प्रेमघन की छाया-स्मृति Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 12 Summary
प्रेमघन की छाया-स्मृति – रामचंद्र शुक्ल – कवि परिचय
प्रश्न :
रामचंद्र शुक्ल के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम एवं भाषा शैली की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
आधुनिक हिन्दी आलोचना के प्रवर्तक पं. रामचंद्र शुक्ल का जन्म बस्ती जिले के ‘अगोना’ ग्राम में सन् 1884 ई. में हुआ था। शुक्ल जी की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई। सन् 1901 ई. में उन्होंने मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से फाइनल (हाई स्कूल) की परीक्षा उत्तीर्ण की और कुछ समय बाद वे उसी स्कूल में ड्राइंग के मास्टर हो गए।
मिर्जापुर में हिंदी प्रेमियों की एक अच्छी-खासी मित्रमंडली शुक्ल जी को मिल गई थी। उन्होंने हिन्दी में लिखना आरंभ किया और सन् 1910 तक हिंदी लेखकों में उनकी गणना होने लगी। ‘हिन्दी शब्व-सागर’ के सहायक संपादक के रूप में कार्य करने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी में उनकी नियुक्ति हुई। कोश-संपादन समाप्त भी न हो पाया था कि वे हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी-प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हो गए। बाबू श्यामसुन्दर दास के अवकाश ग्रहण करने पर वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष हुए। इसी पद पर कार्य करते हुए सन् 1941 में शुक्ल जी की मृत्यु हो गई।
रचनाएँ : शुक्ल जी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं- ‘तुलसीदास’, ‘जायसी ग्रंधावली की भूमिका’, ‘सूरदास ‘, ‘चिन्तामणि’ (तीन भाग), ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ और ‘रस मीमांसा’।
साहित्यिक विशेषताएँ : आचार्य शुक्ल हिंदी के उच्चकोटि के आलोचक, इतिहासकार और साहित्य-चिंतक हैं। विज्ञान, दर्शन, इतिहास, भाषा, विज्ञान, साहित्य और समाज के विभिन्न पक्षों से संबंधित लेखों, पुस्तकों के मौलिक लेखन, संपादन और अनुवादों के बीच से उनका जो व्यापक ज्ञान-संपन्न व्यक्तित्व उभरता है, वह बेजोड़ है। उन्होंने भारतीय साहित्य की नई अवधारणा प्रस्तुत की और हिंदी आलोचना का नया स्वरूप विकसित किया। हिंदी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित करते हुए उन्होंने हिंदी कवियों की सम्यक् समीक्षा की तथा इतिहास में उनका स्थान निर्धारित किया। आलोचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने भाव और मनोटि र संबंधी उच्चकोटि के निबंधों की भी रचना की।
उन्होंने भारतीय एवं पाश्चात्य आलोचना के सिद्धान्तों का समन्वय करके हिंदी आलोचना को नवीन रूप प्रदान किया। उन्होंने हिंदी साहित्य का प्रथम प्रामाणिक इतिहास लिखा तथा निबंध रचना के नए मानदंड स्थापित किए। उनके ‘चिंतामणि’ निबंध-संग्रह पर हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने ‘ मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ पुरस्कार प्रदान किया। सूर, तुलसी और जायसी पर उन्होंने विस्तृत आलोचनाएँ लिखी हैं।
भाषा-शैली : शुक्ल जी की भाषा अत्यन्त प्रौढ़, सजीव, प्रांजल एवं भावानुकूल है। उनकी भाषा इतनी सुगठित, निर्दोष तथा अर्थ-व्यंजक है कि विश्व की किसी भी सर्वोत्तम विकसित भाषा की तुलना में रखी जा सकती है।
शुक्ल जी की गद्य शैली विवेचनात्मक है। इसमें विचारशीलता एवं सूक्ष्म तर्क योजना का समावेश है। उनका शब्द-चयन एवं शब्द-संयोजन व्यापक है। सूत्रात्मक वाक्य रचना उनकी शैली की विशेषता है।
वे संस्कृत की तत्सम शब्दावली के साथ-साथ अंग्रेजी, अरबी, फारसी आदि के शब्दों तथा लोक-प्रचलित मुहावरों के प्रयोग द्वारा अपनी भाषा में विशेष प्रवाह और प्रभाव का संचार करने में सफल हुए हैं। विषय के गंभीर प्रतिपादन के साथ ही उनके निबंधों में कहीं-कहीं हास्य एवं व्यंग्य का पुट भी मिलता है। वास्तव में शुक्ल जी की शैली में उनका समग्र व्यक्तित्व प्रतिबिंबित हुआ है।
पाठ का संक्षिप्त परिचय –
संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया स्मृति’ में शुक्ल जी ने हिंदी-भाषा एवं साहित्य के प्रति अपने प्रारंभिक रुझानों का बड़ा रोचक वर्णन किया है। उनका बचपन साहित्यिक परिवेश से भरा पूरा था। बाल्यावस्था में ही किस प्रकार भारेंदु एवं उनके मंडल के अन्य रचनाकारों विशेषत: प्रेमघन के सान्निध्य में शुक्ल जी का साहित्यकार आकार ग्रहण करता है, उसकी अत्यंत मनोहारी झाँकी यहाँ प्रस्तुत हुई है। प्रेमघन के व्यक्तित्व ने शुक्ल जी की समवयस्क मंडली को किस तरह प्रभावित किया, हिंदी के प्रति किस प्रकार आकर्षित किया तथा रचनाकार के व्यक्तित्व निर्माण आदि संबंधी पहलुओं का बड़ा चित्ताकर्षक चित्रण इस निबंध में उकेरा गया है।
Premghan Ki Chhaya Smriti Class 12 Hindi Summary
यह पाठ संस्मरणात्मक शैली में रचित है। इस निबंध में शुक्ल जी ने हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति अपने प्रारंभिक रूझानों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। लेखक का बचपन साहित्यिक परिवेश से भरा पूरा था। इस निबंध में बताया गया है कि शुक्ल जी बाल्यावस्था से ही भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों के संपक में आ गए थे। विशेषकर प्रेमघन के सान्निध्य में उनका साहित्याकार निरंतर विकसित होता चला गया। इस निबंध में इस बात का भी वर्णन है कि प्रेमघन के व्यक्तित्व ने किस प्रकार शुक्ल जी की समवयस्क मंडली को प्रभावित किया।
शुक्ल जी के पिताजी फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। वे पुरानी हिंदी-कविता के प्रेमी थे। उन्हें फारसी कवियों की उक्तियों को हिंदी-कवियों की उंक्तियों के साथ मिलाने में बड़ा मजा आता था। वे रात के समय घर के सब लोगों को एकत्रित करके ‘रामचरितमानस’ अथवा ‘रामचंद्रिका’ को पढ़कर सुनाया करते थे। उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक प्रिय लगते थे। तब शुक्लजी की आयु आठ वर्ष थी। तब तक यह बालक (लेखक) राजा हरिश्चंद्र और कवि हरिश्चंद्र में कोई भेद नहीं कर पाता था। मिर्जापुर आने पर उन्हें पता चला कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के एक मित्र यहाँ रहते हैं, उनका नाम था-उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी। वे हिंदी के प्रसिद्ध कवि थे। एक दिन बालकों की मंडली एकत्रित होकर चौधरी साहब के मकान की ओर चल दी। वे एक बड़े मकान के नीचे जा खड़े हुए। बरामदा तो खाली था पर लताओं के बीच एक मूत्ति खड़ी दिखाई दी। उनके कंषों पर बाल बिखरे हुए थे, एक हाथ खंभे पर था। देखते-देखते यह मूर्ति ओझल हो गई। बस यही चौधरी जी की पहली झाँकी थी।
ज्यों-ज्यों लेखक सयाना होता चला गया त्यों-ल्यों उसका झुकाव नए हिंदी साहित्य की ओर बढ़ता चला गया। उन दिनों वह क्वींस कॉलेज में पढ़ता था। लेखक पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ने लगा। यह पुस्तकालय पं. केदारनाथ पाठक ने खोला था। एक बार लेखक की उनसे भेंट काशी में हो गई। उस समय वे भारतेंदु जी के मकान से ही निकलकर आए थे। 76 वर्ष की आयु तक लेखक को समवयस्क हिंदी-प्र्रिमियों की खासी मंडली मिल गई। इनमें प्रमुख थे: काशीप्रसाद जायसवाल, भगवानदास हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी आदि। तब तक शुक्ल जी स्वयं को लेखक मानने लगे थे। उन्हीं दिनों लेखक के मुहल्ले में एक मुसलमान सब-जज आ गए। उन्होंने शुक्ल जी की सूरत देखते ही जान लिया कि यह हिंदी-प्रेमी हैं।
चौधरी साहब (प्रेमघन) से लेखक का अच्छा परिचय हो गया था। चौधरी साहब एक अच्छे खासे रईस थे। उनकी हर अदा से उनका बड़प्पन झलकता था। कंधों तक उनके बाल लटकते थे। उनकी बातों में विलक्षण वक्रता होती थी। वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे। उन दिनों एक प्रतिभाशाली कवि थे-वामनाचार्य गिरि। वे चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ रहे थे कि अंति छंद नहीं बन पा रहा था। उन्हें चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों में बाल छिटकाए दिखाई पड़े और कविता पूरी कर दी – ‘खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।’ लेखक के सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, भगवान दास हालना तथा भगवानदास मास्टर ने उद्दूं-बेगम नाम की विनोदूूर्ण पुस्तक लिखी थी, इसमें ‘उर्दू की उत्पत्ति’, प्रचार आदि का वृत्तांत कहानी के रूप में दिया गया था। उपाध्याय जी नागरी को भाषा मानते थे। उनका कहना था कि “नागर अपभ्रंश से, जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई, वही नागरी कहलाई।” वे मिर्जापुर न लिखकर मीरजापुर लिखा करते थे। वे इसका यह अर्थ करते थे – मीर = समुद्र + जा = पुत्री + पुर।
शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
स्मृति = याद (Memory), उत्कंठा = लालसा, बेचैनी (Curiosity), आवृत = ढका हुआ, घेरा हुआ (Covered), लता-प्रतान = लता का फैलाव, लतातंतु (Bunch of creeping plants), परिणत = अन्य रूप में बदला हुआ, परिणाम या रूपांतर को प्राप्त (Changed), मुख्तार – अधिकार प्राप्त व्यक्ति, व्यक्ति-विशेष के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने का अधिकारी, एजेंट (Agent), अमला – कर्मचारी मंडल (A group of employees), वाकिफ = जानकार, परिचित (Known), वक्रता = टेढ़ापन, कुटिलता (Curved), परिपाटी = सिलसिला, रीति (Tradition), अपश्रंश = प्राकृत भाषाओं का परवर्ती रूप जिनसे उत्तर भारत की आधुनिक आर्य-भाषाओं की उत्पत्ति मानी जाती है (Oldform of language), चित्ताकर्षक = मन को आकर्षित करने वाला (Attractive), ओझल = गायब (Disappear), कुतूहल = जिज्ञासा (Curiosity), अव्भुत = अनोखा (Strange), प्रतिभाशाली = बुद्धिमान (Intelligent), विनोदपूर्ण – आनंद से भरी (Full of enjoyment), नूतन = नया।
प्रेमघन की छाया-स्मृति सप्रसंग व्याख्या
1. भारतेंदु-मंडल की किसी सजीव स्मृति के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा रही होगी, यह अनुमान करने की बात है। मैं नगर से बाहर रहता था। एक दिन बालकों की मंडली जोड़ी गई। जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील डेढ़ का सफर तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बरामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। बीच-बीच में खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते ही देखते यह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी थी।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक एवं समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरण प्रेमघन की छाया स्मृति’ से उद्धृत है। इस संस्मरणात्मक निबंध में लेखक ने अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक भाग पर प्रकाश डाला है। किशोरावस्था में वे बदरी नारायण चौधरी के संपर्क में आए। इस निबंध में उनके प्रति आदर एबं सम्मान का भाव प्रकट किया गया है।
व्याख्या : लेखक बदरीनारायण चौधरी से मिलने के लिए बहुत उत्कंठित था। वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के मित्र थे। लेखक चौधरी साहब से मिलकर भारतेंदु जी तक पहुँचना चाहता था। भारतेंदु जी ने लेखकों की एक मित्र-मंडली बना रखी थी। लेखक इस मंडली की किसी सजीव मूर्ति से मिलना चाहता था। लेखक उन दिनों नगर से बाहर रहता था। बदरीनारायण चौधरी के दर्शन करने की एक योजना बनाई गई। एक दिन बालकों को एकत्रित किया गया। जो बालक चौधरी साहब के घर से परिचित थे उन्हें आगे किया गया। सभी ने मिलकर चौधरी साहब के घर तक एक-डेढ़ मील तक का सफर पूरा किया।
सभी लड़के पत्थर से बने एक मकान के सामने जा खड़े हुए। मकान के नीचे का बरामदा बिल्कुल खाली था। ऊपर वाला बरामदा घनी बेलों के जाल से ढका हुआ था। बीच-बीच में केवल खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ रही थी। लेखक को उसी ओर देखने को कहा गया पर उसे कोई दिखाई न पड़ा। फिर वह सड़क पर चक्कर लगाने लगा। तभी लड़कों ने ऊपर की ओर इशारा किया। तब लेखक को बरामदे में एक व्यक्ति दिखाई पड़ा। वह मूर्तिवत् खड़ा था। चौधरी साहब बेलों के झुंड के मध्य खड़े थे। उनका एक हाथ खंभे पर था। उनके दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। लेखक ने उनकी एक झलक भर देखी ही थी कि वह मूर्ति अचानक गायब हो गई अर्थात् चौधरी साहब दिखाई नहीं देने लगे। या तो वे चले गए अथवा लताओं की ओट में दिखाई नहीं पड़े। यही उनकी पहली झाँकी थी।
विशेष :
- प्रस्तुत गद्यांश से लेखक का साहित्यकारों के प्रति उत्कंठित होने का पता चलता है।
- वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
- चित्रात्मकता देखते ही बनती है।
- तत्सम शब्दों का भरपूर प्रयोग है, यथा-स्मृति, उत्कंठा, लता-प्रतान, दृष्टि आदि।
- ‘दृष्टि से ओझल हो जाना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
2. एक बार एक आदमी के साथ करके मेरे पिताजी ने मुझे एक बारात में काशी भेजा। मैं उसी के साथ घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से पं. केवारनाथ जी पाठक निकलते विखाई पड़े। पुस्तकालय में वे मुझे प्रायः देखा करते थे। इससे मुझे देखते ही वे वहीं खड़े हो गए। बात ही बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे, वह भारतेंदु जी का घर था। मैं बड़ी चाह और कुतूहल की वृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर, न जाने किन-किन भावनाओं में लीन होकर देखता रहा। पाठक जी मेरी यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत ढूर मेरे साथ बातचीत करते हुए गए।
भारतेंदु जी के मकान के नीच्चे का यह हूवय-परिचय बहुत शीप्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया। 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिंदी-प्रेमियों की एक खासी मंडली मुझे मिल गई, जिनमें श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, बा, भगवानदास जी हालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिंदी के नए-पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक एवं समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरण प्रेमघन की छाया स्मृति’ से अवतरित है। इसमें लेखक बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ को स्परण करता है। यहाँ लेखक एक पुस्तकालय के संचालक पं. केदारनाथ पाठक के साथ हुई मित्रता का उल्ल्लेख कर रहा है।
व्याख्या : लेखक किशोरावस्था में एक बार किसी व्यक्ति के साथ एक बारात में काशी गया। वह काशी में घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं उसने देखा कि पं. केदारनाथ पाठक एक घर से बाहर निकल रहे थे। लेखक उनके पुस्तकालय में जाया करता था अत: वे उसे पहचानते थे। लेखक को देखकर वे वहीं रुक गए। दोनों में बातचीत होने लगी। बातों-बातों में पता चला कि जिस मकान से अभी पाठक जी निकले थे वह भारतेंदु हरिश्चंद्र का ही है। लेखक की भारतेंदु जी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी।
अतः वे बड़ी चाह एवं जिज्ञासा से उस मकान की ओर देखने लगे। उस समय वे भावनाओं में बह रहे थे और भारतेंदु के मकान को लीन होकर देख रहे थे। पाठक जी उनकी यह दशा देखकर बहुत खुश हुए। दोनों बातचीत करते हुए काफी दूर चले गए। लेखक और पाठक जी के मध्य यह हार्दिक परिचय था, जो भारतेंदु जी के मकान के नीचे हुआ था। आगे चलकर यह परिचय गहरी मित्रता में बदल गया। जब लेखक 16 वर्ष का हुआ तब उसे अपनी आयु-वर्ग के हिंदी-प्रेमियों की एक अच्छी खासी मंडली मिल गई। इनमें अनेक प्रसिद्ध लेखक थे। इनमें मुख्य थे-काशीप्रसाद जायसवाल, बा. भगवानदास ह्रालना, पं. बदरीनाथ गौड़, पं. उमाशंकर द्विवेदी आदि। इस लेखक मंडली में नए और पुराने लेखकों के बारे में लगातार चर्चा होती रहती थी। अब शुक्ल जी भी स्वयं को लेखक मानने लगे थे।
विशेष :
- इस गद्यांश में लेखक का तत्कालीन बड़े लेखकों के प्रति जिज्ञासा भाव प्रकट होता है।
- लेखक का प्रारंभ से ही हिंदी-साहित्य के प्रति रुझान का पता चलता है।
- लेखक ने सीधी-सरल विवरणात्मक शैली का अनुसरण किया है।
3. मेरे मोहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक विन मेरे पिताजी खड़े-खड़े उनके साथ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा- “इन्हें हिंदी का बड़ा शौक है।” चट जवाब मिला- “आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ’ हो गया।” मेरी सूरत में ऐसी क्या बात थी, यह इस समय नहीं कह सकता। आज से तीस वर्ष पहिले की बात है।
प्रसंग : प्रस्तुत गध्धांश हिंदी गद्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरण ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धृत है। लेखक की बचपन से ही हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति गहरी रुचि थी। यहाँ इसी की झलक दिखाई देती है।
व्याख्या : लेखक के पिताजी विद्वान थे। उन्हें अपने पुत्र पर गर्व था कि वह छोटी आयु में ही अच्छी हिंदी लिखता था। एक बार की बात है कि लेखक के मोहल्ले में एक मुसलमान सब-जज रहने आए थे। लेखक के पिताजी से उनका परिचय था। एक बार लेखक के पिताजी उनसे खड़े-खड़े बातचीत कर रहे थे, तभी लेखक भी वहाँ आ पहुँचा। पिताजी ने लेखक का उन सब-जज साहब से परिचय करवाते हुए कहा कि यह मेरा पुत्र है और इसकी हिंदी में बड़ी रुचि है।
सब-जज साहब ने मुझे परखते हुए उत्तर दिया कि यह सब बताने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो इसकी सूरत देखकर ही समझ गया। इसका हिंदी-प्रेम इसकी शक्ल से झलकता है। यह शक्ल से ही पढ़ा-लिखा नौजवान लगता है। सब-जज साहब उनकी प्रतिभा को पहचान गए थे। पर लेखक के लिए यह बात रहस्य बनी रही कि उनकी सूरत की किस विशेषता से प्रभावित होकर सब-जज साहब ने यह बात कही। तब लेखक इसका विश्लेषण करने में असमर्थ था क्योंकि यह यात 30 वर्ष पहले की है। इससे उसकी किशोर आयु का अंदाजा लगाया जा सकता है।
विशेष :
- लेखक प्रारंभ से ही प्रतिभाशाली था। वह प्रतिभाशाली प्रतीत भी होता था।
- उर्दू शब्द ‘वाकिफ’ का प्रयोग प्रभावशाली है।
- भाषा सहज, सरल एवं विषयानुकूल है।
4. चौधरी साहब से तो अब अच्छी तरह परिचय हो गया था। अब उनके यहाँ मेरा जाना एक लेखक की हैसियत से होता था। हम लोग उन्हें एक पुरानी चीज समझा करते थे। इस पुरातत्त्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का एक अव्भुत मिश्रण रहता था। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि चौधरी साहब एक खासे हिंदुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी।
कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा-सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। बात की काँट-छाँट का क्या कहना है! जो बातें उनके मुँह से निकलती थीं, उनमें एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकवम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा, तो उनके मुँह से यही निकला कि “कारे बचा त नाही।” उनके प्रश्नों के पहिले ‘क्यों साहब’ अक्सर लगा रहता था।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध हिंदी गद्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मिति’ से अवतरित है। इसमें लेखक समकालीन कवि बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के स्वभाव की विशेषताओं पर प्रकाश डालता है।
व्याख्या : शुक्ल जी प्रारंभ से ही चौधरी साहब से मिलने को उत्सुक रहते थे। बाद में उनके साथ लेखक का अच्छा-खासा परिचय हो गया था। अब तक शुक्ल जी भी एक लेखक के रूप में पहचाने जाने लगे थे। अतः अब वे चौधरी साहब के यहाँ एक लेखक के रूप में जाते थे। चूँकि चौधरी साहब बुजुर्ग थे अत: लेखक और उनके साथी उन्हें एक पुरानी चीज समझते थे। उनमें पुरानापन देखने में भी लेखक का प्रेम और जिज्ञासा का भाव झलकता था। वे उनके प्रति आदर-भाव रखते थे। चौधरी साहब का परिचय देते हुए लेखक बताता है कि वे एक अच्छे-खासे हिंदुस्तानी रईस थे।
उनके यहाँ वसंत पंचमी और होली आदि त्योहारों पर खूब नृत्य-संगीत और उत्सव के कार्यक्रम होते थे। उनकी हर अदा से रईसी टपकती थी। उन्हें लंबे बाल रखने का शौक था। उनके बाल कंधों तक लटकते थे। जब वे इधर-उधर टहलते थे तक एक छोटा लड़का पान की तशतरी लेकर उनके आगे-पीछे चलता रहता था ताकि इच्छा होने पर वे पान खा सकें। बात की काट-छाँट करने में भी वे अनोखे थे। उनके मुँह से निकलने वाली हर बात विलक्षणता को लिए हुए होती थी। उनकी बातचीत और लेखों के ढंग में अंतर होता था। जब वे नौकरों के साथ संवाद करते थे तो वह सुनने लायक होता था। वे ठेठ अपनी देसी भाषा में बात करते थे। जब किसी नौकर के हाथ से गिलास वगैरा गिर जाता था तब उनके मुँह से यही निकलता था-‘ कारे बचा त नाहीं।’ वे जब भी कोई प्रश्न करते तो पहले यह कहते-‘ क्यों साहब।’
विशेष :
- यहाँ चौधरी साहब के दबंग व्यक्तित्व एवं रईसी ठाठ की झलक प्रस्तुत की गई है।
- सीधी सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।
- तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है।
5. वे लोगों को प्राय: बनाया करते थे, इससे उनसे मिलने वाले लोग भी उन्हें बनाने की फिक्र में रहा करते थे। मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था-वामनाचार्य गिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खड़े दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था-“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।”
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी के प्रख्यात लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से अवतरित हैं। इसमें लेखक प्रेमघन के आकर्षक व्यक्तित्व पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डाल रहा है।
व्याख्या : बदरीनारायण चौधरी की यह आदत थी कि वे लोगों को मूर्ख बनाया करते थे, पर उनसे मिलने वाले भी कोई कम न होते थे। वे इस प्रयास में रहते थे कि चौधरी साहब को कैसे बनाया जाए। इसी सिलसिले में लेखक एक घटना का उल्लेख करता है। उन दिनों मिर्जापुर में प्राचीन कविता के एक प्रतिभाशाली कवि रहते थे। उनका नाम था-‘ वामनाचार्य गिरि’। एक दिन की बात है कि सड़क पर चलते हुए चौधरी साहब पर एक कविता जोड़ते जा रहे थे।
बस कविता का अंतिम चरण बनना शेष रह गया था। तभी उन्हें चौधरी साहब अपने बरामदे में दिखाई पड़े। उनके बाल कंधों पर छिटके हुए थे। उस समय वे एक खंभे के सहारे खड़े थे। इसी मुद्रा में वे कवि महोदय को दिखाई पड़ गए। उन्हें देखते ही उनकी कविता का अंतिम चरण भी पूरा हो गया। वामन जी ने नीचे से ही वह कवित्त बोलकर सुनाया। उसकी अंतिम पंक्ति थी-“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।” अर्थात् उस समय कवि महोदय को चौधरी साहब एक मुगल स्त्री के समान प्रतीत हो रहे थे जो खंभा का सहारा लेकर खड़ी हो।
विशेष :
- इस गद्यांश में अप्रत्यक्ष रूप से बदरीनारायण चौधरी की सुंदरता की तुलना मुगल स्त्री से की गई है।
- वामनाचार्य गिरि की आशुलेखन प्रवृत्ति का पता चलता है।
- वर्णनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है।
6. मेरे सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, बा. भगवानदास हालना, बा. भगवानदास मास्टर-इन्होंने उर्दू-बेगम नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार आदि का वृत्तांत एक कहानी के ढंग पर दिया गया था-इत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैम्प जल रहा था। लैम्प की बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज देने लगे। मैंने चाहा कि बढ़कर बत्ती नीचे गिरा दूँ, पर लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के विचार से मुझे धीरे से रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं, “अरे, जब फूट जाई तबै चलत आवह।” अंत में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई, पर चौधरी साहब का हाथ लैम्प की तरफ न बढ़ा।
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से अवतरित है। इसमें लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या : लेखक कहता है कि उसके सहपाठी पं. लक्ष्मीनारायण चौबे, बा. भगवानदास हालना तथा बा. भगवानदास मास्टर ने मिलकर ‘उर्दू-बेगम’ नामक एक बड़ी ही मनोरंजक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उर्दू के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। उर्दू कैसे उत्पन्न हुई ? कैसे इसका प्रसार-प्रचार हुआ ? आदि पर इसमें विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। यह सारा वृत्तांत कहानी शैली में दिया गया है। कई व्यक्ति चौधरी साहब के साध छत पर बैठकर बातें कर रहे थे, गर्मी का मौसम था।
चौधरी साहब के निकट एक लैम्प जल रहा था। अचानक लैम्प की बत्ती भभकने लगी अतः लैम्प का बुझाना जरूरी हो गया। इस काम के लिए चौधरी साहब नौकरों को आवाज देने लगे। लेखक ने चाहा कि वह बत्ती को नीचे गिराकर बुझा दे पर लक्ष्मीनारायण ने रोक दिया और तमाशा देखने को कहा। चौधरी साहब स्वयं कुछ न करके कहे जा रहे थे कि जब लैम्प की चिमनी फट जाएगी, क्या तभी कोई आएगा और अंत में यही हुआ कि चिमनी ग्लोब के साथ टूटकर चकनाचूर हो गई। इसके बावजूद चौधरी साहब का हाथ लैम्य तक न गया। संभवतः यह उनके रईसी ठाठ का प्रभाव था।
विशेष :
- चौधरी साहब के व्यक्तित्व के एक पहलू पर प्रकाश डाला गया है।
- वर्णनात्मक शैली अपनाई गई है।
- सीधी-सरल भाषा का प्रयोग है।
7. मैं भी अब अपने को एक लेखक मानने लगा था। हम लोगों की बातचीत प्राय: लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती, जिसमें ‘निस्संदेह’ इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अफ़सरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू कानों में हम लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने हम लोगों का नाम ‘निस्संदेह’ लोग रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले में कोई मुसलमान सब-जज आ गए थे। एक दिन मेरे पिता जी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिता जी ने मेरा परिचय देते हुए कहा-“इन्हें हिंदी का बड़ा शौक है।” चट जबाव मिला- “आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ़’ हो गया।’
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश प्रसिद्ध निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित निबंध ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ से उद्धत है।
व्याख्या : हिंदी लेखकों का मित्र मंडली में आकर लेखक भी स्वयं को हिंदी का लेखक मानने लगा था। मंडली के बीच उनका अच्छा सम्मान था। इस मंडली के लेखक बातचीत भी अच्छी स्तरीय हिंदी में करते थे। वे नए-नए शब्दों का प्रयोग करते रहते थे। उनकी बातचीत में ‘निस्संदेह’ शब्द का बहुत प्रयोग होता था। लेखक जिस जगह रहता था, वहाँ अदालत-कचहरी से संबंधित लोग अधिक संख्या में रहते थे। वे अधिकतर उर्दू भाषा का प्रयोग करते थे। उन लोगों को इन लेखकों की बोली बड़ी विचित्र लगती थी। हिंदी लेखकों के ‘निस्संदेह’ शब्द को सुन-सुनकर इनका नाम ही निस्संदेह रख दिया गया। लेखक के मुहल्ले में एक मुसलमान जज रहने लगे थे। वे पिताजी के जानकार थे। पिताजी ने लेखक का उनसे परिचय कराया तो जज साहब बोले कि मैं तो इनकी शक्ल को देखते ही समझ गया था कि ये कोई लेखक हैं।
विशेष :
- ‘निस्संदेह’ शब्द का व्यंग्यार्थ प्रयोग हुआ है।
- विवरणात्मक शैली अपनाई गई है।
- ‘वाकिफ़’ उर्दू शब्द का प्रयोग है।