सुमिरिनी के मनके Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 13 Summary
सुमिरिनी के मनके – पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – कवि परिचय
प्रश्न :
पं. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के जीवन का परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं का परिचय दीजिए तथा रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 1883 ई. में पुरानी बस्ती, जयपुर (राजस्थान) में हुआ था। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे अतः उन्होंने बचपन में ही उनसे संस्कृत पढ़ी। बचपन में ही उन्हें तीन-चार सौ श्लोक तथा अष्टाध्यायी के दो अध्याय कंउस्थ हो गए थे। 1899 ई. में उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उनकी इस सफलता पर जयपुर राज्य की ओर से उन्हें स्वर्णपदक प्रदान किया गया। सन् 1903 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी. ए. पास किया। वे दर्शनशास्त्र में एम.ए. करना चाहते थे, पर जयपुर राज्य के आग्रह पर खेतड़ी नरेश जयसिंह का संरक्षक बनकर अजमेर के मेयो कॉलेज जाना पड़ा और वहीं संस्कृत के प्राध्यापक बन गए। सन् 1920 में वे काशी विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष बन गए, पर 39 वर्ष की अल्पावस्था में 1922 में उनका देहांत हो गया।
साहित्यिक विशेषताएँ : गुलेरी जी समालोचक, निबंधकार और कहानीकार थे। उनकी साहित्यिक यात्रा की चार प्रमुख पत्रिकाएँ हैं-समालोचक (सन् 1903-06 ई॰), मर्यादा (सन् 1911-12), प्रतिभा (1918-20) और नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22)। उन्हें ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।
रचनाएँ : गुलेरी जी की सृजनशीलता के चार मुख्य पड़ाव हैं: समालोचक (1903-06 ई.), मर्यादा (1911-12), प्रतिभा (1918-20) और नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22)। इन पत्रिकाओं में गुलेरी जी का रचनाकार व्यक्तित्व उभरकर सामने आया। उन्होंने उत्कृष्ट निबंधों के अतिरिक्त तीन कहानियाँ लिखीं-1. सुखमय जीवन, 2. बुद्ध का काँटा, 3. उसने कहा था। ‘उसने कहा था’ कहानी तो गुलेरी जी का ही पर्याय बन गई। गुलेरी जी को ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।
भाषा-शिल्प : गुलेरी जी की भाषा शैली सरल, आम बोलचाल की खड़ी बोली है। उनकी भाषा सरल और स्वाभाविक होते हुए गंभीर विषयों को प्रस्तुत करने में सक्षम है। इन्होंने आम बोलचाल के शब्दों के अलावा तत्सम, तद्भव, गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी, उर्दू-फारसी भाषाओं के शब्दों का बहुलता से प्रयोग किया है। मुहावरों के प्रयोग ने भाषा को रोचक बनाया है। अपने साहित्य को रोचक एवं सजीव बनाए रखने के लिए लेखक ने वर्णनात्मक, विवरणात्मक एवं चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया है।
पाठ का संक्षिप्त परिचय –
‘सुमिरिनी के मनके’ नाम से तीन लघु निबंध-बालक बच गया, घड़ी के पुर्जे और ढेले चुन लो पाठ्यपुस्तक में दिए गए हैं। ‘बालक बच गया’ निबंध का मूल प्रतिपाद्य है शिक्षा ग्रहण की सही उम्र। लेखक मानता है कि हमें व्यक्ति के मानस के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य है मनुष्य और मनुष्यता को बनाए रखना। मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित किया जा सकेगा। लेखक ने अपने समय की शिक्षा प्रणाली और शिक्षकों की मानसिकता को प्रकट करने के लिए अपने जीवन के अनुभव को हमारे सामने अत्यंत व्यावहारिक रूप में रखा है।
लेखक ने इस उदाहरण से यह बताने की कोशिश की है कि शिक्षा हमें बच्चे पर लादनी नहीं चाहिए बल्कि उसके मानस में शिक्षा की रुचि पैदा करने वाले बीज डाले जाएँ, ‘सहज पके सो मीठा होए।’ ‘घड़ी के पुर्जे’ में लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘बेले चुन लो’ में लोक विश्वासों में निहित अंधविश्वासी मान्यताओं पर चोट की गई है। तीनों निबंध समाज की मूल समस्याओं पर विचार करने वाले हैं। इनकी भाषा-शैली सरल, बोलचाल की होते हुए भी गंभीर ढंग से विषय प्रवर्तन करने वाली है।
Sumirini Ke Manke Class 12 Hindi Summary
(क) बालक बच गया –
इस लघु निबंध का प्रतिपाद्य यह है कि शिक्षा ग्रहण की सही उम्र बताना। लेखक का मानना है कि हमें व्यक्ति के विकास के लिए शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए, शिक्षा के लिए मनुष्य को नहीं। हमारा लक्ष्य मनुष्य और मनुष्यता को बचाए रखना होना चाहिए। यदि मनुष्य बचा रहेगा तो वह समय आने पर शिक्षित भी हो जाएगा। लेखक ने उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की है कि हमें बच्चे पर शिक्षा लादनी नहीं चाहिए बल्कि बच्चे के मन में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न की जानी चाहिए।
लेखक एक घटना का वर्णन करता है। एक स्कूल का वार्षिक उत्सव था। लेखक को भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक (Head master) के आठ वर्षीय पुत्र की नुमाइश की जा रही थी। वैसे उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं और वे नीचे की ओर झुकी रहती थीं। उस बालक के ज्ञान को जाँचने के लिए तरह-तरह के प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह उनके उत्तर दे रहा था। बालक ने धर्म के दस लक्षण बता दिए, नौ रसों के उदाहरण दे दिए।
उसने पानी के चार डिग्री के नीचे ठंडक में फैल जाने का तथा उससे मछलियों की प्राण रक्षा के कारण को भी बता दिया। चंद्रग्रहण का कारण भी बताया तथा इंग्लैंड के राजा हेनरी (आठवें) की स्त्रियों के नाम भी बता दिए। उसने पेशवाओं के राज के काल के बारे में भी बता दिया। फिर बालक से पूछा गया- “तू क्या करेगा?” बालक सिखाया गया उत्तर सुना दिया-“मैं जीवन भर लोगों की सेवा करूँगा।” सभी उपस्थित लोगों ने उसकी बुद्धि-चातुर्य की प्रशंसा की। उसके पिता (हैडमास्टर) का हृदय उल्लास से भरा था। एक बूढ़े महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और इनाम माँगने को कहा।
बालक का पिता और अध्यापक इसी उत्सुकता में थे कि बालक कौन सी पुस्तक माँगता है। बालक मन में बनावटी और असलियत की लड़ाई चलने लगी। वह अपने असली रूप पर उतर आया और बोला-मैं लड्डू लूँगा। उसकी इच्छा सुनते ही पिता और अध्यापक निराश हो गए। वे तो उससे किसी आदर्शवादी चीज माँगने की बात की आशा कर रहे थे। वे बच्चे की आंतरिक भावना को नकार रहे थे। बच्चे द्वारा लड्डू माँगा जाना उसकी जीवित पुकार की निशानी थी। हम बालक पर कृत्रिमता को देर तक लाद नहीं सकते। बच्चे को शच्चा ही बना रहने देना चाहिए।
(ख) घड़ी के पुर्जे –
इस पाठ में लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म-उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत के द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
प्राय: धर्म के बारे में यह कहा जाता है कि धर्म के रहस्य को जानने की इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। बस जो कहा जाए, उसे सुन लिया जाए। घड़ी समय बतलाती है। किसी से पूछकर समय पूछ लो और काम चला लो अथवा स्वयं घड़ी देखना सीख लो, पर घड़ी को पीछे से खोलकर उसके पुर्जों को जानने-समझने की कोशिश मत करो। यह काम तुम्हारा नहीं है। इसी प्रकार धर्म के बारे में खोज-तर्क करना धर्माचार्यों का काम है, तुम्हारा नहीं।
क्या यह तर्क व्यक्ति की जिज्ञासा को शांत कर सकता है ? यदि इस दृष्टांत को आगे बढ़ाया जाए तो उपदेशक के बारे में कई बातें निकल सकती हैं। धर्माचार्य नहीं चाहते कि आप धर्म की बारीकियों को समझें। हमें भी धर्म के बारे में जानकारी होनी चाहिए। जिस प्रकार घड़ी को देखना, उसके पुर्जों की जानकारी होना, उनको ठीक करने की विधि का आना जरूरी है उसी प्रकार धर्म के बारे में भी जानना-परखना आवश्यक है।
(ग) ढेले चुन लो –
शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक ‘मच्चेंट ऑफ वेनिस’ (Merchant of Venice) की नायिका पोर्शिया अपने वर को बड़ी सुंदर रीति से चुनती । हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ होती हैं- एक सोने की. दूसरी चाँदी की और तीसरी पेटी लोहे की। एक पेटी में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक पेटी को चुन लो। अकड़बाज सोने की पेटी चुनता है और उसे लौटना पड़ता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अँगूठा दिखाती है। हाँ, सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी चुनता
है उसे पहला इनाम मिलता है। ठीक ऐसी ही लाटरी वैदिक काल में हिंदुओं में चलती थी। इसमें नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता। इसके बाद वह कन्या के सामने कुछ मिट्टी के ढेले रखता और कहता इनमें से एक उठा ले। नर जानता था कि वह इन ढेलों को कहाँ से लाया है। कन्या जानती न थी। यह तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। चौराहे की मिट्टी, श्मशान की धूल आदि चीजें होती थीं। यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान “वैदिक पंडित” होगी। गोबर चुना तो “पशुओं का धनी” होगा। खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार का पुत्र होगा। मसान की मिट्टी को हाथ लगाना अशुभ माना जाता था। यदि वह नारी ब्याही गई तो घर श्मशान के समान हो जाएगा।
जैसे राजपूत की लड़कियाँ पिछले समय में रूप देखकर, यश सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे ही वैदिक काल के हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी का वरण करते थे। आप कह सकते हैं कि जन्म भर के साथी को चुनने के लिए मिट्टी के ढेलों पर विश्वास करना कहाँ तक उचित है ? हम मंगल, बृहस्पति, शनीचर की कल्पित चाल का भी कल्पित हिसाब लगाते हैं। वात्स्यायन के अनुसार आज का कबूतर कल के मोर से अच्छा है। आजा का पैसा कल की मोहर से अच्छा है। तब आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए; लाखों कोस के तेजपिंड से। कबीर ने भी कहा है-
“पत्थर पूजै हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥”
शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
(क) बालक बच गया –
वार्षिकोत्सव = सालाना जलसा (Annual function), नुमाइश = प्रदर्शनी, दिखावा (Exibition), कोल्टू = तेल निकालने की मशीन जिसमें बैल बाँधकर तेल निकाला जाता है (A machine), विलक्षण = अनोखा (Strange), यावज्जन्म = जीवन भर (While Life) उल्लास = खुशी, हर्ष (Happiness), कुसीनामा = राज की अवधि (Period of rule), स्वाभाविक = कुदरती (Natural)।
(ख) घड़ी के पुर्जे –
कान ढलकाकर = कान खोलकर (Open ears), दृष्टांत = उदाहरण (Example), टंटा = झंझट, संकट (Problem), घड़ीसाजी = घड़ी बनाने की कला, घड़ी मरम्मत करने का गुर (One who repairs watch)।
(ग) ढेले चुन लो –
मर्चेट ऑफ वेनिस = शेक्सपीयर का प्रसिद्ध नाटक (Merchant of Venice), पोर्शिया = शेक्सपीयर के नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ की नायिका (Heroine of drama), प्रतिभूति = उसके ही जैसा ( Equal), अकड़बाज = अकड़ने वाला, अपने फैसले को ही सही मानने वाला, अपने आगे किसी की न मानने वाला (Arogent), जस = यश, कीर्ति (Fame), मिह्टी के डगलों = मिट्टी के ढेले (Clay)।
सुमिरिनी के मनके सप्रसंग व्याख्या
1. एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफेद थीं, वृष्टि भूमि से उठती नहीं था। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर वे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों का उदाहरण दे गया।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ के पाठ ‘बालक बच गया’ से अवतरित है। यहाँ पर लेखक ने बालक पर समय से पूर्व शिक्षा का अनावश्यक बोझ लादने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि उसे एक बार एक पाठशाला के वार्षिकोत्सव में जाने का अवसर मिला। वहाँ मंच पर एक बच्चे की बुद्धि का प्रदर्शन किया जा रहा था। वह बालक प्रधानाध्यापक का था। उसकी आयु आठ वर्ष की थी। विद्यालय के प्रधानाचार्य एवं अन्य शिक्षक बड़ी शान से उस पर लादी गई विद्वता का प्रदर्शन कर रहे थे। उस बालक को उम्र से अधिक स्तर के प्रश्नों के उत्तर
रटवाए गए थे और वह उनका रटा-रटाया उत्तर दे रहा था। उस बालक को कोल्टू के बैल की तरह जोता जा रहा था। वह वही बता रहा था जो उसे रटाया गया था। उसका सहज स्वाभाविक रूप नहीं था। उसका मुँह पीला पड़ा हुआ था। आँखें सफेद थीं, वह सामने देखने की अपेक्षा निरंतर जमीन की ओर देख रहा था। उससे जो प्रश्न पूछे जा रहे थे वह उनका उत्तर दे रहा था। (ये प्रश्नोत्तर वही थे जो उसे रटाए गए थे।) बालक से धर्म के दस लक्षण सुने गए। बालक ने नौ रसों का उदाहरण भी दे दिए। भले ही उसे धर्म और रस के बारे में यह भी न पता हो कि ये क्या होते हैं ? बच्चे का बचपन छीना जा रहा था।
विशेष :
- लेखक ने प्रदर्शनप्रिय लोगों पर व्यंग्य किया है।
- शिक्षा में रटंत को बुरा बताया गया है।
- वाक्य-विन्यास बेजोड़ है।
- खड़ी बोली का प्रयोग है।
2. मैं यावग्जन्म लोक-सेवा करूँगा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीव्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हुवय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी।
कुछ खाँसकर, गला साफ कर नकली पड़ेे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड़ूू पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठ्त नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्ड़ू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा रचित लघु निबंध ‘बालक बच गया’ से अवतरित है। इसे उनके निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित किया गया है। इसमें लेखक शिक्षा पाने की सही उम्र के बारे में विचार करता है। समयपूर्व बालक पर शिक्षा का बोझ नहीं लादना चाहिए, बल्कि उसकी स्वाभाविकता को बनाए रखना चाहिए। एक स्कूल के वार्षिकोत्सव में प्रधान अध्यपक के बालक को कुछ प्रश्नों के उत्तर रटाकर उसके बुद्धिमान होने का भौंडा प्रदर्शन लेखक को भीतर तक कचोट जाता है।
व्याख्या : जब बालक से पूछ् जाता है-तू क्या करेगा ? तब वह रटा-रटाया उत्तर दोहरा देता है कि मैं यावज्जन्म अर्थात् जीवन भर लोगों की सेवा करूँगा। शायद वह अपने उत्तर का सही मतलब तक नहीं जानता। उसका यह अपेक्षित उत्तर सुनकर सारी सभा वाह-वाह कर उठती है और उसके पिता के हृदय में खुशी छा जाती है। यह उत्तर आदर्शवादी था अतः सभी प्रसन्न हो उठे। एक बूढ़े व्यक्ति ने उस बालक के सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और इनाम माँगने को कहा। अध्यापक चाहते थे कि वह कोई पुस्तक – माँगे क्योंकि वे तो उसे पढ़ाकू सिद्ध कर रहे थे। बालक इनाम की बात सुनकर दुविधाग्रस्त स्थिति में आ गया। उसका चेहरा उसके हृदय में चल रहे मंथन को झलका रहा था। उसके ठृदय में बनावटीपन और स्वाभाविकता के भावों की लड़ाई चल रही थी।
आदर्शवादी कुछ चाहते थे और बालक का यथार्थ कुछ और ही चाहता था। बालक बनावटी रूप को छोड़कर अपनी स्वाभाविकता को प्रकट करने को उद्यत हो उठा। उसने अपनी मन:स्थिति पर काबू पाते हुए, गले को साफ किया और हैरान सा होकर कहा-मुझे लड्रू चाहिए। अध्यापकों को ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी अत: वे निराश हो गए, लेकिन लेखक बालक के निर्णय से खुश था। वह अब से पूर्व हुए ड्रामे से घुटन का अनुभव का जो अनुभव कर रहा था, अब उससे मुक्ति की साँस ले सका।
अध्यापकों ने बालक की सहज प्रवृत्तियों को दबाने का हर संभव प्रयास किया था, पर अंतत: बालक का बालकपन बच ही गया। यह आशा इसलिए भी बलवती है क्योंकि उसके लड्डू की पुकार में उसकी जीवंतता का अहसास होता है। यह निरे पुस्तकीय ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। इसमें उसकी स्वाभाविकता की झलक मिलती है। अब वह थोपे गए ज्ञान के बोझ से मुक्त हो चुका है। वह अपनी इच्छा का प्रकटीकरण कर सका है।
विशेष :
- लेखक ने एक दृष्टांत के माध्यम से बालक की सहज प्रवृत्ति की मार्मिक अभिव्यक्ति की है।
- लेखक की भाषा-शैली सहज एवं सुबोध है।
- भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।
3. पुर्जे खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
प्रसंग : प्रस्तुत गध्यांश पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसमें लेखक धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा रोचक ढंग से प्रस्तुत करता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि घड़ी के पुर्जों को खोलकर फिर से सही जगह पर लगा देना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस काम को लोग सीखते भी हैं अतः उनसे सीखा जा सकता है। अपनी घड़ी को अनाड़ी व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहिए। हाँ. जिसे इसका ज्ञान हो गया है उसके हाथ में ही अपनी घड़ी देनी चाहिए। यही बात धर्म पर भी लागू होती है। लेखक बताता है कि जैसे घड़ी के कल-पुर्जे खोलकर उन्हें फिर से व्यवस्थित करके जोड़ने वाले व्यक्ति को कोई धोखा नहीं दे सकता, उसी प्रकार धर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसे धार्मिक दृष्टि से उल्लू नहीं बनाया जा सकता।
विशेष :
- लेखक ने दृष्टांत देकर अपने कथ्य को भली प्रकार समझाया है।
- भाषा सरल एवं सुबोध है।
4. धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वही कान ढलकाकर सुन ले, इस सत्ययुगी मत के समर्थन में घड़ी का दृष्टांत बहुत तालियाँ पिटवा कर दिया जाता है। घड़ी समय बतलाती है। किसी घड़ी देखना जानने वाले से समय पूछ लो और काम चला लो। यदि अधिक करो तो घड़ी देखना स्वयं सीख लो, कितु तुम चाहते हो कि पीछा खोलकर देखें, पुर्जे गिन लें, उन्हें खोलकर फिर जमा दें, साफ करके फिर लगा लें-यह तुमसे नहीं होगा। तुम उसके अधिकारी नहीं। यह तो वेदशास्त्रज धर्माचारियों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ?
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसे लेखक के निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित किया गया है। इसमें लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेश़कों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या : धर्माचायों का कथन होता है कि प्रत्येक मनुष्य को धर्म के रहस्य को जानने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। यह रहस्य अत्यंत गूढ़ है अतः इसे उन्हीं तक (धर्माचार्यों तक) ही सीमित रहना ठीक है। (क्योंकि वे स्वयं को धर्म का ठेकेदार मानते हैं।) सामान्य लोगों के लिए तो इतना ही काफी है कि उन्हें धर्म के बारे में जितना बताया जाए उसी को कान में ढालकर सुन लें, ज्यादा की इच्छा न करें, अर्थात् धर्माचार्य जितना बताना चाहें, वही उनके लिए पर्याप्त है। लोग उनकी बातों पर तालियाँ पीट दें, यह काफी है। लेखक यहाँ घड़ी का दृष्टांत (उदाहरण) देता है। घड़ी समय बताती है, धर्माचार्य भी धर्म के बारे में बताते हैं। यदि आपको घड़ी देखना न आता हो तो किसी अन्य घड़ी देखना जानने वाले से समय पूछ सकते हो और अपना काम चला सकते हो। उसी प्रकार यदि धर्म के बारे में स्वयं न जानते हो तो किसी अन्य से जानकारी ले सकते हो।
अच्छा तो यही है कि तुम स्वयं घड़ी देखना सीख लो, पर यदि तुम यह चाहो घड़ी को खोलकर उसके पुर्जों के बारे में जान लें और फिर से घड़ी के पुर्जों को उसमें फिट कर दें, तो यह काम सभी के वश का नहीं है क्योंकि तुम इसके योग्य नहीं हो। यह काम घड़ीसाज ही कर सकता है। यही उदाहरण वेद-शास्त्र के ज्ञाता धर्माचार्य अपने पक्ष को सही सिद्ध करने के लिए देते हैं। उनका कहना है कि वेद-शास्त्रों अर्थात् धर्म की बारीकियों को समझने के लिए आम व्यक्ति सही पात्र नहीं है। इसे तो वे स्वयं ही जान समझ सकते हैं क्योंकि वे एक घड़ीसाज के समान हैं। वे धर्म के तत्त्वों का सही विश्लेषण करने में सक्षम हैं। यह काम आम आदमी के वश का नहीं है। आम आदमी को तो धर्म की जानकारी धर्माचायों से ही लेनी चाहिए। उन्हें जिस प्रकार घड़ी के पुर्जों से मतलब नहीं उसी प्रकार धर्म के रहस्यों से भी मतलब नहीं होना चाहिए।
विशेष :
- लेखक ने घड़ी का दृष्टांत देकर धर्माचायों पर करारा व्यंग्य किया है।
- लेखक ने रोचक एवं सुबोध शैली का अनुसरण किया है।
5. पुर्जें खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है। लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
उत्तर :
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसे लेखक के निबंध ‘सुमिरिनी के मनके’ शीर्ष के अंतर्गत संकलित किया गया है। इसमें लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या : इस गद्यांश में लेखक धोखेबाज धर्माचायों पर व्यंग्य करता है। वह घड़ी का दृष्टांत देकर अपनी बात स्पष्ट करता है। घड़ी के पुर्जों को ठीक करना कोई कठिन काम नहीं है। इस काम को अनेक लोग सीखते हैं और दूसरों को सिखाते भी हैं। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। पर इस बात का सदा ध्यान रखो कि तुम्हारी घड़ी किसी अनाड़ी के हाथ में न चली जाए, वह घड़ी को बिगाड़ देगा। घड़ीसाज ही घड़ी को ठीक कर सकता है। घड़ीसाज घड़ी के बारे में परीक्षा पास करके आया है, वह घड़ी ठीक करने में सक्षम है। उसे घड़ी को देखने दो। यही दशा धर्माचार्यों की है। आधे-अधूरे ज्ञान वाले लोग धर्म को हानि ही पहुँचाते हैं। योग्य, ज्ञानी व्यक्ति ही धर्म का स्वरूप जानते हैं।
विशेष : सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।
6. हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते इत्यादि।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं० चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ द्वारा रचित लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने धर्म के रहस्यों को जानने पर धर्म-उपदेशकों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से रोचक ढंग से समझाया है।
व्याख्या : लेखक परदादा के समय की घड़ी को जेब में डाले फिरने की बात कहकर कटाक्ष करता है कि हम भले ही कितने सभ्य हो गए हों, फिर भी हम अपनी रूढ़ियों को आज भी ढोए चले जा रहे हैं। हम अपने दादा-परदादा के समय से चले आ रहे पुराने रीति-रिवाज्ोों को आज भी ढोए चले आ रहे हैं। समय के परिवर्तन के साथ-साथ हमारी मान्यताओं में अपेक्षित बदलाव नहीं आ रहा है। कुछ लोग तो प्राचीन मान्यताओं से टस से मस नहीं होना चाहते और यदि दूसरे लोग उन्हें विचार बदलने को कहते हैं तो यह बात उन्हें हस्तक्षेप प्रतीत होती है। हम आज भी रूढ़िवादिता के कारण प्राचीन परंपराओं को ढोए चले जा रहे हैं।
लेखक का कहना है कि अब जिन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है, उन्हें छोड़ने में ही भलाई है। जो परंपराएँ अनुपयोगी हो गई हैं, उन्हें त्यागने में ही भलाई है। हमें परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढाल लेना चाहिए।
विशेष :
- उदाहरण शैली अपनाई गई है।
- भाषा में व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग है।
7. दृष्टांत को बढ़ाया जाए तो जो उपदेशक जी कह रहे हैं उसके विरुद्ध कई बातें निकल आवें। घड़ी देखना तो सिखा दो, उसमें तो जन्म और कर्म की पंख न लगाओ, फिर दूसरे से पूछने का टंटा क्यों ? गिनती हम जानते हैं, अंक पहचानते हैं, सुइयों की चाल भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं, तो हमें ही न देखने दो, पड़ोस की घड़ियों में दोपहर के बारह बजे हैं। आपकी घड़ी में आधी रात है, जरा खोलकर देख न लेने दीजिए कि कौन-सा पेच बिगड़ रहा है, यदि पुर्जे ठीक हैं, और आधी रात ही है तो हम फिर सो जाएँगे, दूसरी घड़ियों को गलत न मान लेंगे, पर जरा देख तो लेने दीजिए। पुर्जे खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है उसे तो देखने दो। साथ ही यह भी समझा दो कि आपको स्वयं घड़ी देखना, साफ करना और सुधारना आता है कि नहीं।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी के लघु निबंध ‘घड़ी के पुर्जे’ से अवतरित है। लेखक घड़ी का उदाहरण देकर धर्म के ठेकेदारों की पोल खोलता है। ये धर्म के उपदेशक धर्म के रहस्य को आम लोगों को जानने का अधिकार नहीं देते।
व्याख्या : लेखक का कहना है कि घड़ी का उदाहरण उपदेशक जी के कथन में कई विरोधी बातें ढूँढी जा सकती हैं। वे चाहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्य को घड़ी देखना तो आ जाए, पर वह उसके पुर्जों की खोज-बीन न करे अर्थात् मनुष्य धर्म का ऊपरी-ऊपरी स्वरूप तो जान जाए पर वह जन्म और कर्म के रहस्यों को जानने के चक्कर में न पड़े। लेखक का कहना है कि हम पढ़े-लिखे समझदार हैं। हम अंकों की पहचान रखते हैं, घड़ी सुइयों की चाल को भी पहचानते हैं, आँखें भी हमारे पास हैं तो हम स्वयं ही घड़ी देख सकते हैं।
भाव यहं है कि भगवान ने हमें बुद्धि दी है तो हम भी धर्म के रहस्य को जान-समझ सकते हैं। यदि घड़ी में कुछ खराबी आ जाए तो हमें उसके पुर्जे खोलकर देखने का अधिकार है। यह काम कोई इतना कठिन भी नहीं है। लोग घड़ी खोलना और मरम्मत करना सीखते सिखाते हैं। यह ठीक है कि घड़ी अनाड़ी के हाथों में नहीं जानी चाहिए, पर जो घड़ीसाज का इम्तहान पास करके आया है, वह तो यह काम कर ही सकता है। यही स्थिति धर्म की है। जो व्यक्ति पढ़ा-लिखा, समझदार है वह धर्म के रहस्य को जानने का अधिकारी है। उसे धर्म के बारे में पूरी तरह से जानने दीजिए। आपको यह प्रकट करना चाहिए कि आपको धर्म के कारण रहस्य की जानकारी है।
विशेष :
- लेखक घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से धर्म के रहस्य को जानने की बात स्पष्ट करने में सफल रहा है।
- सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।
8. जैसे राजपूतों की लड़कियाँ पिछले समय में रूप देखकर, जस सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे ही वैदिक काल के हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी करण करते थे। आप कह सकते हैं कि जन्म भर के साथी की चुनावट मिट्टी के ढेलों पर छोड़ना कैसी बुद्धिमानी है! अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मिट्टी और आग के ढेलों-मंगल और शनैश्चर और बृहस्पति-की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ ? बकौल वात्स्यायन के, आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल के मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की तेज पिंड से! बकौल कबीर के-
पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार। इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश पं. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जी द्वारा रचित लघु निबंध ‘बेले चुन लो’ से अवतरित है। इसमें लेखक लोक विश्वासों में निहित अंधविश्वासों और मान्यताओं पर चोट करता है।
व्याख्या : लेखक बताता है कि पुराने जमाने में राजपूतों की लड़कियाँ स्वयं अपनी इच्छा से अपने लिए वर का चुनाव करती थी। इसी प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर अपनी पत्नी का चुनाव करते थे। यह कहा जा सकता है कि जीवन भर के लिए साथी का चुनाव करना मिट्टी के ढेलों पर छोड़ देना निरी बेवकूफी है। इसे बुद्धिमानी का काम नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जहाँ से ये मिट्टी के ढेले चुने गए हैं वह जगह तो हमने देखी है, कोई अनजान नहीं है, उन पर भरोसा किया जा सकता है।
इसकी तुलना में हम अपने से लाखों-करोड़ों कोस दूर मंगल, शनीचर और बृहस्पति की कल्पित चाल पर भरोसा क्यों कर लेते हैं। लेखक इस तर्क पर चुप रह जाता है। वात्स्यायन ने भी यह कहा है कि आज जो कुछ मिले, उसे हथिया लो, कल के ऊपर भरोसा मत करो। आज का कम भी कल से ज्यादा बेहतर है। कल अनिश्चित है। हमें वर्तमान में जीना चाहिए। इस तर्क से तो ढेला उपयोगी प्रतीत होता है। कबीर ने भी कहा कि पत्थर पूजने से भगवान की प्राप्ति हो जाए तो मैं पहाड़ को पूजने को तैयार हूँ। पत्थर की उपयोगिता तो चक्की के पाट बनने में है जिससे सारा संसार अनाज पीस कर खाता है।
लेखक अंधविश्वास का कट्टर विरोधी है। वह ढेले चुनने की प्रथा का हिमायती नहीं है।
विशेष :
- लेखक ने ढेले का दृष्टांत देकर अपने कथ्य को स्पष्ट किया है।
- सरल एवं सुबोध भाषा-शैली अपनाई गई है।