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 2 Summary
गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ – कवि परिचय
प्रश्न :
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन एवं साहित्य का परिचय दीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : निराला जी का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता पं. रामसहाय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के रहने वाले थे। घर पर ही इनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। उनकी प्रकृति में प्रारंभ से ही स्वच्छंदता थी अत: मैट्रिक से आगे शिक्षा न चल सकी। चौदह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह मनोहरा देवी के साथ हो गया। पिताजी की मृत्यु के बाद इन्होंने मेदिनीपुर रियासत में नौकरी कर ली। पिता की मृत्यु का आघात अभी भूल भी न पाए थे कि बाईस वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया।
आर्थिक संकटों, संघर्षों तथा जीवन की यथार्थ अनुभूतियों ने निराला जी के जीवन की दिशा ही मोड़ दी। ये रामकृष्ण मिशन, अद्वैत आश्रम, बैलूर मठ चले गए। वहाँ इन्होंने दर्शन शास्त्र का गहन अध्ययन किया और आश्रम के ‘समन्वय’ नामक पत्र के संपादन का कार्य भी किया। फिर ये लखनऊ में रहने के बाद इलाहाबाद चले गए और अन्त तक स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहकर तथा आर्थिक संकटों एवं अभावों में रहते हुए भी इन्होंने बहुमुखी साहित्य की सृष्टि की। निराला जी गष्भीर दार्शनिक, आत्माभिमानी एवं मानवतावादी थे। करुणा, दयालुता, दानशीलता और संबेदनशीलता इनके जीवन की चिरसंगिनी थी। दीन-दुःखियों और असहायों का सहायक यह साहित्य महारथी 15 अक्तूबर, 1961 ई. को भारतभूमि को सदा के लिए त्यागकर स्वर्ग सिधार गया।
रचनाएँ : निराला जी ने साहित्य के सभी अंगों पर विद्विता एवं अधिकारपूर्ण लेखनी चलाई है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैंकाव्य : परिमल, गीतिका, तुलसीदास अनामिका, अर्चना, आराधना, कुकुरमुत्ता आदि।
- उपन्यास : अप्सरा, अलका, निरूपमा, प्रभावती, काले कारनामे आदि।
- कहानी : सुकुल की बीवी, लिली, सखी, अपने घर, चतुरी चर्मकार आदि।
- निबंध : प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक, रवंद्र कानन आदि।
- रेखाचित्र : कुल्ली भाट, बिल्लेसुर आदि।
- जीवनी : राणा प्रताप, भीष्म, महाभारत, प्रड्डाद, ध्रुव, शकुन्तला।
- अनूदित : कपाल; कुंडल, चन्द्रशेखर आदि।
काव्यगत विशेषताएँ : निराला बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। निराला जी के काव्य में जहाँ एक ओर शक्ति और अदम्य पौरुष है, वहाँ दूसरी ओर शृंगार भी है जहाँ एक ओर दार्शनिकता है, वहाँ दूसरी ओर मानवता के प्रति करुणा, संवेदना और टीस है। जहाँ एक ओर वृद्धि तत्त्व है, वहाँ दूसरी ओर हृदय तत्त्व। कहीं जागरण है तो कहीं उन्माद और कहीं सिंह गर्जना। कहीं छायावादी निराला है तो कहीं रहस्यवादी। कहीं प्रगतिवादी तो कहीं मानवतावादी।
सन् 1916 में उन्होंने प्रसिद्ध कविता ‘जूही की कली’ लिखी जिससे बाद में उनको बहुत प्रसिद्धि मिली और वे मुक्त छंद के प्रवर्तक भी माने गए। निराला सन् 1922 में रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका समन्वय के संपादन से जुड़े। सन् 1923-24 में वे मतवाला के संपादक मंडल में शामिल हुए। वे जीवनभर पारिवारिक और आर्थिक कष्टों से जुझते रहे। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण निराला कहीं टिककर काम नहीं कर पाए। अंत में इलाहाबाद आकर रहे और वहीं उनका देहांत हुआ।
छायावाद और हिंदी की स्वच्छंदवादिता कविता के प्रमुख आधार स्तंभ निराला का काव्य-संसार बहुत व्यापक है। उनमें भारतीय इतिहास, दर्शन और परंपरा का व्यापक बोध है और समकालीन जीवन के यथार्थ के विभिन्न पक्षों का चित्रण भी। भावों और विचारों की जैसी विविधता, व्यापकता और गहराई निराला की कविताओं में मिलती है वैसी बहुत कम कवियों में है। उन्होंने भारतीय प्रकृति और संस्कृति के विभिन्न रूपों का गंभीर चित्रण अपने काव्य में किया है। भारतीय किसान जीवन से उनका लगाव उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है।
यद्यपि निराला मुक्त छंद के प्रवर्तक माने जाते हैं तथापि उन्होंने विभिन्न छंदों में भी कविताएँ लिखी हैं। उनके काव्य-संसार में काव्य-रूपों की भी विविधता है। एक ओर उन्होंने राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास जैसी प्रबंधात्मक कविताएँ लिखीं तो दूसरी ओर प्रगीतों की भी रचना की। उन्होंने हिंदी भाषा में गजलों की भी रचना की है। उनकी सामाजिक आलोचना व्यंग्य के रूप में उनकी कविताओं में जगह-जगह प्रकट हुई है।
भाषा : निराला जी की भाषा खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है। बंगला के प्रभाव के कारण भाषा में संगीतात्मकता है। क्रिया पदों का लोप अर्थ की दुर्बोधता में सहायक है। प्रगतिवादी कविताओं की भाषा सरल और बोधगम्य है। उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं।
शैली : निराला जी की शैली अतुकांत गीत है, जो बंगला शैली से प्रभावित है। क्रिया पदों से रहित, समासान्त पदों का प्रयोग इनकी शैली की विशेषता है। शैली ओज एवं प्रभावपूर्ण है। संगीतात्मकता इसका विशेष गुण है। निराला जी की शैली मौलिक है। वे अपनी शैली के स्वयं जन्मदाता हैं। लाक्षणिक शैली तथा संवेदना पक्ष में सूक्ष्म दार्शनिकता, नूतन प्रतीक-योजना तथा नवीन अप्रस्तुत विधान ने निराला को क्रांतिकारी कवि बना दिया है।
Geet Gane Do Mujhe, Saroj Smriti Class 12 Hindi Summary
1. गीत गाने दो मुझे कविता में निराला ने ऐसे समय की ओर इशारा किया है जिसमें चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते होश वालों के होश खो गए हैं यानी जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। जो कुछ मूल्यवान था वह लुट रहा है। पूरा संसार हार मानकर जहर से भर गया है। पूरी मानवता हा-हाकार कर रही है लगता है मानो पृथ्वी की लौ बुझ गई है, मनुष्य में जिजीविषा खत्म हो गई है। इसी लौ को जगाने की बात कवि कर रहा है और वेदना-पीड़ा को छिपाने के लिए, उसे रोकने के लिए गीत गाना चाहता है। निराशा में आशा का संचार करना चाहता है।
2. सरोज स्मृति कविता निराला की दिवंगता पुत्री सरोज पर कंंद्रित है। यह् कविता नौजवान बेटी के दिवंगत होने पर पिता का विलाप है। पिता के इस विलाप में कवि को कभी शकुंतला की याद आती है कभी अपनी स्वर्गीय पत्नी की। बेटी के रूप रंग में पत्नी का रूप रंग दिखाई पड़ता है, जिसका चित्रण निराला ने किया है। यही नहीं इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से निराला का जीवन संघर्ष भी प्रकट हुआ है। तभी तो वह कहते हैं-दुःख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही।
गीत गाने दो मुझे, सरोज स्मृति सप्रसंग व्याख्या
गीत गाने दो मुझे –
1. गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
शब्दार्थ : वेदना = पीड़ा। राह”रास्ता। पाथेय॰ संबल, सहारा। कंठ = गला। पृथा = पृथ्वी। ठाकुर = मालिक, स्वामी।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से अवतरित है। इस कविता में कवि ने ऐसे समय की ओर इशारा किया है जिसमें चोट खाते-खाते, संघर्ष करते-करते होश वालों के होश खो गए हैं यानी जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। कवि इस कविता के माध्यम से निराशा में आशा का संचार करना चाहता है।
व्याख्या : कवि कहता है कि वेदना को रोकने के लिए मुझे गीत गाने दो। जीवन में चोट खाते-खाते और संघर्ष करते होश वालों के भी होश छूट गए हैं। यानी अब जीवन जीना आसान नहीं रह गया है। जो कुछ मूल्यवान था, वह लुट रहा है। जो कुछ भी लोगों के पास था उसे ठगों-लुटेरों ने रात को अंधकार में लूट लिया है। कंठ की आवाज बंद होती जा रही है। देखो, काल आ रहा है। भाव यह है कि संसार की दशा यह हो गई है कि अब यहाँ जीवन जीना कठिन हो गया है। जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हुए लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं। जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान था वह लुटता जा रहा है। लोग कुछ कह नहीं पा रहे हैं। इस दशा में कविता ही लोगों की व्यथा को रोक सकती है, उसमें चेतना जगा सकती है।
विशेष :
- कवि निराशा के वातावरण में आशा की लौ जगाना चाहता है।
- ‘ठग-ठाकुरों शोषक वर्ग के प्रतीक हैं।
- ‘गीत गाने’ तथा ‘ठग-ठाकुरों में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘पाथेय’ शब्द को मानवीय मूल्यों के रूप में चित्रित किया गया है।
- भाषा सरल, सुबोध एवं प्रवाहमयी है।
2. भर गया है जहर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से अवतरित है। इस कविता के रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। कवि ने इन पंक्तियों में संसार की भयावह स्थिति का वर्णन किया है। लगता है पूरी मानवता हाहाकार कर रही है। लोगों की जिजीविषा खत्म हो गई है।
व्याख्या : कवि कहता है कि पूरा संसार हार मानकर जहर से भर गया है। मनुष्य को उसकी सही पहचान नहीं मिल रही है। लोग एक-दूसरे को अपरिचित निगाहों से देख रहे हैं अर्थांत् पूरी मानवता हार मान चुकी है। लोगों की जीने की इच्छा मर चुकी है। लोगों का सौहार्द समाप्त हो चुका है। पृथ्वी की लौ बुझ गई है। इसे पुन: जगाने की आवश्यकता है। इसके लिए कवि लोगों का आह्नान करता है कि इस बुझती हुई लौ को पुनः जलाने के लिए तुम जल उठो अर्थात् संसार की विसंगतियों को दूर करने के लिए संघर्षरत हो जाओ। तुम इस प्रकार जलो कि तुम्हारे तेज से यह धरा अलोकित हो जाए।
विशेष :
- उद्बोधनात्मक गीत है।
- कवि निराशा में आशा का संचार करता है।
- ‘भर गया है ……… जैसे हार खाकर’ में उपमा अलंकार है।
- ‘लोग लोगों’ में अनुप्रास अलंकार है।
- शब्द-प्रयोग अत्यंत सटीक है।
- भाषा सरल, सहज एवं लाक्षणिक है।
सरोज स्मृति –
1. देखा विवाह आमूल नवल
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल,
देखती मुझे तू हैंसी मंद,
होठों में बिजली फँसी, स्पंद
उर में भर झूली छवि सुंदर
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखो मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
शब्दार्थ : आमूल = जड़ तक, पूरी तरह। नवल = नया। कलश = घड़। स्पंद = धड़कन। उर = हृदय। उच्छुवास = ऊपर खींची गई साँस, आह भरना। स्तब्ध – हैरान। नतनयन = झुकी आँखें। आलोक = रोशनी, प्रकाश। अधर = होठ। धीति = प्यास, पान।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘सरोज-स्मृति’ से अवतरित हैं। यह कविता कवि की दिवंगता पुत्री सरोज पर केन्द्रित है। यह कविता एक शोक गीत है। यह कविता कवि के हदय का विलाप है। इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का जीवन संघर्ष एवं कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध है।
व्याख्या : कवि पुत्री सरोज को संबोधित करके कहता है कि मैंने तेरा विवाह देखा। तूने पूरी तरह से एक नया रूप धारण किए हुआ था। तुझ पर पवित्र कलश का शुभ जल छिड़का गया। उस समय तू मुझे मंद मुसकराहट के साथ देख रही थी। तब ऐसा लगता था कि तेरे होठों में बिजली की चमक फँसी हुई है। उस समय तेरे हृदय में प्रिय पति की छवि झूल रही थी। यह बात शब्दों में नहीं, थृंगार में मुखरित हो रही थी। तुम्हारा रूप-सौंदर्य एक उच्छ्वास की तरह विकसित होकर अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो गया था।
यह पति के प्रति तुम्हारे प्रगाढ़ प्यार तथा अचल विश्वास का प्रतीक था। लज्जा व संकोच से झुकी हुई तुम्हारी आँखों में एक नया प्रकाश उभर आया था। सौंदर्य का वह प्रकाश आँखों से उतरकर तुम्हारे होठों पर आ गया था। इस प्रकार तुम्हारे अधरों में एक स्वाभाविक कंपन हो उठा था। उस समय मैंने देखा कि मेरे प्रथम गीति की प्यास उस मूर्ति में साकार हो उठी थी।
विशेष :
- स्मृति-बिंब साकार हो उठा है।
- ‘नत नयनों में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘मूर्ति-धीति’ में मानवीकरण है।
- ‘अंग-अंग’, ‘थर-थर-थर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग है।
- कविता छंद बंधन से मुक्त है।
2. शृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वंसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
शब्दार्थ : निराकार = जिसका आकार न हो। रति रूप = कामदेव की पत्नी रति जैसी सुंदर। मही =धरती। निशि = रात। दिवस = दिन। मौन = चुप्पी।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा (भाग दो) में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से अवर्तरित हैं। इस काव्यांश में कवि ने पुत्री सरोज के सौन्दर्य में अपनी पत्नी के रूप-रंग की झलक देखी है। विवाह की सादगी का भी यहाँ चित्रण हुआ है।
व्याख्या : कवि पुत्री सरोज को संबोधित करके कहता है कि मैंने अपनी कविताओं में सौदर्य के जिस निराकार भाव को अभिव्यक्त किया था, वही भाव तुम्हारे रूप-सौंदर्य में साकार हो उठा था। मेरी कविताओं में रस की जो उच्छ्वासित धारा बह रही थी और जिस प्रेम-गीत को मैंने अपनी स्वर्गीया पत्नी के साथ मिलकर गाया था, वह आज भी मेरे प्राणों में अनुरागपूर्ण उत्साह का संचार कर रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मेरी वे श्रृंगारिक कल्पनाएँ आकाश से उतरकर पृथ्वी पर आ गई हैं।
तुम्हारा विवाह संपन्न हो गया, परंतु इस विवाह में कोई भी आत्मीय या स्वजन सम्मिलित नहीं हुआ। उनको आमंत्रित ही नहीं किया गया था। विवाह अत्यंत सादगीपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ। इस विवाह में कोई राग-रंग नहीं हुआ, कोई गीत नही गाए गए, घर में किसी प्रकार की चहल-पहल नहीं हुई। रात भर भी कोई नहीं जागा। बस सर्वत्र एक मौन भरा संगीत समाया हुआ था। इस प्रकार चुपचाप तुम्हारा नया जीवन प्रारंभ हो गया।
विशेष :
- निराला जी की कल्पना शक्ति देखते ही बनती है।
- सरोज के सौंदर्य की विशिष्टता को साकार किया गया है।
- ‘राग रंग’, ‘रति रूप’ में अनुप्रास अलंकार है।
- स्मृति-बिंब मूर्तिमान हो उठा है।
- भाषा सरल एवं सुबोध है।
3. माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुःख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण !
शब्दार्थ : पुष्प सेज = फूलों की शय्या। शकुंतला = कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका। समोद = खुशी के साथ। जलद = बादल। न्यस्त = निहित।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ निराला जी द्वारा रचित शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ से अवतरित हैं। इन पंक्तियों में कवि ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह के पश्चात् की स्त्थिति का वर्णन किया है।
व्याख्या : कवि कहता है- हे पुत्री! तेरी माँ तो तुझे बचपन में ही छोड़कर स्वर्ग सिधार गई धी अत: मैंने ही तुझे वे सभी शिक्षाएं दीं जो तेरी माँ को देनी थी। तेरे विवाह के उपरांत मैंने ही तेरी पुष्प-सेज को तैयार किया। उस समय मैं मन में यह सोच रहा था कि मैं भी तुझे उसी प्रकार विदा करूँगा जैसे कण्व ऋषि ने शकुन्तला को विदा किया था अर्थात् मुझे भी कण्व ऋषि के समान वेदना हो रही थी। यद्यापि तुम्हें शकुंतला वाला पाठ नहीं पढ़ाया गया था।
तुम्हारे जीवन और यौवन की कलाएँ भी शंकुतला से सर्वथा भिन्न थीं। पुत्री. तुमने कुछ दिन अपनी ससुराल में व्यतीत किए और फिर अपनी नानी की स्नेहमयी गोद में पुन: जा बैठी अतः नानी के घर आ गई। वहाँ तुझे मामा-मामी का भरपूर स्नेह मिला। उन्होंने तुझ पर स्नेह की वर्षा उसी प्रकार की जिस प्रकार बादल धरती पर जल बरसाते हैं। तेरे मामा-मामी ही सदा तेरे रक्षक और हित-चिंतक बने रहे। वे सदा तेरे कामों में लगे रहे।
तेरी माँ भी उसी कुल की एक लता थी, जिसमें तू एक कली के रूप में विकसित हुई थी और बाद में सरोज बनकर खिली। तुझे नानी की गोद में पलने का अवसर मिला और जीवन घड़ी में भी तूने नानी की गोद में शरण ली। वहीं तूने अपने नेत्र मूँदकर दुनिया से महाप्रयाण किया।
विशेष :
- सरोज के अंतिम समय का मार्मिक वर्णन है।
- ‘भरे जलद —- अपार में’ में उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण अलंकार हैं।
- ‘मामा-मामी’. ‘सदा समस्त’ में अनुप्रास अलंकार है।
- संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग है।
- कविता छंद बंधन से मुक्त है।
4. मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों श्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करत़् मैं तेरा तर्पण!
शब्दार्थ : संबल = सहारा। विकल = बेचैन। वज्रपात = भारी विपत्ति। नत = झुका हुआ। सकल = सारा। शतदल = कमल। अर्पण = चढ़ाना, भेंट करना।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘सरोज स्मृति’ से अवतरित है। यह कविता बेटी के आकस्मिक निधन पर एक पिता का विलाप है। इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से कवि निराला का जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है।
व्याख्या : कवि अपनी पुत्री सरोज को संबोधित करते हुए कहता है – हे पुत्री! तू मुझ भाग्यहीन पिता का एकमात्र सहारा थी। मैंने तेरी स्मृतियों को काफी लंबे समय तक हुदय में संजोए रखा, परंतु अब मैं अत्यधिक व्याकुल हो गया हूँ। अतः उसे प्रकट कर रहा हूँ। मेरा तो सारा जीवन ही दुखों की कहानी बनकर रह गया है। मैं अपने दुख की कथा को आज इस कविता के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ. जिसे मैं आज तक नहीं कह पाया था।
मेरे कर्म पर वज्रपात भी हो जाए तब भी मेरा सिर इसी मार्ग पर झुका रहेगा। मैं अपने मानवीय धर्म की रक्षा करता रहूँगा। मैं अपने मार्ग से विचलित नहीं हूँगा। यदि अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करते हुए मेरे समस्त सत्कार्य शीत के कमल दल की भाँति नष्ट हो जाएँ तब भी मुझे कोई चिंता नहीं है। कवि अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहता है – हे पुत्री ! मैं अपने विगत जीवन के सभी पुण्य कार्यों का फल तुझे अर्पित कर तेरा तर्पण कर रहा हूँ। इसी प्रकार मैं तेरा श्राद्ध कर रहा हूँ। यही मेरी तेरे प्रति श्रद्धाँजलि है।
विशेष :
- कवि-हृदय की असीम वेदना को अभिव्यक्ति मिली है।
- ‘शीत के से शतदल’ में उपमा अलंकार है।
- ‘क्या कहूँ आज, जो नहीं कही’ में वक्रोक्ति अलंकार है।
- क्या कहूँ, पथ पर, कर करता, तेरा तर्पण में अनुप्रास अलंकार है।
- तत्सम शब्द प्रधान भाषा का प्रयोग है।