यथास्मै रोचते विश्वम् Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 19 Summary
यथास्मै रोचते विश्वम् – रामविलास शर्मा – कवि परिचय
प्रश्न :
रामविलास शर्मा के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : डॉ. रामविलास शमा का जन्म 10 अक्तूबर, 1912 ई. को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के ऊँच गाँव में हुआ। आपने लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. करने के बाद पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की और वहीं अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हो गए। बाद में आप बलवंत राजपूत कॉलेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। आप प्रगतिशील लेखक संघ के मंत्री भी रह चुके हैं। इस प्रकार आपका मार्क्सवादी साहित्य से घनिष्ठ संबंध रहा है। आपकी ख्याति आलोचक के रूप में अधिक है, किंतु आपने आलोचना के अतिरिक्त कविताएँ, निबंध आदि भी लिखे हैं। आप प्रारंभ से ही हिंदी में प्रगतिवादी समीक्षा-पद्धति के प्रमुख स्तंभ रहे हैं।
अपने विचारोत्तेजक निबंधों के द्वारा आपने हिंदी समीक्षा को नवीन दिशा प्रदान की है और संपूर्ण साहित्य नए और पुराने को मार्स्सवादी दृष्टिकोण से देखने-परखने का कार्य बड़ी क्षमता और दक्षता के साथ किया है। सैद्धांतिक तथा व्याव्रहारिक दोनों ही समीक्षा-पद्धतियों से अपने विचारों को पुष्ट करने का स्तुत्य प्रयत्न आपने किया है। ‘हंस’ के कविता विशेषांक कi और आगरा से प्रकाशित ‘समालोचक’ नामक पत्रिका का संपादन भी उन्होंने बड़ी योग्यता एवं कुशलता से किया। सन् 2000 इ. में दिल्ली में उनका देहावसान हुआ।
रचनाएँ : रामविलास शर्मा जी मुख्यतः समीक्षक के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने समीक्षात्मक निबंध ही अधिक लिखे हैं। उनकी स्वतंत्र आलोचनात्मक कृतियों में ‘प्रेमचंद और उनका युग’, ‘निराला की साहित्य-साधना’ (तीन भाग), ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’, ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा ‘, ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’, ‘भाषा और समाज’, ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ ( तीन भाग) आदि उल्लेखनीय हैं। ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ (दो खंड) उनके इतिहास-बोध को प्रमाणित करती हैं। आत्मकथा शैली में ‘घर की बात’ उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण रचना है जिसमें न केवल उनके परिवार और परिजनों का लगभग सौ वर्ष का इतिहास है, बल्कि इसे किसी सीमा तक उस अवधि का सामाजिक इतिहास भी कह सकते हैं।
साहित्यिक-परिचय : शर्मा जी महत्त्वपूर्ण विचारक और आलोचक होने के साथ-साथ एक सफल निबंधकार भी हैं। उन्होंने विचार प्रधान और व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की रचना की है।
रामविलास शर्मा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। ‘निराला की साहित्य-साधना’ पुस्तक पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार का ‘भारत भारती पुरस्कार’ और हिंदी अकादमी, दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’ उल्लेखनीय हैं।
भाषा-शैली : शर्मा जी की निबंध-शैली कहीं तो विचारोत्तेजक और कहीं व्यंग्य प्रधान है। स्पष्ट कथन के कारण उनकी शैली में कहीं कबीर जैसी ओजस्विता आ जाती है। अपने कथ्य को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने उसी के अनुकूल भापा प्रयुक्त की है। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रमुखता है, परंतु अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के प्रचलित शब्दों का यथेष्ट प्रयोग करने से उन्हें परहेज नहीं है। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ, सहज, सरस एवं विषयानुकूल है।
Jahan Koi Wapsi Nahi Class 12 Hindi Summary
प्रस्तुत लेख रामविलास शर्मा के ‘विराम चिह्’ शीर्षक निबंध संग्रह से उद्धृत है। इसके लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से करसे हुए उसे उसके कर्म के प्रति जागरूक किया है। लेखक साहित्य को समाज का प्रतिबिंब नहीं मानता। उसके अनुसार साहित्य व्यक्ति को केवल मानसिक शांति ही प्रदान नहीं करता बल्कि उसे उन्नति के पथ पर बढ़ने की प्रेणा भी देता है। लेखक उन लागों को ललकारता है जो गुलामी की बातें करते हैं। इस अपने कथ्य को स्पष्ट करने के लिए शर्मा जी ने तदनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा में सामान्यत: तत्सम शब्दों की प्रमुखता है। लेखक के अनुसार समाज से विशेष रूप से संबंध रखना ही साहित्य की कसौटी है और इसी जनवादी साहित्य चेतना को उन्होंने मान्यता दी है।
एक शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
यथा = जैसे (As)। अस्मै = इसको रोचते = अच्छा लगता है (Likes)। विश्वम् = संसार (Wor/d) । तथा = वैसे इदम् = इसे, परिवर्तते = बदल देता (A Poet can change the world according to his will) प प्रजापति = ब्रह्ना। सृष्टि के रचयिता (The creator)। तुलना = समानता (Comparison)। दर्पण = शीशा (Looking glass)। यथार्थ = वास्तविक जैसा वह है (Real)। प्रतिबिबित करना = प्रतिमूर्तित करना, उसका प्रतिबिंब दिखाना (To reflect, to show image)। दर्जा = पदवी (Status)। जन्मसिद्ध अधिकार = जन्म (पैदाइश) से ही साबित हक (Birth right)। यूनानी = यूनान के (of Greece, Greek)। अफलातून = (Plato)। यूनान का एक महाविद्वान् एवं दार्शनिक (फिलास्फर) जो सुकरात का शिष्य और अरस्तू का गुरु था। बहवो दुर्लभाश्चैव……गुणा: = तुमने जो गुण गिनाए हैं, वे बहुत ज्यादा हैं, और दुर्लभ हैं (एक व्यक्ति को मिलने मुश्किल हैं)। नई सृष्टि = नवीन विश्व रचना, नई दुनिया बनाना (To create a new world)।
सृष्टि = संसृति, संसार रचना, विश्व-निर्माण (Creation)। यथार्थ जीवन = असली (हू-बहू) जिंदगी (Real life)! पाश्र्वभाग = समीप के (दाएँ-बाएँ या ऊपर-नीचे के हिस्से) (Sides)। गुणवान् = सद्गुणी वीर्यवान् = वीरता-संपन्न (Brave)। कृतज्ञ = किए हुए उपकार को मानने वाला (Thankful)। सद्यवाक्य = तुरंत उत्तर देने वाला, दृढ़व्रत अपने व्रत (दृढ़ संकल्प) पर टिकने वाला। चरित्रवान् = अच्छे चाल-चलन वाला। दयावान् = दयालु (Mercifil)। समर्थ = शक्तिवान। प्रियदर्शन = देखने में प्यारा (Handsome), नायक = कलाकार (Hero)। पाश्श्व-भूमि – पीछे की ओर (Proximity)। यथार्थवादी – वास्तविकता का वर्णनकर्ता, हकीकत बयान करने वाला (Realist)। क्षितिज = दिशांत, दिगंत (Horizon)। विश्रांति = विश्राम (Rest)। परिधि = घेरा, सहानुभूति = हमदर्दी (Sympathy)। ट्रेजेडी = दुझखांत नाटक (Tragedy)। विहग = पक्षी (Bird)। क्षुत्ध = बेचैन, क्षोभ से भरा (Restless, in angry mood) 1 रुद्ध स्वर = रुका हुआ स्वर। द्रष्टा = (भविष्य की ओर) देखने वाला (Fore sighted)। युगांतरकारी = युग परिवर्तन लाने वाला।
यथास्मै रोचते विश्वम् सप्रसंग व्याख्या
प्रस्तुत लेख में लेखक ने कवि को प्रजापति का दर्जा देते हुए उसे अपने कार्य के प्रति सचेत किया है। समाज के यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित न करके, प्रजापति द्वारा निर्मित समाज से असंतुष्ट होकर नए समाज का निर्माण करना-कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है। अरस्तू की ट्रेजेडी के समक्ष यूनानी विद्वानों के विचार-‘ कला जीवन की नकल है’ और अफलातून के विचार-‘ चूँक संसार असल का नकल है इसलिए कला नकल की नकल है’ असफल रहे।
आदि कवि वाल्मीकि ने सभी परस्पर-विरोधी एवं दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र नायक राम में दिखाकर समाज को शीशे में प्रतिबिंबित नहीं किया अपितु प्रजापति की तरह नई सृष्टि की रचना की। अतएव साहित्य समाज का दर्पण न होकर कवि की रुचि के अनुसार निर्मित ज़ीवन की यथार्थता का चित्रण है क्योंकि प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है-उज्ज्वल भविष्य की कामना लिए हुए। अतः साहित्य में व्यक्ति मात्र अपने सुख-दुःख की बात ही नहीं सुनता अपितु वह उसमें आशा के स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति को मानसिक विश्राम ही प्रदान नहीं करता वह उसे प्रगति के मार्ग पर आने की प्रेरणा भी देता है।
कवि असंतोष की जड़ ये सामाजिक मानव संबंध ही हैं। इसके अभाव में शायद कवि को प्रजापति बनने की आवश्यकता न होती। कवि तो विधाता पर साहित्य रचते हुए उसे भी मानवीय संबंधों के दायरे में खींच लाता है, परंतु शेक्सपीयर ने ‘हैलमेट’ में इन मानव संबंधों की दीवार को तोड़ डाला और ऐसे समय में कवि का प्रजापति रूप और भी उजागर हो जाता है, जब वह समाज के बहुसंख्यक लोगों को, जो पिंजड़े में पंख फड़फड़ाते हुए बाहर निकलने को व्याकुल थे, खुले आकाश के गीत गाकर उनके पंखों में नई शक्ति भर देता है।
15 वीं और 16 वीं शताब्दी में हिंदी साहित्य ने सामंती पिंजड़े में बंद मानव-जीवन को मुक्त करने के लिए जाति-पाँति और धर्म के सींकचों पर प्रहार करके यही भूमिका निभाई। नानक, सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, चंडीदास, तिरुवल्लुवर आदि भिन्न-भिन्न प्रांतों के गायकों की वाणी ने पीड़ित जनता के मर्म को छूकर उसे नवजीवन प्राप्त करने की आशा दी और जीवन परिवर्तन के संघर्ष के लिए उभारा। तत्पश्चात् 17 वीं और 20 वीं शती में रींद्रनाथ, भारतेंदु हरिश्चंद्र, वीरेशलिंगम्, भारती वल्लतौल इत्यादि कवियों ने अंग्रेजी राजाओं और सामंती अवशेषों के पिंजड़ों पर पुन: प्रहार किया और दु:खी पराधीन जनता को स्वाधीन जीवन की ओर बढ़ने की प्रेरणा हो।
नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि से लेकर भारतेंदु तक चली आ रही हमारे साहित्य की गौरवान्वित परंपरा व्यक्ति को भाग्यवादी न बनार पाज्चजन्य शंखनाद सुनकर समरभूमि में -तर आने का आल्लान करती है! इसलिए मानव संबंधों के पिंजरों में अभी भी बंदी हुई तथा खुले आकाश में उड़ने के लिए व्याकुल जनजीवन एक के बाद एक पिंजड़े की तीलियाँ तोड़ रहा है। भारतीय जनजीवन को पराधीन एवं पराभव का पाठ पढ़ाने वाले, दंभी, अतीत दृष्टा उन साहित्यकारों को धिक्कार है। साहित्य की कसौटी तो भारत भू के जन-समाज से परिसंबद्धता है। उन्हें आत्मविश्वास और दृढ़ता प्रदान करना है। तभी कवि को वास्तव में प्रजापति की संज्ञा दी जा सकती हैं।
कवि जब प्रजापति की इस अपनी भूमिका को स्मृति पटल में रखकर, असमर्थ रूप में परिवर्तन चाहने वाली जनता का पुरोगामी (अगुआ) बनकर, केवल उसे दर्पण ही न दिखाकर अग्रसर होता है तभी उसका व्यक्तित्व पूरे वेग से निखरता है और इसी परंपरा को अपनाकर हिंदी साहित्य के उन्नत और समृद्ध होने से हमारे जातीय सम्मान की रक्षा हो सकेगी।
गद्य ग्यांशों की सप्रसंग व्याख्या –
1. यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति का दर्जा नहीं पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश जनवादी सामाजिक चेतना के समर्थ समालोचक रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत किया गया है। इसमें लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति (ब्रह्मा) से की है। कवि को उसके कार्य के प्रति सचेष्ट भी किया है।
व्याख्या : लेखक ने इस परंपरागत उक्ति के प्रति अपनी असहमति दर्शाई है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ साहित्य को समाज का दर्पण कहना तर्कसंगत नहीं है। साहित्य का कार्य समाज के सत्य को दिखाना मात्र नहीं है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो समाज को बदलने का प्रश्न ही न उठता। कवि तो प्रजापति अर्थात् ब्रहा है जो सृष्टा का दायित्व निर्वाह करता है। उसका कार्य केवल इतना नहीं है कि वह समाज की यथार्थ झलक ही प्रस्तुत करके रह जाए, अपितु जीवन को परिवर्तित करने का भी कार्य करता है। ईश्वर ने जिस समाज का निर्माण किया है, कवि उसके प्रति अपना असंतोष प्रकट करता है। वह तो अपने ढंग से समाज बनाना चाहता है और यंह उसका अधिकार भी है। यहीं आकर वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है।
विशेष :
- लेखक कवि-कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करने में पूर्णतः समर्थ रहा है।
- भाषा की सहजता एवं तार्किकता दर्शनीय है।
- लेखक ने इस मान्यता साहित्य समाज का दर्पण है-का विरोध किया है।
2. कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं। जिन रेखाओं और रंगो से कवि चित्र बनाता है, वे उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुधार रूप ही नहीं, चित्र के पाश्व्वभाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉं. रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक कवि की रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए कहता है-
व्याख्या : कवि जो कुछ भी लिखता है, उसका एक तर्कपूर्ण एवं निश्चित आधार अवश्य होता है। वह केवल कल्पना के आधार पर नहीं लिखता। हमें भले ही उसकी रचना में समाज का हू-ब-हू चित्रण न मिले, लेकिन उसमें जीवन का ऐसा चित्रण अवश्य मिलता है, जो हमें देखने में अच्छा लगता है। उसे हम अपना आदर्श भी मान लेते हैं। जिस प्रकार चित्रकार रंगों और रेखाओं से चित्र बनाता है, उसी प्रकार कवि शब्दों की सहायता से चित्र बनाता है।
वह अपनी रचना में जिन रेखाओं और रंगों का उपयोग करता है, वे उसके चारों ओर के परिवेश में बिखरे होते हैं तथा वास्तविक जीवन में भी मिलते हैं। वह केवल चमकीले रंग और सुंदर रूप ही अर्थात् अच्छी-अच्छी बातें ही समाज और परिवेश से ग्रहाण नहीं करता, बस्कि अपने चित्रण की पृष्ठभूमि में अंकित काली छायाएँ भी वह उसी समाज से ग्रहण करता है। भाव यह है कि उसकी रचना यथार्थ पर आधारित होती है। वह सभी प्रकार की स्थितियाँ और पात्र वास्तविक जीवन से ग्रहण करता है।
विशेष :
- कवि की रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है।
- कवि को एक कुशल एवं यथार्थ चित्रकार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
- भाषा सरस एवं प्रतीकात्मक है।
3. कवि अपनी रुचि के अनुसार जब विश्व को परिवर्तित करता है तो यह भी बताता है कि विश्व में उसे असंतोष क्यों है, वह यह भी बताता है कि विश्व में उसे क्या रुचता है, जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है। उसके चित्र के चमकीले रंग और पाश्र्व-भूमि की गहरी काली रेखाएँ, दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित डॉ. रामविलास शर्मा के निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत हैं। इनमें लेखक ने कवि को मात्र दर्पण दिखाने वाला न मानकर प्रजापति बताया है। वह साहित्य में नव-निर्माण करता है।
व्याख्या : कवि की रचना का आधार तो यही संसार होता है, परंतु वह इस संसार में परिवर्तन करना चाहता है। वह उन कारणों को स्पष्ट करता है कि उसे वर्तमान स्थिति से अरुचि क्यों है और वह किस प्रकार का परिवर्तन चाहता है। वह अपनी पसंद और नापांद को भी बताता है। वह उन बातों का स्पष्टीकरण भी देता है जिन्हें वहाँ विकसित करना चाहता है। लेखक चित्र के माध्यम से अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करता है।
चित्रण के मुख्य दृश्य में चमकीले रंग और उसकी पृष्ठ-भूंमि में काली रेखाओं का आधार रह संसार ही होता है। जिस प्रकार चित्र का आधार वास्तविक जीवन होता है वैसे ही कवि भी यथार्थवादी होता है। इस कवि को प्रजापति कहा गया है। कवि धरती का आधार ग्रहण किए रहता है। वह भविष्य के प्रति आशा भरी दृष्टि से देखता है। वह वर्तमान और भविण्य का संयोजन कर अपनी रचना प्रस्तुत करता है। वह सर्जक होता है। यहीं आकर वह प्रजापति के दायित्व का निर्वाह करने में सफल होता है।
विशेष :
- लेखक ने कवि-कर्तव्य पर भली प्रकार प्रकाश डाला है।
- चमकीला रंग ‘सत्’ का और गहरी काली रेखाएँ ‘असत्’ की प्रतीक हैं।
4. यदि समाज में मानव-संबंध वही होते जो कवि चाहता है, तो शायद उसे प्रजापति बनने की जरूरत न पड़ती। उसके असंतोष की जड़ ये मानव-संबंध ही हैं। मानव-संबंधों से परे साहित्य नही है। कवि जब विधाता पर साहित्य रचता है तो उसे भी मानव-संबंधों की परिधि में खींच लाता है।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। इसमें लेखक ने कवि की निर्माणकारी भूमिका पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि कवि तो प्रजापति के समान समाज का नव-निर्माण करता है। समाज में मानव-संबंध वैसे नहीं हैं जैसे कवि चाहता है। इन संबंधों को सुधारने के लिए ही उसे प्रजापति के दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। समाज की वर्तमान स्थिति के प्रति उसके मन में असंतोष रहता है। साहित्य की रचना के मूल में ये मानव-संबंध ही होते हैं। कवि तो विधाता तक को नहीं बख्शाता। साहित्य-सृजन करते समय वह विधाता को भी मानव-संबंधों के दायरे में खींच लाता है।
विशेष :
- साहित्य की उपयोगिता पर सटीक बात कही गई है।
- सरल एवं प्रवाहपूर्ण भाषा-शैली का अनुसरण किया गया है।
5. ऐसे समय जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन मानव-संबंधों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगे, सींकचे तोड़कर बाहर उड़ने के लिए आतुर हो उठे, उस समय कवि का प्रजापति रूप और भी स्पष्ट हो उठता है। वह समाज का द्रष्टा और नियामक के मानव-विहग से क्षुब्ध और रुद्धस्वर को वाणी देता है। वह मुक्त गगन के गीत गाकर उस विहग के परों में नई शक्ति भर देता है।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत हा काव आदश समाज की स्थापना के लिए अपना प्रजापति रूप प्रकट करता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि कवि का सृष्टिकर्त्ता रूप तब और अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है जब समाज के अधिकांश लोगों का जीवन समाज की रूढ़ियों के बंधन में जकड़ा हो तथा वे इससे दु:खी एवं पीड़ित हों। वे इससे मुक्ति पाने के लिए व्याकुल हो रहे हैं। ऐसी दशा में कवि का प्रजापति रूप मुखरित हो उठता है। तब कवि समाज के भविष्य को देखने वाला बनकर तथा नियामक के रूप में जनसाधारण के मन में शासक वर्ग के प्रति उत्तेजक आक्रोश को वाणी देता है। जो लोग शासन के भयवश अपनी बात नहीं कह पाते, वह (कवि) उन्हें प्रेरणा देकर उत्साहित करता है। वह स्वतंत्रता के गीत गाकर प्रेरणा देता है तथा मानव रूपी पक्षी के पैरों में नया उत्साह भर देता है। इस प्रकार उसका प्रजापति रूप उभर आता है।
विशेष :
- लेखक ने कवि की प्रजापति वाली भूमिका की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
- तत्सम शब्द प्रधान भाषा का प्रयोग किया गया है।
- शैली में काव्यात्मकता का गुण है।
6. साहित्य का पाज्चजन्य समर-भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजरे में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें समर-भूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इसमें लंखक ने आज के युग में साहित्यकार की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या : साहित्य मनुष्य के लिए सदा से प्रेरणा का स्रोत रहा है। लेखक साहित्य की तुलना श्रीकृष्ण के शंख ‘पाज्चजन्य’ रो करने हुए कहता है कि जिस प्रकार वह शंख ध्वनि करके युद्ध ने लिए प्रेरित करता था. वैसे ही साहित्य मनुष्य के लिए प्रेरणा तौर
व्याख्या : साहित्य मनुष्य के लिए सदा से प्रेरणा का स्रोत रहा है। लेखक साहित्य की तुलना श्रीकृष्ण के शंख ‘पाज्चजन्य’ से करते हुए कहता है कि जिस प्रकार वह शंख ध्वनि करके युद्ध के लिए प्रेरित करता था, वैसे ही साहित्य मनुष्य के लिए प्रेरणा और उत्साह का स्रोत होता है। साहित्यकार अपने लेखन से लोगों में व्याप्त उदासीनता एवं निराशा भगाता है।
साहित्य तो लोगों को जीवन-संग्राम में जूझने की प्रेरणा देता है। वह लोगों को भाग्य के भरोसे रहकर कष्ट और अत्याचार सहने का पाठ नहीं पढ़ाता। वह व्यक्ति को पिंजरे में बंद होकर छटपटाने और असहाय बने रहने को नहीं कहता। साहित्य तो उन लोगों को डाँटता-फटकारता है जो लोगों को भाग्यंवादी या आलसी बनाते हैं। वह तो उन व्यक्तियों को जीवन-संग्राम में जूझने को प्रेरित करता है जो पौरुषहीन, कमजोर, पराजित एवं कायर हैं। वह ऐसे व्यक्तियों में भी आत्मबल का संचार करता है, ताकि वे समय की ललकार का सामना कर सकें। साहित्यकार का दायित्व निर्माणकारी है।
विशेष :
- लेखक ने मुहावरेदार भाषा का प्रयोग कर कथ्य को सहज एवं प्रभावशाली बना दिया है।
- ‘पाञ्चजन्य’ से श्रीकृष्ण के शंख की ओर संकेत है।
7. धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं, जो भारतभूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दंभ करके मानव-मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते हैं। ये द्रष्टा नहीं हैं, इनकी आँखें अतीत की ओर हैं। ये स्रष्टा नहीं हैं, इनके दर्पण में इन्हीं की अहंवादी विकृतियाँ दिखाई देती हैं। (पृष्ठ 145) प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत है। लेखक पराभव प्रेमी साहित्यकारों को फटकारता है।
व्याख्या : साहित्य जब भाग्य के आसरे बैठे, पिंजरे में बंद पंख फड़फड़ाते व्यक्ति को मुक्त होने की प्रेरणा देता है और आशा का संचार करता है तो उस समय उसके सामने उद्देश्यहीन कला, व्यक्तिवाद, निराशा, अहंकार, व्यक्तिवाद और पराजय के सिद्धांत-सूर्य के सामने अंधकार की तरह नहीं ठहरते और ऐसी प्रेरणा देने वाले 15 वीं-16वीं सदी के गायकों एवं तत्पश्चात् 17 वीं और 20 वीं सदी के साहित्यकारों को हमारा साधुवाद।
इन्हीं से प्रेरणा पाकर भारतीय जन-जीवन रूपी विहंग अपने को मुक्त करने के लिए पिंजरे की तीलियाँ तोड़ रहा है परंतु उन साहित्यकारों को धिक्कार है जो उन तीलियों को और मजबूत कर रहे हैं अर्थात् गुलामी की भावना को मजबूत कर रहे हैं। जो भारत भू में पैदा होकर और अपने को दंभी-अहंकारी साहित्यकार मानकर ऊपर से तो मनुष्य से मुक्त करने का गीत गाकर पर-वास्तव में जन-साधारण को पराधीनता और तिरस्कार का पाठ पढ़ा रहे हैं। ये न युग-द्रष्टा हैं. न प्रजापति की तरह स्रष्टा हैं बल्कि इन्हें शीशे में अपनी ही भद्दी सूरतें दिखाई देती हैं।
विशेष :
- लेखक ने परंपरावादी साहित्यकारों पर करारा व्यंग्य किया है।
- लेखक की स्पष्टवादिता एक प्रशंसनीय गुण है।
8. प्रजापति की अपनी भूमिका भूलकर कवि दर्पण दिखाने वाला ही रह जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता है जिनकी अपनी कोई असलियत न हो। कवि का व्यक्तित्व पूरे वेग से तभी निखरता है, जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन चाहने वाली जनता के आगे कवि-पुरोहित की तरह आगे बढ़ता है। इसी परंपरा को अपनाने से हिंदी-साहित्य उन्नत और समृ क होकर हमारे जातीय सम्मान की रक्षा सकेगा।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध समालोचक रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत हैं। लेखक ने इन पंक्तियों में कवि (साहित्यकार) की भूमिका पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या : लेखक इस मान्यता का खंडन करता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। यदि यह बात सत्य होती तो साहित्यकार कभी भी प्रजापति (ब्रहा) नहीं कहलाता। प्रजापति तो नव-निर्माण करता है. न कि निर्मित वस्तु का प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है। समाज की स्थिति का यथावत् चित्रंण करके तो वह ऐसा बन जाता है जैसा दर्पण दिखाने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति वही दिखाता है जो मौजूद होता है। वह नकलची मात्र रह जाता है। उसमें अपनी वास्तविकता नहीं होती। इसके विपरीत कवि तो समाज को अपने विचारों के अनुरूप ढालना चाहता है।
वह समाज का पुन: निर्माण करता है। जब समाज के लोग वर्तमान स्थिति को बदल डालना चाहते हैं तो कवि उनका नेतृत्व करता है। वह उन्हे दिशा दिखाता है और उनके आगे-आगे पुरोहित बनकर चलता है। इस प्रकार वह असंतुष्ट जनता की भावनाओं को सशक्त वाणी प्रदान करता है। इस प्रकार वह साहित्य को समृद्ध एवं विकसित करता है। इससे वह हमारे जातीय-सम्मान की रक्षा करने में समर्थ सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि कवि सामाजिक दशा का चित्रण मात्र नहीं करता, बल्कि उसे परिवर्तित भी करता है वह प्रजापति का दायित्व पूरा करता है।
विशेष :
- कवि के उत्तरदायित्व पर प्रकाश डूला है।
- कवि को दर्पण दिखाने वाला बनने से रोकने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
- भाषा सरल, सरस एवं प्रवाहयुक्त है।
9. अभी भी मानव-संबंधों के पिंजड़े में भारतीय जीवन-विहग बंदी है। मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिए वह व्याकुल है लेकिन आज भारतीय जन-जीवन संगठित प्रहार करके एक के बाद एक पिंजड़े की तीलियाँ तोड़ रहा है। घिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं जो भारत भूमि में जन्म लेकर और साहित्यकार होने का दंभ करके मानव मुक्ति के गीत गाकर भारतीय जन को पराधीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते हैं।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ.. रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक पराभव प्रेमी साहित्यकारों को फटकारता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि अभी तक मनुष्य का जीवन मानव-संबंधों के बंधन से मुक्त नहीं हो पाया है। यद्यपि मानव खुले आकाश में उड़ान भरने के लिए बेचैन हो रहा है। आज भारतीय जन-जीवन मिलकर गुलामी के बंधनों पर चोट कर रहा है। लेखक उन साहित्यकारों को धिक्कारता है जो मानव की स्वतंत्रता के मार्ग को रोकते हैं। ऐसे तथाकथित साहित्यकार आज भी मानव-बंधनों को तोड़ने के बजाय उन्हें और मजबूत कर रहे हैं। ऐसे लोग भारत की भूमि पर जन्म लेकर और स्वयं को साहित्यकार कहलाने का दंभ करके गीत तो मानव-मुक्ति के गाते हैं, पर लोगों को गुलामी और पराजय की सीख देते हैं। ये लोग साहित्यकार की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, अतः उनका साहित्यकार होने का दंभ करना बेमानी है।
यदि ये साहित्यकार आज भी मनुष्य को पराधीनता का पाठ पढ़ाते हैं, उसे आज भी उस युग में जीने के लिए विवश करते हैं, जिससे निकलने के लिए वह छटपटा रहा है, तो हम इन साहित्यकारों को न तो द्रष्टा कह सकते हैं और न स्रष्टा। ये लोग आज भी अतीत में जी रहे हैं। इनकी कोई दृष्टि है ही नहीं। ये जिस साहित्य की रचना करते हैं, उसमें इनकों अपनी ही विकृतियाँ (गलत छवि) नजर आती हैं। लेखक इनको साहित्यकार मानने को ही तैयार नहीं है। ये किसी भी प्रकार से नए समाज का निर्माण नहीं कर सकते।
विशेष :
- लेखक साहित्यकार की भूमिका पर प्रकाश डाल रहा है।
- वह अहंवादी साहित्यकारों की कलई खोलता जान पड़ता है।
- व्यंजना शक्ति का प्रयोग हुआ है।
- विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।
10. उसके चित्र के चमकीले रंग और पाश्व्वभूमि की गहरी काली रेखाएँ-दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है। ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-दुख की बात नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘रामविलास शर्मा’ द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक ने यहाँ कवि के व्यापक रूप का उल्लेख किया है। कवि अपनी रुचि के अनुसार विश्व का निर्माण करता है।
व्याख्या – कवि विश्व को जैसा देखना चाहता है वह अपनी रुचि के अनुसार विश्व का वैसा ही निर्माण कर लेता है। कवि अपनी कल्पना के संसार को कविता में उतार कर यह भी बताता है कि उसे विश्व में क्या अच्छा लगता है तथा वह किस चीज को फलते-फूलते देखना चाहता है। उसकी कविताओं में यथार्थ चित्रण होता है तथा वह जीवन के उजले और मैले दोनों पहलुओं को चित्रित करता है। उसके चित्रों में जो गहरे चमकीले रंग और काली रेखाएँ होती हैं वे कहीं न कहीं यथार्थ जीवन से जुड़ी होती हैं अर्थात् जीवन में सुख-दुःख दोनों होते हैं और उनका सरोकार कहीं न कहीं यथार्थ जीवन से ही होता है।
इसलिए विश्व की सृष्टि करने वाला कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, कवि का यथार्थ जमीन से जुड़ा होता है परंतु उसकी दृष्टि सुदूर भविष्य पर टिकी होती है। कवि भविष्य के लिए भी चितित होता है। वह ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जो उसकी रुचि के अनुसार हो। साहित्य केवल मनुष्य के सुख-दु:ख को ही हमारे सामने प्रस्तुत नहीं करता बल्कि वह तो हममें जीवन के प्रति एक आशा भी जगाता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति को विश्राम तो देता ही है साथ ही निरंतर उसको आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित करता है।
विशेष :
- कवि एवं कवि कर्म को स्पष्ट किया है।
- साहित्य का उद्देश्य मानव को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना है।
11. जिन रेखाओं और रंगों से कवि चित्र बनाता है, वे उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुघर रूप ही नहीं, चित्र के पार्श्व भाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है। राम के साथ वह रावण का चित्र न खींचे तो गुणवान, वीर्यवान, कृतज, दृढ़क्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रिय-दर्शन नायक का चरित्र फीका हो जाए और वास्तव में उसके गुणों के प्रकाशित होने का अवसर ही न आए।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश जनवादी सामाजिक चेतना के समर्थ समालोचक रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से उद्धृत किया गया है। इसमें लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति (ब्रह्या) से की है। कवि को उसके कार्य के प्रति सचेष्ट भी किया है।
व्याख्या : लेखक ने इस परंपरागत उक्ति के प्रति अपनी असहमति दर्शाई है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ साहित्य को समाज का दर्पण कहना तर्कसंगत नहीं है। साहित्य का कार्य समाज के सत्य को दिखाना मात्र नहीं है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो समाज को बदलने का प्रश्न ही न उठता। कवि तो प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा है जो सृष्टा का दायित्व निर्वाह करता है। उसका कार्य केवल इतना नहीं है कि वह समाज की यथार्थ झलक ही प्रस्तुत करके रह जाए, अपितु जीवन को परिवर्तित करने का भी कार्य करता है।
ईश्वर ने जिस समाज का निर्माण किया है, कवि उसके प्रति अपना असंतोष प्रकट करता है। वह तो अपने ढ़ंग से समाज बनाना चाहता है और यह उसका अधिकार भी है। यहीं आकर वह प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है। वह राम के साथ रावण का भी चित्र खींचता है ताकि राम के व्यक्तित्व का उज्ज्वल पक्ष उभर सके। नायक के प्रशंसनीय गुण तभी प्रकाश में आते हैं जब उसके सामने का चरित्र कम महत्त्व का हो। यदि ऐसा न हो तो महान व्यक्ति की महानता उभरकर सामने महीं आ पाती।
विशेष :
- लेखक कवि-कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करने में पूर्णतः समर्थ रहा है।
- भाषा की सहजता एवं तार्किकता दर्शनीय है।
- लेखक ने इस मान्यता कि साहित्य समाज का दर्पण है-का विरोध किया है।
12. लेकिन जिन्हें इस देश की धरती से प्यार है, इस धरती पर बसने वालों से स्नेह है, जो साहित्य की युगांतरकारी भूमिका समझते हैं, वे आगे बढ़ रहे हैं। उनका साहित्य जनता का रोष और असंतोष प्रकट करता है। उसे आत्मविश्वास और दृढ़ता देता है, उनकी रुचि जनता की रुचि से मेल खाती है और कवि उसे बताता है कि इस विश्व को किस दिशा में परिवर्तित करना है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश डॉ० रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इसमें लेखक साहित्यकार की भूमिका पर प्रकाश डालता है।
व्याख्या : लेखक इस मान्यता का खंडन करता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यकार तो प्रजापति की भूमिका में होता है। साहित्य की भूमिका तो युगांतकारी होती है। यह भी सत्य है कि कुछ साहित्यकार होने का दंभ अवश्य करते हैं, पर वे आगे की ओर न देखकर पराभव का पाठ पढ़ाते हैं। हाँ, जिन लोगों को इस देश की धरती के साथ लगाव है, धरती पर बसने वाले लोगों के साथ प्यार है, जो साहित्य का वास्तविक तात्पर्य समझते हैं, वे ही निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ते हैं। उनके साहित्य में जनता का क्रोध और असंतोष झलकता है। सच्चा साहित्यकार जनता की रुचि से तालमेल बनाकर आगे बढ़ता है। इससे आम लोगों का आत्मविश्वास मजबूत होता है। कवि अर्थात् साहित्यकार ही लोगों को बताता है कि इस संसार को किस दिशा में बदलना है।
विशेष : विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है।
13. प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-वुख की बात ही नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध गद्यकार रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। यह एक चिंतन प्रधान निबंध है। इसमें लेखक कवि (साहित्यकार) की भूमिका पर प्रकाश डालता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि कवि प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा के स्थान पर होता है। वह गंभीर यथार्थवादी होता है अर्थात् यथार्थ का चित्रण करता है। वह यथार्थ की दुनिया में जीता है और उसी का वर्णन साहित्य में करता है। वह पलायनवादी नहीं होता। वह वास्तविकता की दुनिया में जीता है। वह कल्पना लोक में विचरण नहीं करता। उसके पैर वास्तविकता की धरती पर टिके रहते हैं। वह वर्तमान में जीता है, पर उसकी निगाहें भविष्य की ओर लगी रहती हैं। वह अपनी दृष्टि भविष्य पर रखता है। वह दूरदृष्टा होता है। इसके साथ-साथ वह सुष्टा भी होता है। यही कारण है कि मनुष्य साहित्य में केवल अपने सुख-दुख की बात नहीं सुनता बल्कि वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। उसे सुनकर थके-हारे व्यक्ति विश्राम का अनुभव तो करते ही हैं, बल्कि आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित करता है।
विशेष :
- लेखक ने साहित्य और साहित्यकार के स्वरूप पर प्रकाश डाला है।
- सरल एवं विवेचनात्मक भाषा-शैली का अनुसरण किया गया है।
14. भरत मुनि से लेकर भारतेंदु तक चली आती हुई हमारे साहित्य की यह गौरवशाली परंपरा है। इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृत काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धांत’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंघकार।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित हैं। लेखक हिंदी साहित्य की गौरवशाली परपरा का उल्लेख करता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि हिंदी साहित्य सृजन का प्रारंभ भरत मुनि से होता है। यहीं से चली साहित्य की समृद्ध गौरवशाली परंपरा भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अभी तक चली आ रही है। यह हमारे साहित्य की महान गौरवशाली परंपरा है। यह परंपरा उच्च मूल्यों पर आधारित है। इस महान परंपरा के सामने बिना उद्देश्य वाली कला, गलत प्रकार की काम-वासनाएँ, अहंकार, व्यक्तिवाद, निराशा तथा हार के सिद्धांत टिक नहीं पाते क्योंकि ये विकृत-सिद्धांत हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाते। जिस प्रकार सूर्य के सामने अँधेरा टिक नहीं पाता वैसे ही ये बुराइयाँ हमारी गौरवशाली परंपरा के सामने टिक नहीं पातीं। हमारे साहित्य का आधार अत्यंत दृढ़ है।
विशेष :
- भारतीय साहित्य की विशेषता को उभारा गया है।
- तत्सम शब्द की बहुलता है।
- सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।