NCERT Solutions for Class 11 Hindi Antral Chapter 3 आवारा मसीहा
Class 11 Hindi Chapter 3 Question Answer Antral आवारा मसीहा
प्रश्न 1.
“उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दु:ख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा ? आपके विचार से साहित्य के कौन-कौन से उद्देश्य हो सकते हैं ?
उत्तर :
लेखक ने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि उन दिनों स्कूलों में बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा के बाद ‘सीता वनवास,’ ‘चारुपाठ,’ ‘सद्भाव-सद्युरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ आदि पढ़ाया जाता था। शरत् ने देवानंदुर में ‘बोधोदय’ तक पढ़ा था। भागलपुर आने पर नाना के मंत्री होने के कारण उसे स्कूल की छात्रवृत्ति कलास में दाखिल कर दिया गया, जो उसके लिए बड़ी क्लास थी। उन दिनों स्कूल में किताब को पढ़ लेना ही काफ़ी नहीं था, अपितु पंडित जी के सामने उसकी परीक्षा भी देनी पड़ती थी। शरत् अपनी पढ़ाई से आगे वाली कलास में होने के कारण अवश्य ही पंडित जी से मार खाता होगा इसीलिए लेखक ने उसका साहित्य से प्रथम परिचय दु:ख देने वाला बताया है।
साहित्य का उद्देश्य प्रत्येक मनुष्य के लिए अलग होता है। साहित्य मनुष्य के लिए एक प्रेरणा-स्रोत है, जिसे पढ़कर मनुष्य अपने जीवन को अँधेर से निकाल प्रकाश में लाता है। अच्छा साहित्य मनुष्य को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करता है। उसे देश-भक्ति, वीरता, भाईचारे, एकता तथा आपसी सहयोग का मार्ग दिखाता है। साहित्य के माध्यम से मनुष्य अपने मन के भावों को दूसरों तक पहुँचाता है। एक छोटी सी कविता भी मनुष्य के जीवन को बदल देती है। इसलिए कह सकते हैं कि साहित्य वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य स्वर्य को शक्ति प्रदान करता है और उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।
प्रफ्न 2.
पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में क्या अंतर और समानताएँ हैं ? आप पढ़ने-पढ़ाने के कौन-से तौर-तरीकों के पक्ष में हैं और क्यों ?
उत्तर :
पहले समय और वर्तमान समय की पढ़ाई में अंतर आने से पढ़ने और पढ़ाने के तौर-तरीकों में भी अंतर आ गया है। पहले बच्चों को पाँच-छह साल की उम्र में स्कूल में पढ़ने भेजा जाता था। प्रारंभिक शिक्षा के उपरांत स्कूलों में साहित्य पढ़ाया जाता था जिसमें बच्चों को देश की संस्कृति का ज्ञान करवाया जाता था। स्कूलों में ‘सीता बनवास’, ‘चारु पाठ’, ‘सद्भाव-सदगुरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ जैसा साहित्य पढ़ाते थे। उस समय पुस्तक पढ़ लेना ही काफी नहीं होता था, उसकी प्रतिदिन पंडित जी के सामने परीक्षा देनी पड़ती थी।
इससे बच्चों को सब कुछ याद हो जाता था और वे उसे अपने दैनिक व्यवहार में भी शिक्षा का उपयोग करते थे। आज के समय में स्कूलों की पढ़ाई व्यावहारिक हो गई है। बच्चों को आज की तकनीक के अनुसार शिक्षा दी जाती है। बाई-तीन साल के बच्चों को स्कूल में भेज दिया जाता है-शुरू से ही बच्चों पर किताबों का बोझ डाल दिया जाता है। बच्चों को नैतिक और मर्यादा की शिक्षा नहीं दी जाती। नैतिक शिक्षा का विषय स्कूलों में पढ़ाया तो जाता है परंतु उस शिक्षा को अपनाने के लिए बल नहीं दिया जाता। गुरु-विद्यार्थियों के संबंधों में भी अंतर आ गया है। आज की व्यावहारिक पढ़ाई ने गुरु की मर्यादा और विद्यार्थियों का प्यार और सम्मान सब समाप्त कर दिया है।
पढ़ते-पढ़ाने के तौर-तरीकों में बदलते समय के साथ बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। आज की शिक्षा बदलते समय की तकनीक के साथ है जो कि आज के सपाज की आवश्यकता बन गई है। परंतु बदलती हुई शिक्षा-प्रणाली के साथ यदि पहले की तरह बच्चों को नैतिक, संस्कृति, मयांदा की शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। देश की उन्नति और भविष्य को देखते हुए हम लोग आज की शिक्षा प्रणाली के पक्ष में हैं। आज विज्ञान में नई-नई तकनीक आ रही है। दिन-प्रतिदिन नई-नई खोजें हो रही हैं। उनकी जानकारी हमें इस नई शिक्षा प्रणाली से मिल सकती है। नई शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक के साथ-साथ यदि मर्यादित भी बना दिया जाए तो यह नई शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों, शिक्षकों और देश के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रश्न 3.
पाठ में अनेक अंश बाल सुलभ चंचलताओं, शरारतों को बहुत रोचक बंग से उजागर करते हैं। आपको कौन-सा अंश अच्छा लगा और क्यों ? वर्तमान समय में इन बाल-सुलभ क्रियाओं में क्या परिवर्तन आए हैं ?
उत्तर :
लेखक के अनुसार बालक शरत् बचपन में बहुत शरारती था। उसमें निडरता, बुद्धिमता, समझदारी और आजादी के गुण थे। शरत् को अपनी स्वतंत्रता बहुत प्रिय थी। वह अधिक समय तक एक जगह टिककर नहीं रह पाता था। एक बार देवानंदपुर के स्कूल में उसकी शरारतों के कारण पंडित जी ने उसकी आधी छुट्टी बंद कर दी थी। पंडित ने भोलू नाम के लड़के को उसकी देखरेख के लिए बैठा दिया।
शरत पाठशाला के कमरे के एक कोने में फटी हुई दरी पर बैठा था, उसके हाथ में स्लेट थी। वह कभी औँखें खोलता और कभी बंद करता था। अंत में वह गहरी सोच में डूब गया कि यह समय तो गुड्डी उड़ाने के लिए है। उसे बाहर निकलने के लिए एक युक्ति सूझ गई। वह स्लेट लेकर भोलू के पास गया और कहने लगा कि उसे यह सबाल नहीं आता। भोलू जिस बेंच पर बँठा था वह टूटी हुई थी और पास में चूने का ढेर लगा हुआ था। भोलू उसका सवाल देखने लगा। उसी समय एक घटना घट गई-भोलू चूने के ठेर पर गिर पड़ा और शरत गायब हो गया। इस घटना से यह पता चलता है कि बालक शरत् अपनी आजादी के लिए कुछ भी कर सकता था। शरत को बंधन में रहना पसंद नहीं था। उसे एक आजाद पक्षी की तरह खुले वातावरण में रहना पसंद था।
वर्तमान समय में इन बाल सुलभ क्रियाओं में बहुत परिवर्तन आया है। गाँवों और छोटे शहरों में तो बच्चे छोटी-छोटी बाल-सुलभ क्रियाएँ करते दिख जाते हैं, परंतु बड़े शहरों में बाल-सुलभ क्रियाएँ देखने को नहीं मिलती। आज बच्चों के शारीरिक रूप से खेले जाने वाले खेल कम हो रहे है। उनकी जगह टेलीविजन, कंप्यूटर ने ले ली है। वर्तमान समय में सामाजिक परिवेश में परिवर्तन आने से बच्चों का बचपन समाप्त होता जा रहा है। बच्चों को खेलने के लिए पहले की तरह खुली जगह और वातावरण नहीं मिलता है। आज की शिका प्रण्चली ने भी बच्चों के बचपन की क्रियाओं को समाप्त कर दिया है।
प्रश्न 4.
नाना के घर किन-किन बातों का निघेध था ? शरत् को उन निघिद्ध कार्यों को करना क्यों प्रिय था ?
उत्तर :
बालक शरत् के नाना के घर कठोर अनुशासन का पालन किया जाता था। उसके नाना के घर में बच्चों का प्यार करना और पतंग उड़ाना, लट्दू घुमाना, गुल्ली-डंडा खेलना, तितली पकड़ना, उपवन लगाना आदि ऐसे सभी कार्यों की मनाही थी, जिनमें बच्चों को स्वतंत्रता का अनुभव होता था और मज्ञा आता था। यहाँ तक कि अखबार पढ़ना, बंगदर्शन साहित्य पढ़ना भी मना था। ये सभी कार्य घर में लुक-छिपकर किए जाते थे। यदि कोई बच्चा इन निषिद्ध कार्यों को करता हुआ पकड़ा जाता था, उसे कठोर दंड दिया जाता था जिससे दूसरे बच्चे-कायों को करते हुए डरें। उनके अनुसार बच्चों को केवल पढ़ना चाहिए। खेल-कूद बच्चों का जीवन नष्ट कर देता है।
वालक शरत जब नाना के घर रहने भागलपुर गया तो वह ऐसे कठोर शासन में रहने का आदी नहीं था। उसे वे सभी कार्य करने प्रिय थे जिसे नाना के घर में करना मना था। उसे पतंग उड़ाना, गंगा-स्नान, लट्रु चलाना, गोली खेलना, तितली पकड़ना और साहित्य पढ़ना अच्छा लगता था। उसे इन कार्यों को करने में स्वतंत्रता का अनुभव होता था। उसे अपने जीवन में ताज़गी अनुभव होती थी। शरत् के अनुसार खेलने से शरीर बनता है। बुद्धि तेज होती है इसीलिए नाना से दंड मिलने के डर की परवाह किए बिना वह खेलने चला जाता था।
प्रश्न 5.
आपको शरत और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में क्या समानताएँ नजर आती हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
शरत् और उसके पिता के स्वभाव में बहुत समानताएँ हैं। दोनों की साहित्य में राचि थी, साँदर्य-बोध था और प्रकृति से प्रेम था। दोंनों कल्पनाशील और यायावर प्रकृति के थे। दोनों के स्वभाव की समानताएँ इस प्रकार हैं-
(i) साहित्य में रुचि – शरत् और उसके पिता मोतीलाल दोनों की साहित्य में रुचि थी। मोतीलाल को लिखने का बहुत शौक था परंतु उन्होंने जो लिखा, उसे कभी पूरा नहीं किया। उनकी कहानियों की शुरुआत जितनी अधिक महत्वपूर्ण होती थी अंत उतना ही महत्वहीन होता था। भागलपुर में रहते हुए मोतीलाल ‘बंकिम चंद्र’ का ‘बंग दर्शन’ बड़े उत्साह से पढ़ते थे। कभी-कभी रवींद्रनाथ का साहित्य भी पढ़ते थे। भागलपुर में गांगुली परिवार में साहित्य पढ़ना मना था। वह ये सब लुक-छिपकर पढ़ते थे। शरत ने अपने स्कूल के पुस्तकालय से लेकर उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ केवल पढ़ी ही नर्ही अपितु वह उनका सूक्ष्म अध्ययन भी करता था।
(ii) सांदर्य-बोध – शरत् और उसके पिता दोनों में सॉंदर्य-बोध की प्रचुरता थी। मोतीलाल सभी काम सुंदर बंग से करते थे। वे लिखने से पहले सुंदर कलम में नया निब लगाकर बढ़िया कागज पर मोती जैसे अक्षरों में लिखते थे। भागलपुर में भी वह बच्चों को सुंदर अक्षर में लिखना सिखाते थे। शरत् में भी अपने पिता की तरह सभी कार्य सुंदर दंग से करने की आदत थी। वह अपने कमरे को खूब सजाकर रखता था, चौकी और उस पर सुंदर-सी तिपाई, एक बंद डेस्क, और उसमें पुस्तकें व कापियाँ, कलम, दवात, सभी वस्तुएँ बड़े सुंदर बंग से लगाकर रखता था। उसकी पुस्तकें झक-झक करती थीं। कापियों को करीने से काटकर बहुत ही सुंदर ढंग से तैयार करता था।
(iii) प्रकृति-प्रेमी – दोनों को प्रकृति से बहुत प्यार था। मोतीलाल को गंगा-घाट, वन, पेड़-पौधों से बहुत प्यार था। भागलपुर में इन जगहों पर जाना मना था, परंतु वे फिर भी चले जाते थे। ऐसे ही शरत् को गंगा-घाद पर स्नान करना, मछली पकड़ना और तितली पकड़ना बहुत प्रिय था। उसने अपना एक उपवन भी बना रखा था जिसमें तरह-तरह के फूल थे और उसमें एक छोटी तलैया भी बना रखी थी। शरत् ने अपने एकांत के लिए भागलपुर में एक तपोवन की खोज कर रखी थी जो गंगा के किनारे लताओं से घिरा हुआ था जिसमें बैठकर उसे बहुत अच्छा लगता था।
(iv) संवेदनशील – मोतीलाल और शरत् स्वभाव से संवेदनशील थे। वे दोनों दूसरों के दु:ख से दु:खी हो उठते थे। दुखियों के दु:ख दूर करने के लिए वे दोनों सदा तैयार रहते थे। मोतीलाल भागलपुर में सजा पाने वाले बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौने बनाते थे और गोदाम से बाहर निकलने पर उसका स्वागत फूलों की माला से करते थे। शरत् के संवेदनशील स्वभाव ने उसे कहानीकार बना दिया।
(v) कल्पनाशील-दोनों में कल्पना करने की अपार शक्ति थी। मोतीलाल बच्चों को अपनी कल्पना से तरह-तरह की कहानियाँ सुनाते थे। शरत् भी अपनी सूझ-बूझ से तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ता था जिसे सुनकर सामने वाला चकित रह जाता था।
(vi) यायावार प्रकृति – दोनों को एक स्थान पर टिककर रहना पसंद नहीं था। उन्हें घूमना-फिरना अच्छा लगता था। मोतीलाल ने अपने इसी स्वभाव के कारण कई जगह नौकरी की। शरत् का भी जब एक स्थान से मन उखड़ जाता था तो वह कई-कई दिन के लिए घर से गायब हो जाता था। कई बार उसके पिता मोतीलाल उसे पूछ-पूछ कर ढूँढ़कर लाते थे। इस तरह हम कह सकते है कि दोनों के स्वभाव में बहुत समानताएँ थीं।
प्रश्न 6.
शरत की रचनाओं में उनके जीवन की अनेक घटनाएँ और पात्र सजीव हो उठे हैं। पाठ के आधार पर विवेचना कीजिए।
उत्तर :
शरत ने जीवन को बहुत नजदीक से देखा था। उसमें बचपन से ही आस-पास के वातावरण की सृक्ष्म विवेचना करने की अपार प्रतिभा थी। शरत् ने कराशिल्पी शरत्चंद्र बनने के उपरांत अपने जीवन की उन घटनाओं और पात्रों का बहुत सूक्ष्म विवेचन करके उनको अपनी रचनाओं का आधार बनाया। देवानंदपुर में रहते हुए शरत की बाल संगिनी धीरू थी जो उसके हर कार्य में साथ देती थी।
कई बार वह शरत् के क्रोध का भी शिकार बनती थी। शरत की यह संगिनी उनके कई उपन्यासों में नायिका के रूप में साकार हो उठी है-जजैसे ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी। ये सब धीरु ही का तो विकसित और विराट रूप हैं। ‘देवदास’ में तो कथाशिल्पी शरत्चंद्र ने जैसे अपने बचपन को ही मूर्त रूप दे दिया था। शरत बाग से फल चुरने की कला में कुशल था। उसे कभी कोई पकड़ नहीं पाया था। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि के आगे मालिकों के सब उपाय व्यर्थ हो जाते थे। कथाशिल्पी शरत्चंद्र के सभी प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकांत, दुराततराम और सध्यसायी इस कला में निष्णात थे। शरत् बचपन से ही स्वल्पाहारी था। बड़े होने पर कथाशिल्पी शरत्चंद्र की ‘बड़ी बहू’ सबसे अधिक इसलिए तो परेशान रहती थी।
शरत अपने पिता के साथ ‘डेहरी आन सोन’ गया था। वहाँ उसके पिता को नौकरी मिली थी। उस प्रवास के समय जुड़ी यादों के सहारे कथाशिल्पी ने ‘गृहदाह ‘ में इस नगव्य स्थान को भी अमर कर दिया। शरत का जब देवानंदपुर रहते हुए मन उखड़ जाता था तो वह कभी अकेले या फिर कभी मित्रों को साथ लेकर कृष्पपुर गाँव के रघुनाथदास गोस्वामी के अखाड़े में पहुँचकर कीर्तन का आनंद लेता था। यहाँ उसका मित्र गाँहहर रहता था। ‘श्रीकांत’ चतुर्थ पर्व का वह आधा पागल कवि कीर्तन भी करता था। ‘श्रीकांत’ चतुर्थ पर्व में कथाशिल्पी शरत्चंद्र ने बचपन में स्कूल जाने वाले मार्ग को बड़े होकर स्टेशन से जोड़ा है।
स्टेशन जाते हुए वह मार्ग बहुत जाना-पहचाना लगता है। ऐसी ही कई बातों को अपने साहित्य का आधार बनाकर बचपन को जी लिया था। ‘काशीनाथ’ शरत् के गुरुभाई का नाम था। उसके नाम को नायक बनाकर एक घर-जँवाई का जीवन का वर्णन किया है। शरत ने अपने पिता मोतीलाल को ससुराल में रहते देखकर जाना था कि घर-ज”ँवाई कैसा होता है। ‘काशीनाथ’ को ससुराल में मानसिक सुख नहीं है।’काशीनाथ’ में एक जगह कथाशिल्पी ने लिखा है, “‘कभी-कभी वह ऐसा महसूस करने लगता है जैसे अचानक किसी ने गर्म पानी के कड़ाहे में छोड़ दिया हो। मानो सबने मिलकर, सलाह करके उसकी देह को खरीद लिया हो।
मोतीलाल जैसे स्वच्छंद व्यक्ति की गांगुली जैसे अनुशासित और कठोर नियमों वाले परिवार में मानसिक स्थिति ऐसी ही रही होगी। ‘शुभदा’ के हारान बाबू की तरह मोतीलाल भी भुवनमोहिनी के क्षुव्ध होने पर रात-रात भर घर नहीं आते थे। ‘विलासी’ का कायस्थ मृत्युंजय शरत् का तीसरी कक्षा का सहपाठी था, जिसे उसके चाचा बड़े बाग को हड़पने के लिए तंग करते थे। एक बार बीमार पड़ने पर एक बूढ़ा ओझा और उसकी बेटी उसे अपनी सेवा से ठीक करते हैं।
समाज की परवाह किए बिना मृत्युंजय उसे पत्नी बनाकर रख लेता है और उसके साथ रहते हुए संपेरा बन जाता है। शरत् भी कई बार उससे साँप पकड़ने की विद्या सीखने गया था। पुरी से आते हुए उसे बुखार आ गया था। उस समय एक बाल विधवा ने उसकी सेवा की। उस विधवा का देवर और बहनोई दोनों उस पर अपना अधिकार सिद्ध कर रहे थे। वह उनसे बचकर भागती है परंतु पकड़ी जाती है। शरत् ने इस घटना को आधार बनाकर ‘चरित्रहीन’ उपन्यास की रचना की।’ शुभदा’ की कृष्णा बुआ की तरह उसकी दादी ने सदा ही घर की इज्जत की रक्षा की थी। कथाशिल्पी शरत चंद देवानंदपुर गाँब में गुजारे अभाव और दारिड्य के दिनों को भी भूल नहीं पाया था। उन्होने ‘शुभदा’ में दरिदता के भयानक चित्र खींचे हैं। इसके पीछे निश्चय ही यह कारण होगा कि इसी यातना की नींव में उसकी साहित्य साधना का बीजारोपण हुआ। उनके जीवन की ऐसी घटनाओं का अंत नहीं है। इन्हीं घटनाओं की संवेदना ने उन्हें कहानीकार बना दिया।
प्रश्न 7.
“जो रुदन के विभिन्न रुपों को पहचानता है वह साधारण बालक नही है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।” अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपनी टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :
बालक शरन् में स्कूल के पुस्तकालय से उस समय के प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ पढ़कर उनका सूक्ष्म विश्लेषण करने की सहज प्रतिभा थी। एक दिन बालक शरत् अवकाश प्राप्त अध्यापक अघोरनाथ अधिकारी के साथ गंगाघाट पर स्नान के लिए जा रहा था। रास्ते में एक टूटे हुए घर से एक स्त्री के धीरे-धीरे रोने की आवाज आ रही थी। अधिकारी महोदय ने पूछा कि कौन रो रहा है ? शरत् ने बताया कि रोने वाली स्री का स्वामी अंधा था।
वह कल रात मर गया इसलिए वह बहुत दुःखी है। दु:खी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखाने के लिए जोर-जोर से नही रोते। उनका रोना दु:ख से विदीर्ण प्राणों का क्रंदन है, यह सचमुच का रोना है। शरत् के मुँह से रोने का इतना सूक्ष्म विवेचन सुनकर अघोर बाबू हैरान रह गए। उन्होंने इसकी चर्चा अपने मित्र से की। उन्होंने कहा कि जो रोने के विभिन्न रूपों को पहचानता है, वह निश्चय ही विद्या के क्षेत्र में प्रसिद्ध होगा।
बालक शरत् का दु:खों से सामना बचपन से ही हो गया था। उसका बचपन घोर दारिद्य, अभाव और दूसरों के सहारे गुजरा था। इसलिए उसका स्वभाव अंतर्मुखी हो गया था। वह अपने आस-पास के वातावरण का सूक्ष्म अध्ययन करता था, जिससे उसमें हर वस्तु को समझने की अपार शक्ति पैदा हो गई थी। उसके मुँह से रोने का ऐसा विचित्र वर्णन सुनकर लगा कि बालक को उसके परिवार के दु:खों ने उम्र से पहले बड़ा बना दिया था। उसकी यह प्रतिभा उसके असाधारण व्यक्तित्व को दर्शाती थी जिससे लगता था कि आगे जाकर साहित्य के क्षेत्र में वह जरूर अपना नाम रौशन करेगा।
Class 11 Hindi NCERT Book Solutions Antral Chapter 3 आवारा मसीहा
प्रश्न 1.
शरत का मन भारी क्यों था ?
उत्तर :
शरत को भागलपुर में नाना के घर रहते हुए तीन साल हो गए थे। अब उसके वहाँ से जाने का समय आ गया था। वह अपने मामा सुरेंद को लेकर बाग में पहुँचा था। पेड़ों के आसपास घूमते मानो उनसे मन-ही-मन विदा ले रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि पता नहीं, यहाँ वापस आना हो या न हो। वह अपनी उदासी छिपाने के लिए लगातार बातें कर रहा था। उसे भागलपुर से बहुत लगाव था। यही सोचकर कि अब वह यहाँ से चला जाएगा, उसका मन भारी हो गया था।
प्रश्न 2.
शरत को अपनी माँ और पिता के साथ तीन वर्ष पूर्व भागलपुर क्यों आना पड़ा ?
उत्तर :
शरत के पिता मोतीलाल कल्पनाशील व्यक्ति थे। उन्हें एक स्थान पर टिककर रहना पसंद नहीं था। परिवार के पालन के लिए कई जगह नौकरी की परंतु उनके शिल्पी मन का दासता के बंधन के समय कोई सामंजस्य न हो पाता था। उनका हर काम अधूरा रहता था। कुछ दिन नौकरी में मन लगता, फिर एक दिन अचानक बड़े साहब से झगड़ा कर बैठते और नौकरी छोड़ देते थे।
कुछ दिन बाद उनका मन पढ़ने-लिखने में व्यस्त हो जाता। उन्हें कहानी, उपन्यास, नाटक सभी कुछ लिखने का शौक था। वे बड़े उत्साह से रचना लिखनी आरंभ करते थे। उनकी रचनाओं का आरंभ महत्वपूर्ण होता था परंतु अंत महत्वहीन होता था। उन्होंने अंत की अनिवार्यता को कभी महत्व नहीं दिया था। उनके इसी व्यवहार से उनकी पत्नी भुवनमोहिनी क्षुब्ध रहती थी। जब परिवार का भरण-पोषण असंभव हो गया तो वह अपने पिता केदारनाथ के पास भागलपुर रहने चली गई।
प्रश्न 3.
देवी मामा को किसके अपराध की सज़ा मिली थी ? वह अपराध क्या था ?
उत्तर :
एक दिन मामा देवी और नाना केदारनाथ सोए हुए थे। वही पास में बच्चे बँठे थे। उसी समय तक चमगादड़ का बच्चा कमरे में घुसकर बच्चों के सिर मँडराने लगा। बच्चे पढ़ाई छोड़कर चमगादड़ से बचने लगे। शरत और मणि के हाथों में चमगादड़ को मारने की खुजली होने लगी। दोनों लाठियाँ लेकर चमगादड़ को मारने के लिए दौड़ने लगे। चमगादड़ का बच्चा खिड़की में से निकल गया।
बच्चों की लाठी पर में जा लगी। दीये का तेल चादर पर गिर गया और दीया बुझ गया। मणि और शरत यह देखकर कमरे से भाग गए। नाना केदारनाथ ने कमरे में अँधेरा देखकर पूछा कि यह किसका काम है। नौकर को वहाँ मणि और शरत दिखाई नहीं दिए। उसने वहीं सो रहे देवी का नाम लगा दिया। नाना केदारनाथ ने देवी मामा को कान पकड़कर खड़ा कर दिया और उसे अस्तबल में बंद करने की सज़्रा मिली। देवी मामा को शरत् और मणि के अपराध की सज्ञा मिली थी।
प्रश्न 4.
बालक शरत के उपवन में कौन-कौन से फूल लगे थे ?
उत्तर :
बालक शरत के नाना के घर पशु-पक्षी पालना, उपवन लगाना, पतंग उड़ाना जैसे बाल सुलभ-कार्य करने मना थे। बालक शरत ने अपने नाना और मामा से छिपकर अपना उपवन लगा रखा था। उस उपवन में अनेक प्रकार के फूल-गाछ और लता-गुल्म थे। ऋतु के अनुसार उपवन में जूही, बेला, चंद्र माल्लिका और गेंदा के फूल के पौधे लगा रखे थे। जब उन पौधों में फूल खिलते थे तो वह और उसके दल के बच्चे उन्हें देखकर प्रसन्न होते थे।
प्रश्न 5.
बालक शरत ने शारीरिक कसरत के लिए अखाड़ा कहाँ बना रखा था ? उस अखाड़े को किस प्रकार तैयार किया गया ?
उत्तर :
अंग्रेज्जी स्कूल में पढ़ते समय उसे अपने शरीर का बड़ा ध्यान रहता था। शरत् ने अभिभावकों से छिपकर नाना के घर के उत्तर में गंगा के पास एक खाली पड़े मकान के आँगन को अखाड़े के लिए तैयार किया। गोला फेंकने के लिए गंगा के गर्भ से बड़ेबड़े गोल पत्थर आ गए थे। बच्चों के पास पैसों का अभाव था इसलिए पैरेलल बार की व्यवस्था नहीं हो सकी। शरत ने इस पर सोच-विचार करके कहा कि पैरेलल बार के स्थान पर बाँस की बार तैयार की जाए। उसी संध्या बच्चों ने बाँस काटा और पैरेलल बार तैयार की। सब बच्चे वहाँ पर बिना शोर मचाए कुश्ती लड़ते, गोला फेंकते और पैरेलल बार पर झूलते थे।
प्रश्न 6. मणि और शरत् द्वारा गंगा-स्नान करने पर पकड़े जाने पर उनके साथ घर पर कैसा व्यवहार हुआ ?
उत्तर शरत् का विश्वास था कि तैरने पर शरीर बनता है। गंगा घर के पास थी। कई बार गंगा का जल कम हो जाने पर उसमें छोटे-छोटे ताल बन जाते थे जिसमें लाल-लाल जल भर जाता था। शरत् उस लाल जल में नहाना चाहता था परंतु नाना के यहाँ गंगा-स्नान के लिए जाना मना था। एक दिन शरत मणि मामा के साथ गंगा में स्नान के लिए कूद पड़ा। उस दिन अघोरनाथ नाना जल्दी घर आ गए थे। मणि को घर पर न पाकर उसके बारे में पूछा तो पता चला कि वह और शरत गंगा पर स्नान के लिए गए है। अघोरनाथ क्रोध से भर गए। दोनों बालक खुशी-खुशी स्नान करके घर लौँटे ही थे कि अघोरनाथ नाना मणि पर सिंह के समान गर्जन करते हुए टूट पड़े। उस दिन मणि की जो दुर्गति हुई उससे उसको टीक होने में पाँच सात दिन लग गए। शरत को उस समय छोटी नानी ने छिपा दिया था जिससे वह बच गया था।
प्रश्न 7.
शरत ने साँप वशीकरण मंत्र की परीक्षा कैसे ली ? क्या वह उसमें र्तफल रहा ?
उत्तर :
शरत को अपने पिता की अलमारी में से ‘संसार कोश’ नाम पुस्तक मिली थी। उस पुस्तक में उसे गुरुजनों के दंड से मुक्ति पाने के मंत्र के साथ साँप को वश में करने का मंत्र भी मिला। शरत उस मंत्र की परीक्षा करने को आतुर हो उठा। कोश में लिखा था कि एक हाथ लंबी बेल की जड़ किसी भी विषाक्त साँप के फण के पास रख देने पर पल-भर में वह साँप सिर नीचा कर निर्जीव हो जाएगा। शरत ने बेल की जड़ दूँढ़ ली, परंतु उसे साँप कहीं नहीं मिला। शायद साँपों को इस मंत्र का पता लग गया था। एक दिन अभरूद के पेड़ के नीचे एक गोखरु साँप का बच्चा मिला। शरत अपने दल सहित वहाँ जा पहुँचा और उसे बिल से बाहर निकालने के लिए छेड़ने लगा। साँप ने बालकों के अत्याचारों से दुखी होकर अपना फण उठा लिया। फण के उठाते ही शरत ने बेल की जड़ उसके आगे कर दी। सबका विश्वास था कि अभी साँप वश में हो जाएगा और सिर झुकाकर सबसे क्षमा प्रार्थना करेगा। शरत का साँप वशीकरण का यह उपाय विफल हो गया। साँप जड़ को ही डसने लगा। बच्चे यह देखकर डर गए। मणि ने लाठी से उस साँप को मार दिया।
प्रश्न 8.
शरत की सुरेंद्र मामा से क्यों पटती थी ?
उत्तर :
सुंदु शरत् से उम्र में छोटा था परंतु रिश्ते में उसका मामा लगता था। वह सुंदंद मामा से कोई भी बात नहीं छिपाता था। इसके पीछे शायद यह कारण था कि शरत की माँ ने सुरेंद को अपना दूध पिलाया था। सुंदु अभी छोटा ही था कि उसकी मॉँ के फिर से संतान होने की संभावना दिखाई दी। उधर शरत का छोटा भाई शैशव में ही चल बसा था, तब उसकी माँ ने सुरेंद को अपना दूध पिलाकर पाला था, इसीलिए शरत की सुंरुद मामा से बहुत पटती थी।
प्रश्न 9.
शरत में आस-पास के वातावरण को अध्ययन करने की सहज प्रतिभा थी, हमें इसका पता कैसे चलता है ?
उत्तर :
शरत ने अपने स्कूल के छोटे-से पुस्तकालय से उस समय के प्रसिद्ध लेखकों की सभी किताबें लेकर पढ़ ली थीं। वह केवल किताबें पढ़ता ही नहीं था बल्कि उसको समझने और हर वस्तु को पास से जानने का प्रयास करता था। उसमें अपने आस-पास के वातावरण का सूक्ष्म अध्ययन करने की सहज प्रतिभा थी। इसका पता इस घटना से लगता है-
एक बार वह अपने अवकाश-प्राप्त अध्यापक अघोरनाथ अधिकारी के साथ घाट पर जा हा था। रास्ते में एक घर से धीरे-धीरे करुण स्वर में एक स्त्री के रोने की आवाज़ सुनाई दी। अधिकारी महोदय ने पूछा कि कौन रो रहा है ? उस प्रश्न का उत्तर शरत ने इस प्रकार दिया कि रोने वाली स्त्री का आदमी अंधा था। कल रात वह मर गया, इसलिए वह दुखी थी। दुखी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखाने के लिए ज्रोर-ज्रोर से नहीं रोते। उनका रोना प्राणों को चीर देता है। मास्टर जी इस स्त्री का रोना सचमुच का है। इस उत्तर को सुनकर कह सकते हैं कि शरत में आस-पास के वातावरण का सूक्ष्म अध्ययन करने की प्रतिभा सहज थी।
प्रश्न 10.
गांगुली परिवार में ऐसा कौन व्यक्ति था, जिस पर नवयुग की हवा का प्रभाव था ? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
गांगुली परिवार की कठोरता और कट्टरता के मध्य एक व्यक्ति ऐसा था, जिस पर नवयुग की हवा का प्रभाव हुआ था। वे केदारनाथ के चौथे भाई अमरनाथ थे। वे शौकीन तबीयत के थे। कबूतर पालते थे। उस युग में कंघा, शीशा और वृश इत्यादि का प्रयोग करते थे। सिर पर अंग्रेज्री फ़ैशन के बाल रखते थे। दफ़तर से लौटकर बच्चों को पीपरमेंट की गोलियाँ इत्यादि देते थे। उनकी पढ़ने में भी बहुत रुचि थी। उनके द्वारा ही गांगुली परिवार में बंकिम चंद्र के ‘बंगदर्शन’ का प्रवेश हुआ था। वह इस अखबार को चोरी-छिपे लाते थे। उनसे ‘बंगदर्शन’ भुवनमोहिनी के द्वारा मोतीलाल के पास पहुँचता था। दुर्भाग्य से अमरनाथ बहुत दिन जी नहीं सके। बच्चों को उनसे बहुत प्यार था। उनके जाने का सबसे अधिक दुख बच्चों को हुआ था।
प्रश्न 11.
पाठ के आधार पर कुसुमकामिनी का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
कुसुमकामिनी सबसे छोटे नाना अघोरनाथ की पत्नी थी। उनसे छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करने पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर के हाथों पुरस्कार प्राप्त किया था। वह बंकिमचंद्र के गाँव ‘कांठालपाड़ा’ की रहने वाली थी परंतु गांगुली परिवार में बंकिमचंद्र की ज़रा-सी भी प्रतिष्ठा नहीं थी। कुसुमकामिनी की साहित्य में रुचि थी। अमरनाथ के द्वारा लाया गया ‘बंगदर्शन’ कमरे में मँगवाकर छिपकर पढ़ती थी। अमरनाथ के मरने के बाद बच्चों को उन्होंने और मोती लाल ने मिलकर सँभाला था। कुसुमकामिनी रसोई और गृहस्थी के अन्य कार्य समाप्त करने के बाद अन्य स्त्रियों की तरह पर परनिंदा में रस नहीं लेती थी।
जिस दिन उनके रसोई में काम करने की बारी नहीं होती थी उस दिन उनकी बैठक या छत पर छोटी-मोटी गोष्ठी होती थी। उसमें वे बंगदर्शन के अतिरिक्त ‘मृणालिनी’, ‘वीयांगना’, ‘बृजांगना’, ‘मेघनाद वध’ और नीलरदर्पण पढ़कर सुनाती थी। उनका स्वर और पढ़ने की शैली मर्मस्पर्शी थी जिसे सुनकर सभी बेजुबान हो जाते थे। शरत ने साहित्य का पहला पाठ उनकी गोष्ठियों में ही पढ़ा था। कुसुमकामिनी का अपराजेय कथाशिल्पी शरतचंद् के निर्माण में जो योगदान है, उसे भुलाया नहीं जा सकता।
प्रश्न 12.
शरत् जीवनभर अपना पहला गुरु किसे मानते रहे ? क्यों ?
उत्तर :
बालक शरत लेखक को असाधारण व्यक्ति मानता था। वह लेखक को आम आदमी से ऊपर मानता था। उस समय उसने लेखक बनने की नहीं सोची थी। बहुत दिन बाद् उसने ‘बंगदर्शन’ में कविगुरु रवीद्रनाथ ठाकुर की युगांतकारी रचना ‘आँख की किराकिरी’ पढ़ी। उस रचना को पढ़कर उस किशोर शरत को गहरे आनंद की अनुभूति हुई। उस आनंद को वह जीवनभर नहीं भूल सका था। अब तक वह भूत-प्रेतों की कहानियों से आतंकित रहता था। परंतु इस रचना के नए जीवन-दर्शन ने उसे प्रकाश और सौंदर्य के एक नए जादू-भरे संसार में पहुँचा दिया। शरत ने उन्हें उसी दिन से अपना गुरु मान लिया था, और जीवनभर उन्हें अपना गुरु मानते रहे थे।
प्रश्न 13.
शरत का अपने नाना के परिवार भागलपुर में रहना असंभव क्यों हो गया था ?
उत्तर :
शरत के पिता मोती लाल न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष भी थे। वे हुक्का पीते थे। वे बच्चों की शरारतों में सदा अपरोक्ष रूप से सहायता करते थे। जब किसी बच्चे को गोदाम में बंद होने की सजा मिलती थी तो वे चुपचाप उन्हें खाना दे आया करते थे। जब बच्चे गोदाम से छृटते तो फूलों की माला तैयार करके वह बच्च्चों को प्रसन्न कर देते थे। उनके बनाए कागज़ के खिलौने बच्चों में लोकप्रिय थे। वे बच्चों के लिए गंगा-स्नान का प्रबंध कर देते थे। बच्चों के लिए वे मरस्थल में शाद्वल के समान थे। इसी कारण कठोर अनुशासन वाले परिवार में ऐसा व्यवहार करने पर उनकी स्थिति अच्छी नहीं थी। उन दिनों गांगुली परिवार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी, इसलिए शरत् का अपने नाना के घर भागलपुर में रहना संभव हो गया था।
प्रश्न 14.
राजू का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
राजू गांगुली परिवार के पड़ोस में रहने वाले मजूमदार परिवार का लड़का था। राजू का रंग श्याम, स्वस्थ चेहरा, आजानबाहु, मुख पर चेचक के सामान्य निशान थे। उसके शरीर में जिनती शक्ति थी उतना ही मन में साहस था। राजू के पिता रामरतन मजूमदार भागलपुर डिस्टिर्ट इंजीनियर थे। राजू के पिता का गांगुली परिवार से घर के आसपास की जमीन को लेकर मनमुटाव था। राजूू का परिवार नए युग का समर्थक था, इसलिए उनके परिवार को बंगाली समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। राजू भी शरत् की तरह पतंगबाजी के द्वंद्वयुद्ध में पारंगत था। एक दिन राजू शरत् से पतंगबाजी के द्वंद्वयुद्ध में हार गया।
उसी दिन उसने अपना सरंजाम गंगा में अर्पित कर दिया। पतंगबाजी की प्रतियोगिता और संघर्ष ने राजू और शरत् को एक-दूसरे के नजदीक कर दिया था। राजू असाधारण प्रवृत्ति का बालक था। उसमें अमिट साहस था, अपूर्व प्रत्युत्पन्नमति थी तथा उसे सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती थी। वह शरत् की स्थिर-धीर और शांत बुद्धि से प्रभावित था। राजू के आजाद विचारों ने शरत् के सवागीण विकास में योगदान दिया। वह उसके सभी दु:साहसिक कार्यों का मंत्रदाता बन गया। राजू को संगीत और अभिनय का भी शौक था। राजू का व्यक्तित्व शरत् के लिए अदभुत और प्रेरणादायक था।
प्रश्न 15.
मोतीलाल के पिता बैकुंठनाथ का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
बैकुंठनाथ चौबीस परगना जिले में कांचड़पाड़ा के पास मामूदपुर के रहने वाले थे। उनका संबंध संभ्रांत राढ़ी ब्राह्मण परिवार से था। वे निर्भीक और स्वाधीनचेता व्यकि थे। उनके समय में जर्मींदारों का बहुत अत्याचार था, लेकिन वे कभी जमींदारों से दबकर नहीं रहे। उन्होंने सदा प्रजा का ही पक्ष लिया था। एक बार जर्मींदार ने उन्हें एक मुकदमे में झूटी गवाही देने के लिए कहा। उन्होंने इनकार कर दिया क्योंकि उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला था। बैकुंठनाथ का एक बेटा था। उसका नाम मोतीलाल था। एक दिन जर्मीदार ने उनके साहस और ईमानदारी की सजा मृत्यु के रूप में दी। बैकुंउनाथ आदर्शों पर चलने वाले एक साहसी व्यकित थे।
प्रश्न 16.
बैकुंठनाथ की मृत्यु के उपरांत उनकी पत्नी मोतीलाल को लेकर कहाँ गई ?
उत्तर :
बैकुंठनाथ की पत्नी को उनके मारे जाने का समाचार मिला तो वह अपनी सुधबुध खो बैठी। उसे कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। जमींदार के डर से वह अपना दु:ख रोकर प्रकट नहीं कर सकी थी। यदि वह रोती तो उसे अपने पुत्र से भी हाथ धोना पड़ता। उसने गाँव के बड़े लोगों के परामर्श से जल्दी-जल्दी पति का दाहसंस्कार किया और रातो-रात मामूदपुर छोड़ दिया। वह मोतीलाल को लेकर देवानंदपुर अपने भाई के पास चली गई।
प्रश्न 17.
पहले समय में कन्या की शादी के समय वर के परिवार का क्या देखा जाता था ?
उत्तर :
पहले समय में कन्या की शादी के समय परिवार की संपन्नता की आवश्यक्ता नहीं होती थी। उस समय वंश की मर्यादा और कुलीनता देखी जाती थी। केदारनाथ ने मोतीलाल को सद्वंश की कुलीन संतान जानकर अपनी दूसरी पुत्री भुवनमोहिनी की शादी उसके साथ कर दी थी। केदारनाथ संपन्न और बंगाली समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे।
प्रश्न 18.
भुवनमोहिनी का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर :
भुवनमोहिनी भागलपुर के केदारनाथ गांगुली की दूसरी पुत्री थी। उनकी शादी देवानंदुर के मोतीलाल चट्टोपाध्याय से हुई थी। वे कथाशिल्पी शरतचंद्र की माँ थीं। वह स्वभाव से शांत प्रकृति की थी। उनका चरित्र निर्मल था। वे उदारवृत्ति की महिला थीं। वे देखने में अधिक सुंदर नहीं थी परंतु वैदूर्यमणि की तरह अंतर के रूप में रूपसी थी। वे हमेशा दूसरों की सहायता करने को तैयार रहती थीं। भागलपुर में रहते हुए सबके छोटे बच्चे वे अपनी छाती से लगाकर रखती थीं। किसको कब क्या चाहिए, इसका पता भुवनमोहिनी को ही रहता था। उनके सहज पतिव्रत्य और प्रेम की छया में स्वपदर्शी पति की गृहस्थी चलने लगी थी। उन्होंने कभी भी अपने पति से गहनों या महँगे कपड़ों की माँग नहीं की थी। भुवनमोहिनी घर की शोभा बनाए रखने के लिए अत्यंत अभाव में भी शांत रहकर गुजारा करती थीं।
प्रश्न 19.
देवानंदपुर गाँव की क्या विशेषता है ?
उत्तर :
देवानंद्पुर बंगाल का एक साधारण-सा गाँव था। यह गाँव हरा-भरा ताल-तलैयों, नारियल और केले के वृर्षों से परिपूर्ण था। यहाँ मलेरिया की प्रचुरता भी कम नहीं थी। नवाबी शासन में यह फ़ारसी भाषा की शिक्षा का केंद्र था। डेढ़ सौ वर्ष पहले रायगुणाकर कवि भारतचंद्र राय फ़ारसी भाषा का अध्ययन करने देवानंद्पुर गाँव आए थे। उन्होंने अपना कैशोर्यकाल यहाँ बिताया था। इस गाँव की गणना प्राचीन सप्त ग्रामों में होती थी। उस समय यह गाँव समृद्ध भी रहा होगा। भारतर्चंद्र के समय इस गाँव में हरिराम राय और रामचंद्र दत्त मुंशी पढ़ाने-लिखाने का काम करते थे। इन्हीं से उन्होंने फ़ारसी पढ़ी। भारतचंद्र राय ने दो पद्य-देवानंदपर, हरिरामराय और रामरंद्ध दत्त मुंशी पर लिखकर उसे अमर कर दिया।
प्रश्न 20.
शरत की दादी शरत की कोई भी शिकायत सुनने के बाद क्या कहती थी ?
उत्तर :
शरत बचपन से ही बहुत शरारती था। स्कूल जाने के बाद उसकी शरारतें बहुत बढ़ गई थी। प्रतिदिन स्कूल से पंडित शिकायत लेकर घर आते थे। एक दिन शरत ने पंडित जी की चिलम में तंबाकू हटाकर इंटों के छोटे-छोटे टुकड़े भर दिए। पंडित जी ने जैसे ही चिलम पीनी शुरू की उसमें से धुआँ नहीं निकला। उन्होंने चिलम को उलटा करके देखा तो उसमें से ईंटों के टुकड़े मिले। पंडित जी ने कक्षा के विद्यार्थियों से पूछा तो एक ने शरत का नाम ले दिया। पंडित जी जैसे शरत को मारने आए, वह उस लड़के को धक्का देते हुए बाहर भाग गया। पंडित जी की शिकायत पर उसकी माँ ने उसे बहुत मारा। उस समय दादी ने कहा कि बहू इसे मत मारा करो। यह अभी छोटा है, इसलिए नासमझ है। एक दिन यह बड़ा होकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। वह दिन देखने के लिए वे तो जीवित नहीं होगी परंतु देख लेना उनका कहा सच होगा। शरत् ने दादी के विश्वास को आगे चलकर सच कर दिखाया।
प्रश्न 21.
यह बात कौन जानता था कि भोलू को चोट पहुँचाने के बाद शरत् कहाँ छिपा होगा ?
उत्तर :
एक दिन शरत की जलपान की छुट्टी बंद थी। उसकी निगरानी क्लास में भोलू नाम का लड़का कर रहा था। शरत को बंधन पसंद नहीं था, इसलिए उसने एक युक्ति सोची। वह भोलू के पास एक सवाल का हल पूछने गया। भोलू सवाल निकालने लगा। इतने में ही एक घटना घट गई। भोलू अपने बेंच से पास पड़े चूने के ढेर पर जा गिरा। शरत इतने में वहाँ से भाग गया। पंडित जी ने सब बच्चों को शरत् को दूँढने के लिए लगा दिया परंतु वह कहीं नही मिला। केवल एक प्राणी ऐसा था जिसे यह पता था कि इस समय शरत कहाँ मिलेगा। वह थी धीरू। धीरू उसके बारे में सब कुछ जानती थी। धीरू को पता था कि इस समय शरत जर्मीदार के आम वाले बाग में छुपा होगा।
प्रश्न 22.
‘डेहरी आन सोन’ में शरत की दिनचर्या कैसी थी ?
उत्तर :
शरत के पिता मोतीलाल को ‘डेहरी आन सोन’ में एक नौकरी मिल गई थी। शरत का पढ़ाई में मन नहीं लगता था, इसलिए पिता अपने साथ ‘डेहरी आन सोन’ ले लगाए। वहाँ पर उसका सारा समय खेलकूद में ही बीतता। वहाँ एक नहर थी जिसके किनारे पक्की खिरनियाँ बटोरता था। फंदा डालकर गिरगिट पकड़ना उसका मुख्य काम था। कभी-कभी वह घाट पर जाकर बैठ जाता और कल्पनाओं के आलजाल में डूब जाता। ‘डेहरी आन सोन’ आकर उसका स्वभाव अधिक अंतर्मुखी हो गया था। कथाशिल्पी शरतचंद्र ने इस अल्पकालिक डेहरी प्रवास को ‘गृहदाह’ में स्थान देकर उसे अमर कर दिया है।
प्रश्न 23.
शरत नयन बागदी के पीछे-पीछे क्यों गया ?
उत्तर :
शरत को मछलियाँ पकड़ने का बहुत शौक था। नयन बागदी बसंतपुर अपनी बुआ के पास गाय लेने जा रहा था। बसंतपुर में छीप बनाने के लिए अच्छा बाँस मिलता है। कहने पर नयन बागदी उसे अपने साथ लेकर नहीं जाता क्योंकि रास्ते में घना जंगल था और अँधेरा होने पर जंगल में लुटेरे आ जाते हैं। इसीलिए शरत् चुपचाप नयन बागदी के पीछे-पीछे चल पड़ा।
प्रश्न 24.
उस समय पुलिस के विषय में लोगों के क्या विचार थे?
उत्तर :
बसंतपुर से लौटते हुए अँधेरा हो चला था। अंधरे में जंगल भी अधिक भयानक हो गया था। ऐसे भयानक जंगल में लुटेर आद्मी को मारकर गाड़ देते थे और पुलिस उधर मुँह भी नहीं करती थी। गाँव के आदमी भी लुटेरों की रिपोर्ट करने थाने नहीं जाते थे, क्योंकि उन्हें यह शिक्षा मिली हुई थी कि पुलिस के पास जाना आफ़त बुलाना है। बाच के सामने पड़ने से आदमी के दैव संयोग से कभी-कभी प्राण बच सकते है. परंतु पुलिस के पल्ले पड़ने से प्राणों को कोई नहीं बचा सकता।
प्रश्न 25.
नयन बागदी ने लुटेरों का मुकाबला कैसे किया ? अपने शब्दों में लिखो।
उत्तर :
नयन बागदी और शरत गाय लेकर बसंतपुर से लौट रहे थे। नयन की जेब में शरत की दादी के लिए पाँच रुपए भी थे। वे अभी जंगल में थोड़ी दूर गए थे कि उन्हें किसी के चीखने की आवाज सुनाई दी। शरत डर से कौपने लगा। उसी समय किसी के कदमों की आवाज़ सुनाई दी। नयन ने उन लोगों से चीखकर कहा कि उसके साथ ब्राह्मण का लड़का है। यदि इसे कुछ हो गया तो वह किसी को जीवित नहीं छोड़ेगा। उधर से कोई जवाब न पाकर वे लोग आगे बढ़े। जिस व्यक्ति के चीखने की आवाज् सुनी थी वह उन्हें मृत अवस्था में मिला। वह एक भिखारी था। नयन बागदी को यह देखकर क्रोध आ गया।
उसने उन लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि उन लोगों ने एक वैष्णव भिखारी को मार डाला है, वह इस बात का उनसे बदला लेगा। लुटरे उन दोनों को डराने लगे। नयन बागदी ने निभीकता से कहा कि उसके पास रुपए भी हैं, यदि हिम्मत हो तो आकर ले जाओ। जब कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी तो वे दोनों आगे बढ़ गए। उन्होंने रास्ते में पड़े पाबड़े उठा लिए। नयन बागदी कुछ दूर गया था कि वह वापस लौट आया। वह कायरों की तरह वहाँ से जाना नहीं चाहता था। वह एक-दो लुटरों को मारकर जाना चाहता था। मारने की बात सुनकर शरत खुशी-खुशी उसका साथ देने को तैयार हो गया। वे दोनों चुपचाप पेड़ की ओट में खड़े हो गए।
लुटेरों को जब कोई आहट नहीं मिली तो वे बाहर आए और भिखारी की जेबों की तलाशी लेने लगे। एक लुंटरे ने नयन को देख लिया। उसके चिल्लाने पर सभी भाग गए परंतु चिल्लाने बाला लुटेरा पकड़ा गया। नयन ने उसे पकड़कर मारना शुरू कर दिया। शरत से भी मारने को कहा लेकिन शरत डर गया था। उसने उस लुटेर को नयन से छोड़ने के लिए प्रार्थना की। नयन बागदी उस लुटरो को छोड़कर शरत के साथ निभीकता से आगे बढ़ गया।
प्रश्न 26.
देवानंदपुर लौटने पर शरत की पढ़ाई क्यों छूट गई ?
उत्तर :
भागलपुर में नाना के परिवार में कठोर अनुरासन था। परंतु देवानंदपुर में अनुशासन के नाम पर कुछ नहीं था। उसकी पथभ्रष्टता निरंतर बढ़ती जा रही थी। शरत को उसके माता-पिता ने किसी तरह हुगली ब्रांच की चौथी श्रेणी में दाखिल करवाया। स्कूल घर से दो कोस दूर था। वहाँ पैदल जाना पड़ता था। स्कूल जाने का रास्ता भी कच्चा था। गर्मी में धूल उड़ती थी और वर्षा ऋतु में कीचड़ भर जाता था। उसका परिवार इतना गरीब था कि फ़ीस का प्रबंध करना भी मुश्किल था। परिवार का अभाव घर के आभूषण बेच देने और घर को गिरवी रखने से भी नहीं मिट सका था। शरत किसी तरह प्रथम श्रेणी के स्कूल में पहुँच गया था। उस समय तक पिता पर बहुत कर्ज चढ़ गया था। वे फ़ीस का प्रबंध नहीं कर सके थे। फ़ीस के अभाव में शरत का स्कूल छूट गया था।
प्रश्न 27.
शरत को राबिनहुड के समान परोपकारी और दुस्साहसी क्यों समझा जाता था ?
उत्तर :
शरत का स्कूल छूटने पर उसकी आवारगी बढ़ गई थी। उसके हाथ में दोधारी छुरी आ गई थी जिसे लेकर वह दिन-रात घूमता रहता था। लोग उससे भय खाने लगे थे। वह दूसरों के बागों के फल-फूल चोरी करके दोस्तों और गरीबों में बाँट देता था। दूसरों के तालाब से मछलियाँ पकड़कर भी वह दूसरों में बाँट देता था। आसपास के लोग उससे दुखी थे परंतु वह उसे पकड़कर दंड देने में असमर्थ थे।
वह फल आर महलियों के अतिरिकत किसी भी वस्तु को हाथ नहीं लगाता था। बहुत-से गरीब लोग उसकी लूट के सामान पर पलते थे। गाँवों में गरीबों की संख्या अधिक होती है। वह गरीबों को उनकी बीमारी में डॉक्टर और दवा का प्रबंध कर देता था। वह उपेक्षित, अनाश्रित और रोगियों की स्वयं भी यथाशक्ति सेवा करता था, इसलिए जहाँ कुछ लोग परेशान थे, वहीं अधिकांश लोग उससे मन-ही-मन प्यार करते थे। शरत ने कंगाल होते हुए कभी भी अपनी चिंता नहीं की, इसलिए उसे राबिनहुड के समान दुस्साहसी और परोपकारी कहा गया था।
प्रश्न 28.
शरत को कहानियाँ लिखने के लिए किसने प्रेरित किया ?
उत्तर :
शरत में कहानी गढ़कर सुनाने की जन्मजात प्रतिभा थी। वह पंद्रह वर्ष की आयु में इस कला में पारंगत हो चुका था। इस कारण उसकी ख्याति गाँच-भर में फैल चुकी थी। इसी कारण स्थानीय ज्रमींदार और गोपालदत्त मुंशी उससे बहुत स्नेह रखते थे। उनका पुत्र अतुलचंद्र शरत की कहानी गढ़ने की कला से बहुत प्रसन्न था। वह उसे छोटे भाई की तरह प्यार करता था। अतुलचंद्र उसे थियेटर दिखाने के लिए अपने साथ कलकत्ता लेकर जाता था। थियेटर दिखाने के बाद वह उस पर कहानी लिखने के लिए कहता। शरत् ऐसी बढ़िया कहानी लिखता कि अतुल चकित रह जाता था। ऐसे ही अतुल के लिए कहानी लिखते-लिखते उसने एक दिन मौलिक कहानी लिखनी आरंभ कर दी।
प्रश्न 29.
‘विलासी’ कहानी के मृत्युंजय से शरत का क्या संबंध था ?
उत्तर :
‘विलासी’ कहानी का मृत्युंजय शरत का कक्षा तीसरी का सहपाठी था। वह कायस्थ परिवार से संबंधित था। उसका चाचा के अतिरिक्त कोई रिश्वेदार नहीं था। चाचा भी उसके बाग के कारण उसका दुश्मन बन गया था। एक बार मृत्युंजय बीमार पड़ गया। उसकी खोज-खबर किसी ने नहीं ली। एक बूड़े ओझा और उसकी बेटी विलासी ने मृत्युंजय की सेवा की। मृत्युंजय ने ठीक होने पर विलासी को पत्नी बनाकर अपने घर रख लिया परंतु समाज को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने उसे समाज से बाहर निकाल दिया। मृत्युंजय विलासी के साथ जंगल मे संपेरा बनकर रहने लगा था। जीविका के लिए साँप पकड़ना और जहर उतारना सीखता था। एक दिन मृत्युंजय को जहरीला साँप काट गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के सात दिन उपरांत विलासी ने भी आत्महत्या कर ली थी। शरत को मृत्युंजय और विलासी की मृत्यु पर बहुत दुख हुआ।
प्रश्न 30.
भुवनमोहिनी ने दुबारा भागलपुर जाने का निर्णय क्यों लिया ?
उत्तर :
शरत के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी। दादी का देहांत हो चुका था। वे किसी तरह परिवार के मान की रक्षा करती आ रही थी। उनके जाने के बाद सबके सामने एक बहुत बड़ा शून्य आ खड़ा हुआ। कर्ज मिलने की भी एक सीमा थी। इस प्रकार की दरिद्रता और अपमान को सहन करने की शक्ति सीमा भुवनमोहिनी में समाप्त हो चुकी थी। भागलपुर में भी माता-पिता का देहांत हो चुका था। भाइयों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी लेकिन उन लोगों का देवानंद्पुर में भी रहना असंभव हो गया था। उन्होंने अघोरनाथ काका को चिट्ठी लिखी। अघोरनाथ काका ने उन्हें अपने पास भागलपुर बुला लिया। भागलपुर जाने के पश्चात फिर कभी वे लोग देवानंदपुर वापस नहीं आए।
प्रश्न 31.
“इस गाँव के ॠण से वह कभी मुक्त नही हो सका।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा होगा ?
उत्तर :
देवानंदपुर में रहते हुए शरत की अपने आस-पास के वातावरण को गहराई से जानने की भामता बढ़ गई थी। यहाँ उसका सारा जीवन घोर दारिद्य और अभाव में बीता था। माँ और दादी के रक्त और औसतुओं से इस गाँच के पथ-घाट भीगे हुए थे। इसी यातना की नींव में उसकी साहित्य-साधना का बीजारोपण हुआ। देवानंद्पुर में रहते हुए हर घटना और स्थिति उसके मस्तिष्क में अंकित हो गई थी जो कि आगे जाकर उसके साहित्य सुजन का आधार बनी। यहीं उसने संघर्ष और कल्पना से प्रथम परिचय प्राप्त किया। ‘शुभदा’ में वर्णित दरिदता के भयानक चित्र देवानंदपुर में रहते हुए उसके परिवार की स्थिति का वर्णन है। यह सब उसकी सूक्ष्म पर्यवेकण के कारण हुआ होगा। इसीलिए वह कभी गाँव के ऋण से मुक्त नहीं हो पारा था।
प्रश्न 32.
कथाशिल्पी शरत चंद्र ने किस प्रकार के नरक में जाने की इच्छा प्रकट की ?
उत्तर :
विलासी और मृत्युज्जय शरत् के जान-पहचान वाले थे। शरत विलासी के सेवा-भाव से बहुत प्रभावित था। उन दोनों की मृत्यु के वर्षों बाद कथा शिल्पी शरतचंद्र ने लिखा था कि मृत्युजंय की सेवा करते हुए अच्डे घर की स्त्रियों और पुरुषों ने उसका मज्ञाक उड़ाया था। उन लोगों को अच्छे घरों से संबंधित होने के कारण अवश्य ही अक्षय स्वर्ग और सती लोक मिला होगा। शरतचंद्र कहते हैं, संपेरे की लड़की की विलासी ने अपनी सेवा से एक रोगी, जो मरने की स्थिति में था, उसको ठीक करके जीत लिया था।
उसका गौरव उस समय किसी ने नहीं देखा। उस लड़की का अपनी सेवा और प्यार से किसी का दिल जीत लेना मामूली बात नहीं थी। शास्त्रों के अनुसार वह निश्चय ही नरक में गई होगी क्योंकि वह बिना शादी किए एक पुरुष की सेवा में रहने लगी थी। शरतचंद्र कहते हैं कि अब उनके जाने का समय आया और विलासी जैसे किसी व्यक्ति के साथ नरक में जाने का प्रस्ताव मिला, तो वह उस नरक में जाने से पीछे नहीं हटेंगे। उनके कहने का भाव यह था कि यदि सेवा-भाव और अत्यंत प्यार करने वाली स्ती जिस नरक में गई होगी, उस नरक में जाने में उन्हें कोई भी ऐताराज़ नहीं था।
प्रश्न 33.
लेकिन तीन वर्ष पहले का वह आना कुछ और ही तरह का था।
(क) तीन वर्ष पहले का आना कैसा था?
(ख) अब आना तीन वर्ष पहले आने से कैसे और क्यों अलग तरह का है?
उत्तर :
(स) तीन वर्ष पहले जब उसकी माँ उसे यहॉं लेकर आई थी, तो नाना-नानियों ने उस पर धन और आभूषणों की वर्षा की थी। तब नाना केदारनाथ ने उसकी कमर में सोने की तगड़ी पहनाकर उसे गोद में लिया था, क्योंकि वह उस परिवार में इस पीढ़ी का पहला लड़का था।
(ख) अब वह अपनी माँ के साथ नाना के घर इसलिए आया है क्योंकि उसके पिता परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे थे। वे किसी भी काम को टिककर नही करते थे। उसकी माता की उसके पिता से कहा-सुनी होती रहती थी। तब उसने अपने मिता केदारनाथ से याचना की और सबको लेकर यहौं आ गई।
प्रश्न 34.
नाना लोग कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे।
(क) संयुक्त परिवार से क्या तात्पर्य है? इसके क्या लाभ हैं?
(ख) वर्तमान में परिवार की क्या स्थिति है?
उत्तर :
(क) संयुक्त परिवार से तात्पर्य ऐसे परिवार से होता है, जिसमें परिवार के सभी लोग एक साथ मिलकर रहते हैं। इसमें दादा उसके पुत्र, पुत्रों का परिवार, भाई-बहन, नाती-पोते, सभी एक साथ रहते हैं। ऐसे परिवारों में की संख्या काफ़ी होती है। संयुक्त परिवार में सब एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ देते हैं तथा किसी को कष्ट में नहीं देख सकते।
(ख) वर्तमान में परिवार अत्यंत सीमित हो गए हैं। पति-पत्नी और उनके एक-दो बच्च्वों तक ही परिवार की सीमा है। दादा-दादी अलग रहते हैं। नाना-नानी से कभी-कभार मुलाकात हो जाती है। एक-दूसरे के सुख-दुख में तुरंत सहभागी नहीं बन पाते। सब अपने में ही मस्त रहते हैं।
प्रश्न 35.
उनकी मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का ही अधिकार है। प्यार, आदर और खेल से उनका जीवन नष्ट हो जाता है।
(क) उनकी से किनसे तात्पर्य है? वे बच्चों से कैसी पढ़ाई चाहते थे?
(ख) क्या आप इस मान्यता से सहमत हैं? यदि नहीं, तो क्यों?
उत्तर :
(क) उनकी से तात्पर्य शरत के नाना लोगों से है। वे चाहते थे कि बच्चे सवेरे स्कूल जाने से पहले घर के बरामदे में चिल्ला-चिल्लाकर पढ़े तथा संध्या के समय स्कूल से आने के बाद चेडी-मंडप में दीप की रोशनी में बैठकर पाठ का अभ्यास करें। नियम तोडनने वाले बच्चे को दंड दिया जाता था।
(ख) हम इस मान्यता से सहमत नहीं हैं क्योंकि निरंतर पढ़ते ही रहने से ज्ञान में वृद्धि नहीं होती। खेल भी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। खेल से परस्पर मैत्री भाव बढ़ता है तथा शरीर चुस्त रहता है। स्वस्थ शरीर से ही पढ़ाई भी अच्छी तरह से हो सकती है। बच्चों को प्यार से समझाने तथा उनकी विशेषताओं का सम्मान करने से वे अधिक मेधावी बनते हैं।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
पाठ के आधार पर ‘आवारा मसीहा’ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘आवारा मसीहा’ के लेखक ‘विष्णु प्रभाकर’ हैं। इस पाठ में ‘आवारा मसीहा’ के प्रथम पर्व ‘दिशाहारा’ का वर्णन है। दिशाहारा में कथाशिल्पी शरत्चंद्र के बाल्यकाल का वर्णन है। उनका बाल्यकाल घोर गरीबी और दूसरों के सहारे बीता। पाठ में उन सभी परिस्थितियों को भी उजागर किया गया है जो उनके रचनाकार बनने की आधारभूमि और प्रेरणास्त्रोत हैं। शरत्चंद्र के पिता मोतीलाल यायावार प्रकृति के व्यक्ति थे। उनका मन किसी भी कार्य में ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता था। इस कारण उन्होंने कई नौकरियाँ की और छोड़ी। उनका शिल्पी मन किसी की दासता को स्वीकार नहीं करता था। उन्हें नाटक, कहानी, उपन्यास आदि लिखने का शौक था।
वे रचना को लिखना आरंभ तो करते थे परंतु उसे पूरा नहीं करते थे। उन्होने कभी पूर्णता की आवश्यकता नहीं समझी थी। उनकी पत्नी भुवनमोहिनी उनके इस व्यवहार से तंग आ चुकी थी। जीजिका के सभी साधन समाप्त होने पर वह अपने पिता के पास भागलपुर जाती है। मोतीलाल घरजँवाई बन रहने लगते हैं। शरत् का लालन-पालन नाना के अनुशासित नियमों में होने लगता है। शरत् ने कभी भी नियमों की पालना नहीं की थी। उसे सभी वो कार्य करने अचे लगते थे जो नाना के परिवार में करना मना था। एक दिन नाना ने उन्हें देवानंदपुर वापस जाने के लिए कह दिया। नाना ने परिवार की अर्थिक स्थिति कमजोर हो गई थी।
द्रेवानंदपुर में शरत् पर किसी का नियंत्रण नहीं रहा जिससे उसकी पथभ्रष्टता बढ़ती गई। पढ़ाई के स्थान पर वह बागों और तलाबों पर जाकर फलों और मछलियों की लूट-पाट करने लगा था। वह लूटी चीजों को गरीबों में बाँट देता था। बह गरीबों में राबिनहुड्ड की तरह प्रसिद्ध था। उसमें अपने आस-पास के वातावरण के सूक्म्म अध्ययन की सहज प्रतिभा थी। उसने छोटी-सी उम्र में बहुत अभाव देखा था जिससे वह हर किसी के दुख को समझने लगा था।
उसके जीवन में ऐसे कई पात्र आए जो आगे चलकर उसके साहित्य स्जन का आधार बने और वे पात्र स्वर्य में अमर हो गए। दादी के मरने के बाद कर्ज मिलना बंद हो गया था। पिता ने कभी छंग से कमाया नहीं था। उसकी माँ भुवनमोहिनी एक बार फिर उसे लेकर भागलपुर चली गई थी। शरत्चंद्र ने कथाशिल्पी बनने से पहले संघर्षशील और अभावग्रस्त जीवन की हर चोट का सामना किया, जिससे ठनके जुझारु व्यक्तित्व का परिचय मिलता है।
प्रश्न 2.
“तीन वर्ष पहले का यह आना कुछ और तरह का था।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर :
शरत को नाना के घर भागलपुर में अपनी माँ भुवनमोहिनी और पिता मोतीलाल के साथ रहते हुए तीन वर्ष हो चुके थे। वह पहले भी अपनी माँ के साथ वहाँ आ चुका था। उस समय उसके नाना केदारनाथ और परिवार के अन्य सदस्य उसके आगे-पीछे घूमते थे। उसके पिता मोतीलाल यायावार प्रकृति के स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे। परिवार और जीविका का कोई साधन उन्हें एक स्थान पर ज्यादा देर के लिए बाँधकर रख नहीं सका था। नौकरी उनके शिल्पी मन को दासता लगती थी। वे कुछ दिन नौकरी करते थे,फिर किसी बात पर बड़े साहब से झगड़ पड़ते थे, जिस कारण नौकरी छोड़नी पड़ती थी।
नौकरी छोड़कर लिखने-पढ़ने बैठ जाते थे। उन्हें कहानी, उपन्यास, नाटक सभी कुछ लिखने का शौक था। उन्होंने अंत की अनिवार्यता को भी माना ही नहीं था। इस तरह मोतीलाल के व्यवहार के कारण परिवार का भरण-पोषण असंभव हो गया था। परिवार की बिगड़ती स्थिति देखकर भुवनमोहिनी ने पहले तो अपने पति मोतीलाल से काफ़ी कुछ कहा-सुना, परंतु मोती लाल पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो भुवनमोहिनी ने अपने पिता केदारनाथ से प्रार्थना की कि उसे भागलपुर रहने के लिए बुला लें। इस प्रकार तीन साल पहले भुवनमोहिनी पति और पुत्र के साथ भागलपुर पिता के घर रहने चली गई थी। किंतु इस बार उसका स्वागत उस तरह नहीं हुआ, जैसा तीन साल पहले हुआ करता था। इसी कारण लेखक ने उक्त बात कही है।
प्रश्न 3.
भागलपुर में शरत् की पढ़ाई किस प्रकार हुई ?
उत्तर :
भागलपुर में शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में दाखिल कर दिया गया। शरत् के नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए उसकी पिछली पढ़ाई की जानकारी किसी ने नहीं ली थी। देवानंदपुर में शरत् ने ‘बोधोदय’ ही पढ़ा था। यहाँ उसे, ‘ सीता वनवास, ‘चारु पाठ, ‘ ‘सद्भावसद्युरु और ‘प्रकांड व्याकरण’ जैसा साहित्य पढ़ना था। यहाँ केवल पढ़ना ही कफ़ी नहीं था, बल्कि उसकी प्रतिदिन पंडित जी के सामने खड़े होकर परीक्षा भी देनी पड़ती थी। वह कक्षा में अन्य बच्चों से पीछे चल रहा था।
यह बात उसे सहन नहीं होती थी। इसलिए उसने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरंभ कर दिया। उसकी मेहनत सफल हुई और जल्दी ही उसकी गिनती कक्षा के अच्छे विद्यार्थियों में होने लगी थी। उसके छोटे नाना अघोरनाथ का लड़का मर्णींद्र उसका सहपाठी था। उन दोनों को घर पर अक्षय पंडित पढ़ाने आते थे। उनके अनुसार विद्या का निवास गुरु के डंडे में होता है। छत्रवृत्ति की शिक्षा पास करने के उपरांत उसे अंग्रेजी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। वहाँ वह अपनी कक्षा में प्रथम आया था जिससे स्कूल और घर में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई थी। शरत् जब तक भागलपुर रहा, उसकी पढ़ाई नियमित रूप से चलती रही।
प्रश्न 4.
गांगुली परिवार के घर का वातावरण कैसा था ?
उत्तर :
गांगुली परिवार आरंभ में बहुत गरीब था। उनके परिवार ने समाज में संपन्नता और प्रतिष्ठा अपने परिश्रम और अनुशासिन जीवन से प्राप्त की थी। गांगुली परिवार अनुशासित परिवार था। उनके यहाँ खेलना, गप्पबाजी करना, तंबाकू पीना और साहित्य पढ़ना मना था। उनके यहाँ मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार होता है, खेलने से बच्चे बिगड़ जाते हैं। इसलिए सवेरे स्कूल जाने से पहले बच्चे घर के बरामदे में चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ते थे और संध्या को स्कूल से लौटकर रात्रि भोजन तक चंडी मंडप में दीये के चारों ओर बैठकर पढ़ते थे। जो नियम तोड़ता था, उसे आयु के अनुसार दंड दिया जाता था।
दंड में चाबुक खाना ही नहीं था बल्कि अस्तबल में भी बंद होना पड़ता था। नाना अघोरनाथ और मामा ठाकुरदास कट्टरता और कठोरता के सच्चे प्रतिनिधि माने जाते थे। एक बार शरत् और मणि गंगा-स्नान करने गए थे। नाना अघोरनाथ को इसका पता चल गया था। दोनों के घर लौटने पर मणि की बहुत पिटाई हुई। उसे ठीक होने में पाँच-सात दिन लग गए थे। शरत् को छोटी नानी ने कहीं छिपा दिया था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि गांगुली परिवार के घर का वातावरण कठोर नियमों में बँधा हुआ था। नियमों को तोड़ने वाले को दंड अवश्य दिया जाता था।
प्रश्न 5.
बालक शरत् शरारत करने के बाद पकड़े जाने पर कैसे बच निकलता था ? कोई एक उदाहरण देकर बताएँ।
उत्तर :
बालक शरत् बहुत शरारती था। वह असीम साहस और सूझ-बूझ से पकड़े जाने पर बच निकलता था। स्कूल में अक्षय पंडित को तंबाकू खाने की आदत थी। वह दो घंटे पढ़ाने के बाद सेवक जगुआ की पाठशाला में तंबाकू खाने पहुँच जाते थे। उनकी अनुपस्थिति में शरत् की प्रेरणा से दूसरे छात्र स्कूल की घड़ी को दस मिनट आगे कर देते थे। कई दिन तक उनकी चोरी पकड़ी नहीं गई तो बच्चों का साहस बढ़ गया। अब वे घड़ी को आधा घंटा आगे करने लगे थे। कभी-कभी घड़ी एक घंटा भी आगे हो जाती थी।
जिस कारण एक घंटे पहले छुट्टी हो जाती थी। बच्चों के अभिभावकों ने पंडित अक्षय से शिकायत की। पंडित जी ने कहा कि घड़ी की देखभाल तो वह स्वयं करते हैं। पंडित जी ने कहने को तो कह दिया, परंतु शंका उनके मन में भी होने लगी थी। इसलिए इस रहस्य का पता लगाने के लिए एक दिन पंडित जी पाटशाला से जल्दी आ गए। उन्हॉने देखा कि बच्चे एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर घड़ी को आगे कर रहे हैं। उनको देखकर सब बच्चे भाग गए। वहॉं केवल एक बालक शरत् रह गया था।
वह भले लड़के का अभिनय करते हुए बैठा रहा। उसने पंडित जी से कहा कि उसे कुछ मालूम नहीं है। वह तो चुपचाप बैठा सवाल निकाल रहा था। पंडित जी और अन्य लोग कभी भी यह नहीं जान सके कि इस घटना का निदेशक शरत् ही था। पंडित जी का उस पर विश्वास गहरा हो गया था। इससे हम कह सक्ते हैं कि बालक शरत् शरारत करने के बाद अपनी सूझ-बूझ से पकड़े जाने पर बच निकलता था।
प्रश्न 6.
बालक शरत का तपोवन कैसा था ?
उत्तर :
बालक शरत कभी-कभी खेलते-खेलते गायब हो जाता था। बच्चे उसे ढूँहने लगते परंतु वह कहीं नहीं मिलता था। फिर अचानक स्वर्य प्रकट हो जाता था। पूछने पर बताता कि वह तपोवन गया था। उसने तपोवन का रहस्य किसी को नहीं बताया, परंतु सुंद्र मामा से वह कुछ नहीं छिपाता था। इसका कारण यह था कि उसकी माँ ने सुंद्र को दूध पिलाया था। एक दिन वह सुंद्र को कई तरह की कसम दिलवाकर अपने साथ तपोवन ले गया। शरत् का तपोवन घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिलकुल पास एक कमरे के नीचे था। उस जगह को नीम और करॉदे के पेड़ों ने घेर रखा था। उस स्थान को नाना प्रकार की लताओं ने ढक रखा था जिससे वहाँ प्रवेश करना कठिन था।
शरत् ने उन लताओं को बड़ी सावधानी से हटाया और सुंद्र को लेकर अंदर चला गया। वहॉं थोड़ी-सी साफ़ जगह थी। हरी-भरी लताओं के भीतर से सूर्य की उज्ञल किरणें छन-छनकर आ रही थीं, जिस कारण चारों ओर स्निग्ध हरित प्रकाश फैल गया था। उस स्थान को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे स्वप्न लोक में आ गए हों। वहाँ बैठने के लिए एक बड़ा-सा पत्थर था। पत्थर के नीचे खर-सोता गंगा बह रही थी।
ठंडी-ठंडी पवन शरीर को पुलकित कर रही थी। सुंँंद्र को वह जगह देख ऐसा लगा, जैसे वह सच में ही किसी तपोवन में आ गया हो। प्रकृति का ऐसा साँद्य थके तन-मन को स्टूर्ति प्रदान करता है। सुरेंद्र ने शरत् के तपोवन में बैठकर प्रतिज्ञा की कि वह सदा साँद्य की पूजा करेगा। वह जीवर-भर अन्याय के विर्द्ध लड़ेगा तथा कभी भी छोटा काम नहीं करेगा। शरत् के तपोवन ने सुंरंद का जीवन बदल दिया था।
प्रश्न 7.
राजू के परिवार को बंगाली समाज से क्यों बहिष्कृत किया गया था ? राजू और शरत की मित्रता कैसे हुई ?
उत्तर :
राजू उर्फ़ राजेंद्रनाथ के पिता रामरतन मजूमदार डिस्टिक्ट इंजीनियर होकर भागलपुर आए थे। उनका घर गांगुली परिवार के घर के पास था। दोनों परिवारों में किसी बात को लेकर मनमुटाव था। रामरतन ने अपने सात बेटों के लिए सात कोठियाँ बनवाईं, परंतु बंगाली समाज में उनके परिवार को सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता था। इसका कारण यह था कि वे आधुनिक समाज के पक्ष में थे। वे चीनी-मिट्टी के प्यालों में खाना खा लेते थे। मुसलमान के हाथ से पानी पी लेते थे।
छोटे भाई की विधवा पत्नी से बात करने में उन्हें कोई परहेज नहीं था। वे मोजे पहनते, दाढ़ी रखते, क्लब जाते और नए समाज की बातें करते थे। उनकी इन्हीं बतों के कारण बंगाली समाज ने उन्हें कभी क्षमा नहीं किया था। उनके परिवार में हर किसी को आजादी थी। राजू भी इन्हीं आजाद विचारों में पला था, इसलिए उसमें साहस था। राजू शरत् की तरह पतंगबाजी के द्वंद्वयुद्ध में पारंगत था। दोनों एक-दूसरे को हराने की कामना करते थे। राजू ने अपने पैसों से पतंग और बढ़िया माँझा खरीदा।
शरत् ने अपना माँझा घर में ही तैयार किया। शनिवार की शाम को शरत की गुलाबी पतंग और राजू की सफ़ेद पतंग आसमान छूने लर्गी। दोनों में पेंच लगे और राजू की पतंग कट गई। राजू ने उसी शाम अपना माँझा गंगा में अप्पित कर दिया। राजू और शरत् एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हुए। राजू शरत् की स्थिर, धीर और शांत बुद्धि देखकर उससे मित्रता करने को उत्सुक हो गया। राजू ने शरत् के उन गुणों को सराहा, जिन्हें उसके परिवार ने कभी पहचचाना ही नहीं था। दोनों में मित्रता का एक कारण यह भी था कि दोनों का संगीत और अभिनय के प्रति प्रेम था। राजू का साथ उसके कार्यों के लिए प्रेरणा-स्रोत बन गया।
प्रश्न 8.
देवानंदपुर में शरत के बचपन की मित्र कौन थी ? उन दोनों में कैसी मित्रता थी ? कथाशिल्पी शरत चंद्र ने अपनी बालसंगिनी का वर्णन साहित्य में किस प्रकार किया है ?
उत्तर :
देवानंदपुर गाँव के स्कूल में पढ़ते हुए शरत् की मित्रता अपने मित्र की बहन धीरू से हुई। यह मित्रता इतनी गहरी हो गई कि दोनों हर जगह इकट्ठे दिखाई देते थे। दोनों एक-दूसरे को जितना चाहते थे, उतना ही झगड़ते थे। नदी या तालाब पर मछली पकड़ना, बाग में से फल चुराना, पतंग के साजो-सामान तैयार करना, वन, जंगल, घूमना आदि बाल-सुलभ कामों में धीरु शरत् की संगिनी थी। धीरु करॉँदों की माला तैयार करती और शरत् को अर्पण कर देती थी। दोनों में रहस्यमय संबंध था। धीरू शरत के हर कार्य को जानती थी। जब वह शरारत करके भागता था तो उसके छिपने के स्थान का धीरू के अतिरिक्त किसी को भी मालूम नहीं होता था।
शरत धीरू पर अपना पूरा अधिकार रखता था। वह उसे मारता भी था, परंतु इस पर भी दोनों में मित्रता कम नहीं होती थी। वह मित्रता निरंतर प्रगाढ़ ही होती गई। कथाशल्पी शरत्चंद्र ने बाद में शैशव की इस संगिनी को आधार बनाकर उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन किया था। ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी, ये सब धीरू ही का तो विकसित और विराट रूप थे। ‘देवदास’ में तो शरत्चंद्र ने अपने बंचपन को मूर्त रूप दे दिया था। शरत्चंद्र ने अपने उपन्यासों की नायिकाओं के माध्यम से अपनी बालसंगिनी को सद्व याद रखा था।
प्रश्न 9.
शरत को ऐसा क्यों लगता था कि नीरु दीदी ने स्वयं को सजा दी है ?
उत्तर :
शरत् को बचपन से ही अपने आस-पास के वातावरण के सूक्म पर्यवेक्षण की प्रतिभा थी। वह जो देखता था, उसकी गहराई में जाने का प्रयल करता था। उसके गाँव में नीरू नाम की बाल विधवा रहती थी। वह ज्राह्मण परिवार से थी। शरत उसे दीदी कहकर बुलाता था। बत्तीस साल की उम्र तक उसके चरित्र को कलंक छू नहीं पाया था। वह बहुत सुशीला, परोपकारिणी, धर्मशीला और कर्मर होने के कारण गाँव-भर में प्रसिद्ध थी। वह गाँव वालों की रोग में सेवा, दुख में सांत्चना, अभाव में सहायता और आवश्यक्ता पड़ने पर महरी का काम करने के लिए भी तैयार रहती थी। गाँव में एक भी घर ऐसा नहीं था जिसने उससे सहायता प्राप्त न की हो।
एक बार गाँव के स्टेशन का परदेसी मास्टर उसके जीवन को कलंकित कर चला गया। उस समय गाँव वाले उसके द्वारा किए गए सभी उपकार भूल गए और लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया। वह एकदम असहाय हो गई थी। वह बीमार रहने लगी थी। उसकी ऐसी स्थिति में भी कोई पानी की बूँद तक उसके मुँह में डालने नहीं आया। वह गाँव वालों के लिए ऐसी हो गई थी जैसे कभी थी ही नहीं। शरत् को भी वहाँ आने की मनाही थी, परंतु शरत ने कभी किसी की बात नहीं मानी थी। इसलिए वह वहाँ जरूर आता था और जितना बनता था दीदी की सेवाटहल कर जाता था।
नीरू दीदी ने गाँव वालों से ऐसा अपमानित दंड पाकर भी कभी उनसे शिकवा-शिकायत नहीं की थी। वह अपने द्वारा किए गए कार्य को लज्जास्पद मानती थी इसलिए स्वर्य को अपराधी मानते हुए हैंसते-हैंसते दंड स्वीकार कर लिया था। शरत का चिंतातुर मन यह बात समझ गया था कि गाँव के लोग तो उपलक्ष्य मात्र थे। दीदी ने अपने अपराध का दंड स्वयं ही अप्ने को दिया था। उसने सबको माफ़ कर दिया परंतु स्वयं को वह मरते दम तक क्षमा नहीं कर पाई थी। इसलिए शरत को लगता था कि दीदी ने स्वयं को सज्ञा दी थी।
प्रश्न 10.
“पिता का यह अधूरापन भी उसकी प्रेरक शक्ति बन गया।'” लेखक ने ऐसा क्यों कहा ?
उत्तर :
शरत के पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वपदर्शी व्यक्ति थे। उन्हें परिवार और जीविका का कोई भी धंधा कभी बाँधकर नहीं रख सका था। मोतीलाल को कहानी, उपन्यास, कविता, नाएक सभी कुछ लिखने का शौक था। उनकी रचना का आरंभ जितना महत्वपूर्ण होता था अंत उतना ही महत्चहीन होता था। उन्होंने अंत की अनिवार्यता को कभी भी स्वीकार नहीं किया था। आरंभ की रचना को बीच में ही छोड़कर नाई रचना आरंभ कर देते थे। ऐसा लगता था, जैसे उनका आदर्श बहुत ऊँचा था या फिर उनमें अंत तक पहुँचने की क्षमता नहीं थी। वह कभी कोई भी रचना पूरी नहीं कर सके थे। उनके सभी कार्य अधूरे रह जाते थे।
शरत ने बड़े होकर उनकी लिखी हुई अधूरी कहानियाँ पिता की टूटी हुई अलमारी से खोज निकाली थी। उसने उत्सुक होकर अपने पिता द्वारा लिखी कहानियों को पढ़ना शुरू किया तो अंत तक पहुँचने का कोई मार्ग उन रचनाओं में नहीं मिला था। जिससे वह परेशान हो उठता था कि बाबा ने इन कहानियों को पूरा क्यों नहीं किया ? यदि पूरा करते तो कहानी का अंत कैसा होता ? यह सोच-सोचकर वह कहानियों के अंत सोचता था। इसी अंत की खोज ने और आसपास के वातावरण को जानने की इच्छा ने शरत को कथाशिल्पी शरत्चंद्र बना दिया। इसी कारण लेखक ने कहा, “पिता का यह अधूरापन भी उसकी प्रेरक शक्ति बन गया।”
प्रश्न 11.
नीचे शरतचंद्र के चरित्र की कुछ विशेषताएँ दी गई हैं, पाठ के आधार पर इन्हें सिद्ध कीजिए-संवेदनशील, प्रतिभाशाली, दुस्साहसी, प्रकृतिप्रेमी, परोपकारी, नृढ़-निश्चयी।
उत्तर :
कथाशिल्पी शरतचंद्र के चरित्र का वर्णन करना सरल नहीं है। लेखक के अनुसार पाट के आधार पर हम उनके चरित्र की कुछ विशेषताओं का वर्णन कर रहे हैं। वे निम्न प्रकार से हैं –
(i) संवेदनशील – कथाशिल्पी शरत्चंद्र अपरिसीम संवेदनशील थे। यह संवेदना उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थी। वे किसी को भी दु:खी देखते तो स्वयं दुःखी हो उठते थे। उसके दुख को दूर करने का उपाय करते थे। उनके लिए कोई भी छोट-बड़ा नहीं था। सबका दु:ख उनके लिए समान था। शास्त्रों के विरूद्ध चलने पर उन्हें नरक में जाना भी मंजूर था, परंतु किसी को दु:खी देखना नहीं। उनकी इन्हीं संवेदनाओं के सूक्ष विवेचन की तीत्र शकित ने उन्हें महान कहानीकार बना दिया।
(ii) प्रतिभाशाली – शरतचंद्र में प्रतिभा कूट-कूटकर भरी हुई थी। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं था, जिस पर उनका अधिकार नहीं था। भागलपुर नाना के यहाँ उन्हें अपनी पढ़ाई से आगे वाली कक्षा में दाखिल करवा दिया था। उन्होंने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से कुछ ही दिनों में उस कक्षा के सारे विषय समझ लिए थे और उनकी गिनती अच्छे बच्यों में होने लगी थी। छात्रवृत्ति की शिक्षा पास करने पर उन्हें अंग्रेज्री स्कूल में दाखिल करवाया गया। वहाँ भी उसकी गिनती अच्छे विद्यार्थियों में होने लगी थी।
गुरुजनों के मध्य उसका विशेष स्थान बन गया था। नाना के यहाँ कई प्रकार के कार्य करना मना था। वह उन कायों को इस प्रकार करता था जिसका किसी को पता भी नहीं चलता था। उसने अपना शरीर बनाने के लिए मामा से छुपकर अखाड़ा बना रखा था। कहानी बनाकर सुनाने की प्रतिभा जन्मजात थी। उसकी इस प्रतिभा को अतुल चंद्र ने पहचाना और उसे लिखने के लिए प्रेरित किया।
(iii) दुस्साहसी – बचपन का शरत बड़ा दुस्साहसी था। उसे वह सभी कार्य करने पसंद् थे जिन्हें करने के लिए मना किया जाता था। अकेले ही डोंगी लेकर देवानंदपुर से कृष्पपुर अखाड़े में चला जाता था। बाग से सबके लिए फल चुराकर लाना और गंगा घाट से मछली पकड़ने में उसे डर नहीं लगता था। छोटा-सा बालक शरत अकेले ही नयन बागदी के पीछे-पीछे जंगल पार करके उसके साथ बसंतपुर पहुँच गया था। उसमें डर का नाम भी नहीं था। वह अपने दुस्साहसी स्वभाव के कारण गरीब लोगों में प्रिय था। उसके इसी स्वभाव के कारण लोगों में यह बात फैल गई थी कि वह चोर-ड्डाकुओं के दल में चला गया है।
(iv) प्रकृति-प्रेमी – शरत्चंद्र को अपने पिता की तरह प्रकृति से बहुत प्यार था। उसने भागलपुर में अपना एक उपवन बना रखा था जिसमें तरह-तरह के फूल लगा रखे थे तथा उसमें छोटा-सा ताल बना रखा था जिस पर टूटा हुआ शीशा लगा हुआ था। उस शीशे पर मिट्टी पोत रखी थी। जब कोई उपवन देखने आता तो वह शीशे से मिट्टी हटाकर उसको आश्चर्यचकित कर देता था। बालक शरत् ने अपने लिए एक तपोवन बना रखा था। गंगा के पास नीम और करौँदे के पेड़ों और नाना प्रकार की लताओं से ढका एक स्थान था जहाँ सूर्य की रोशनी छन-छन कर आती रही थी जिससे स्निभ हरित प्रकाश चारों ओर फैल रहा था। वहाँ मंद-मंद शीतल पवन बहती थी। वहाँ जाकर शरत को बैठना अच्छा लगता था। इन बातों से पता चलता है कि शरत् बचपन से ही प्रकृति-प्रेमी था।
(v) परोपकारी – शरतचंद्र स्वभाव से परोपकारी था। उन्हें बचपन से ही दूसरों के लिए कार्य करना और अपना धन दूसरों का देना अच्छा लगता था। वह खेल में जितना भी सामान जीतता था वह सभी बच्चों में बाँट देता था। देवानंदपुर में वह गरीब लोगों में राबिनहुड की तरह प्रसिद्ध था। वह लोगों के बागों से फल चुराकर और ताल से मछलियाँ पकड़कर गरीब लोगों में बाँट देता था। वह गरीब बीमार व्यक्ति के इलाज के लिए भी सदा तैयार रहता था। अँधेरी रातों में मीलों दूर शहर से डॉक्टर लाना, दवा लाना जैसे कार्य करने में पौछे नहीं हटता था। जहाँ उसके दुस्साहसी स्वभाव से लोग दुखी थे, वहीं कुछ लोग उसके परोपकारी स्वभाव से प्रसन्न भी।
(vi) दुढ़-निश्चयी – शरत् दृढ़-निश्चयी था। बालक शरत जिस कार्य को करने का निश्चय कर लेता था, उसे अवश्य पूरा करता था। भागलपुर के स्कूल में दाखिल होने से पहले देवानंदपुर में उसने केवल ‘बोधोदय’ तक की शिक्षा प्राप्त की थी। भागलपुर में उसे साहित्य पढ़ना पड़ा जिससे वह क्लास में पीछे रह गया था। उसे क्लास में पीछे रहना अच्छा नहीं लगा। उसने क्लास में अच्छे विद्यार्थियों की गिनती में आने का दृढ़ निश्चय किया और परिश्रमपूर्वक पढ़ने लगा, जिस कारण उसकी गिनती अच्छे बच्चों में होने लगी। लेखक के अनुसार बालक शरत गुणों का खज्ञाना था। अपने इन्हीं गुणों के कारण वह आगे चलकर एक महान कथाशिल्पी बना।