विद्यापति के पद Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 9 Summary
विद्यापति के पद – विद्यापति – कवि परिचय
प्रश्न :
कवि विद्यापति के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी रचनाओं एवं भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : विद्यापति का जन्म 1380 ई. में मधुबनी (बिहार) के बिसपी गाँव के ऐसे परिवार में हुआ जो विद्या और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। उनके जन्मकाल के संबंध में प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। उनके रचनाकाल और आश्रयदाता के राज्यकाल के अनुसंधान के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु वर्ष का अनुमान किया गया है। विद्यापति मिथिला नरेश राजा शिवसिंह के अभिन्न मित्र, राजकवि और सलाहकार थे।
विद्यापति बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के वे प्रकांड पंडित थे। उन्होंने संस्कृत, अवहट्ट (अपभ्रंश) और मैधिली-तीन भाषाओं मे रचनाएँ कीं। इसके अतिरिक्त उन्हें कई समकालीन भाषा-उपभाषाओं का भी ज्ञान था।
विद्यापति-के पिता गणपति ठाकुर राजा गणेश्वर प्रसाद के सभासद् थे। विद्यापति अपने पिता के साथ राज-दरबार में आया-जाया करते थे। विद्यापति के गुणों पर मुग्ध होकर राजा शिवसिंह ने बिसपी गाँव कवि विद्यापति को दान-स्वरूप दिया था। इसका उल्लेख एक ताम्रपत्र पर भी है। विद्यापति के वंशधर बहुत समय तक इसी गाँव में रहे। विद्यापति की पत्नी का नाम चंदलदेइ या चंपति देवी बताया जाता है। राजा गणेश्वर की मृत्यु के बाद विद्यापति को बहुत समय तक निराश्रित घूमना पड़ा था।
विद्यापति को मिथिला के राजा कीर्तिसिंह का आश्रय और संरक्षण प्राप्त हो गया था। इसके बाद ही कवि ने कीर्तिसिंह की प्रशंसा में ‘कीर्तिलता’ की रचना की। उस समय मिथिला में अशांति और अराजकता थी। अत: उन्होंने इस रचना में वीर रस का ही प्रयोग किया और अपभ्रंश में इसे लिखा। यह लोकभाषा थी। बाद में कीर्तिसिंह के प्रेम-प्रसंगों को लेकर ‘कीर्तिपताका’ की रचना की। राजा देवसिंह की जीवित अवस्था में ही विद्यापति को शिवसिंह और उनकी पत्नी लखिमादेवी की ओर से पूर्ण सम्मान प्राप्त होने लगा था। लखिमा देवी परम सुंदरी, विदुषी एवं कवयित्री थी।
विद्यापति दरबारी कवि अवश्य थे, किंतु उन्होंने अपने को चारण नहीं बनाया। वे राजा शिवसिंं के अंतरंग मित्र थे। वे अपने समवयस्क युवा राजा और युवती रानी लखिमा देवी के समक्ष जिन गीतों का सस्वर पाठ करते थे उनमें प्रायः राधा-कृष्ण के प्रेम, रूपासक्ति, मान और काम-कला के विविध पक्षों को स्पष्ट किया गया है।
शिवसिंह के निधन के बाद कवि विद्यापति की स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई। प्रणय, मांसल-सौंदर्य, काम-मुद्राएँ आदि सब रंगीन दुनिया चूर-चूर हो गई। मिलन के मादक गीतों के स्थान पर विरह के स्वर फूट पड़े। इस प्रकार विद्यापति ने अपने जीवन में पूर्ण सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करके अंतिम अवस्था में इस नश्वर शरीर को 1460 ईे. में गंग में अर्मण कर दिया।
रचनाएँ : विद्यापति ने संस्कृत, अपश्रंश और मैथिली में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। संस्कृत में उनकी रचनाओं की संख्या 11 मानी जाती है। इनमें.प्रमुख हैं – भू-परिक्रमा (राजा देवसिंह की आज्ञा से लिखी गई), पुरुष परीक्षा (राजा शिवसिंह की आज्ञा से), लिखनावली (पत्र-व्यवहार की रीति का वर्णन), शैवसर्वस्वसार (महाराजा पद्यसिंह की पत्नी विश्वास देवी की आज्ञा से), वान वाक्यावली (राजा नरसिंह देव की पत्नी धीरमति देवी की आज्ञा से) आदि।
अपभ्रंश में कीर्तिलता (महाराजा कीर्तिसिंह की कीर्ति का बखान), ‘कीर्ति पताका’ (अवहट्ट भाषा में) भी शिवसिंह की कीर्ति हो।
मैथिली में रचित ‘विद्यावती की पदावली’ में कवि के बाल्यावस्था से मृत्युपर्यत तक की कविताओं का संग्रह है। तालपत्र पर लिखी कविताओं का एक संग्रह मिथिला में उपलब्ध हुआ है।
वे आदिकाल और भक्तिकाल के संधि-कवि कहे जा सकते हैं। उनकी कीर्तिलता और कीर्तिपताका जैसी रचनाओं पर दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य-परंपरा का प्रभाव है। उनकी पदावली के गीतों में भक्ति और प्रेम-सौंदर्य की गूँज है। विद्यापति की पदावली ही उनके यश प्रमुख स्रोत का है। वे हिंदी साहित्य के मध्यकाल के पहले ऐसे कवि हैं जिनकी पदावली में जन-भाषा में जन-संस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है।
भाषा-शैली : महाकवि विद्यापति का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। वे संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर देशी शब्दों का प्रयोग करते थे। पदावली में उन्होंने कर्ण-कटु शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। विद्यापति शब्दों के पारखी थी। उन्हें ज्ञात था कि किस स्थान पर कौन सा शब्द प्रभावोत्पादक हो सकता है। कहावतों के प्रयोग में विद्यापति सिद्धहस्त थे। विद्यापति की पदावली में मैथिली भाषा का प्रयोग है, पर उनकी भाषा में अरबी-फारसी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं, जो स्वाभाविक ही हैं।
संक्षेप में कहा जाए तो इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है कि संपूर्ण हिंदी साहित्य में विद्यापति उस सुललित, मधुर, सौंदर्यमयी काव्य-भाषा के जनक हैं जिसका अनुसरण कर सूर आदि परवर्ती कवियों ने काष्य रस की अजस्र मधुधारा प्रवाहित की थी। समस्त साहित्य में विद्यापति का सा भाषा-सौंदर्य अन्यत्र दुर्लभ है।
मिथिला क्षेत्र के लोक-व्यवहार में और सांस्कृतिक अनुष्ठानों में उनके पद इतने रच-बस गए हैं कि पदों की पंक्तियाँ अब वहाँ के मुहावरे बन गई हैं। लोकानुरंजन, पद-लालित्य, मानवीय-प्रेम और व्यावहारिक जीवन के विविध रंग इन पदों को मनोरम और आकर्षक बनाते हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम के माध्यम से लौकिक प्रेम के विभिन्न रूपों का चित्रण, स्तुति-पदों में विभिन्न देवी-देवताओं की भक्ति, प्रकृति संबंधी पदों में प्रकृति की मनोहर छवि रचनाकार के अपूर्व कौशल, प्रतिभा और कल्पनाशीलता की परिचायक है। उनके पदों में प्रेम और सौंदर्य की अनुभूति की जैसी अभिव्यक्ति हुई है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।
Vidyapati Ke Pad Class 12 Hindi Summary
इस पाठ्यपुस्तक में विद्यापति के तीन पद लिए गए हैं। पहले में विरहिणी के बुदय के उद्गारों को प्रकट करते हुए उन्होंने उसको अत्यंत दुःखी और कातर बताया है। उसका हृदय प्रियतम द्वारा हर लिया गया है और प्रियतम गोकुल छोड़कर मधुपुर जा बसे हैं। कवि ने उनके कार्तिक मास में आने की संभावना प्रकट की है। इसमें नायिका विरह की असह्भ पीड़ा झेल रही जान पड़ती है। वह अपने दारुण दुःख के बारे में किसी से कुछ कह भी नहीं सकती। उसकी बात का कौन विश्वास करेगा।
दूसरे पद में प्रियतमा सखि से कहती है कि मैं जन्म-जन्मांतर से अपने प्रियतम का रूप ही देखती रही परंतु अभी तक नेत्र संतुष्ट नहीं हुए हैं। उनके मधुर बोल कानों में गूँजते रहते हैं। नायिका प्रियतम के पास रहकर भी अतृप्ति का अहसास करती रहती है। इसका कारण है प्रेम में नित्य नवीनता का होना। इससे उत्सुकता बनी रहती है। इस परिवर्तित प्रेम-रूप का वर्णन करना सहज नहीं है।
कविता के तीसरे पद में कवि ने विरहिणी प्रियतमा का दुःखभरा चित्र प्रस्तुत किया है। दुःख के कारण नायिका के नेत्रों से अश्रुधारा बहे चले जा रही है जिससे उसके नेत्र खुल नहीं पा रहे। वह विरह में क्षण-क्षण क्षीण होती जा रही है। अब तो उसके लिए उठ-बैठना तक कठिन हो गया है। वह वियोग की चरमावस्था में है।
विद्यापति के पद सप्रसंग व्याख्या
1. के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुःख रे भेल साओन मास्।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुःख दारुन रे जग के पतिआए।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥
शब्दार्थ : के = कौन। पतिआ – पत्र, चिट्डी। लए जाएत = ले जाएगा। हिय = हृदय। पिअतम = प्रियतम। हिए = हृयय। सहए = सहना। असह = असह्। भेल = हुए। साओन = सावन। एकसरि = एकाकी। पिआ = पिया। रहलो = रहा। अनकर = अन्यतम, दूसरे का। वारुन = कठोर। के पतिआए = कौन विश्वास करेगा। हरि = कृष्ण। हरि लय गेल = हर कर ले गए। तेजि = त्यागकर। मधुपुर = मथुरा। अपजस = अपयश। आओत = आएगा। मनभावन = प्रियतम। एहि = इसी। कातिक = कार्तिक।
प्रसंग : प्रस्तुत पद आदिकाल के प्रसिद्ध कवि विद्यापति द्वारा रचित ‘पदावली’ से अवतरित है। इसे विरह शीर्षक से लिया गया है। इसमें नायिका की विरहावस्था का मार्मिक चित्रण किया गया है। नायिका का प्रियतम गोकुल को छोड़कर मधुपुर (मधुरा) जा बसा है। उसे कार्तिक मास में उसके लौट आने की संभावना है।
व्याख्या : सावन मास चल रहा है। विरहिणी राधा अपनी सखी से कह रही है-हे सखि! ऐसा कौन व्यक्ति है जो प्रियतम तक मेरा पत्र ले जाएगा। सावन का महीना है। मेरा हृदय वियोग के असह्ग दु:ख को सह नहीं पा रहा है। प्रिय के बिना इस सूने घर में मुझसे एकाकी नहीं रहा जाता। हे सखि! ऐसा कौन व्यक्ति है जो दूसरे के कठोर दुःख पर विश्वास कर सके। श्रीकृष्ण मेरे मन को हरकर अपने साथ ले गए हैं और उनका मन भी उंज साथ चला गया है अर्थात् उनका ध्यान मेरी ओर नहीं रहा। वे गोकुल को छोड़कर मथुरा में जा बसे हैं। इस प्रकार उन्होंने कितना ही अपयश ले लिया है। कवि विद्यापति कहते हैं-हे सुंदरी! प्रिय के आने की आशा रखो। इसी कार्तिक मास में तुम्हारे प्रियतम तुम्हारे पास आ जाएँगे।
विशेष :
- इस पद की नायिका प्रोषितपतिका है।
- प्रिय-वियोग में सावन मास कष्टकर प्रतीत होता है।
- ‘हरि हर’ में यमक अलंकार है।
- ‘सखि ‘पतिआए’ में अप्रस्तुत प्रशंसा है।
- प्रस्तुत पद में औत्सुक्य और दैन्य भावों की प्रबलता है।
- ‘धनि धरु’, ‘मोर मन’ में अनुप्रास अलंकार है।
- भाषा : मैथिली।
- रस : वियोग श्रृंगार रस।
2. सखित है, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।
सेहो मधुर बोल म्रवनहि सूनल सुति पथ परस न गेल।।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।
शब्दार्थ : कि पूछसि = क्या पूछती है। मोय = मेरा, मुझसे। सेह = वही। पिरिति – प्रीति। बखानिअ = वर्णन करने से। तिल-तिल = क्षण-क्षण। नूतन = नई। जनम अवधि = जीवन भर। निहारल = निहारा, देखा। तिरपिति = तृप्ति। भेल = हुए। सेहो = वही, उसी को। मधुर बोल = मीठी वाणी। स्रवनहि = कानों से। सूनल = सूना। सुति पथ = कानों का रास्ता। परस = स्पर्श। कत = कितनी। मधु जामिनी = वसंत की सुहावनी रातें। रभस = कामक्रीड़ा। गमाओलि = गँवाई, व्यतीत की। बूझल = जान सकी। कइसन = कैसी। केलि = रति क्रीड़ा। हिअ = हृदय। राखल = रखा। तइओ = तो भी। जुड़ला न गेल = नही जुड़े, तृप्त नहीं हुआ। बिद्गध = विदगध, दुःखी। रस अनुमोदिए = रस का उपभोग करते हैं। पेख = देखना। जुड़ाइते = जुड़ाने के लिए, तृप्त होने के लिए। मीलल = मिला।
प्रसंग : प्रस्तुत पद आदिकाल के प्रसिद्ध कवि विद्यापति द्वारा रचित ‘विद्यापति पदावली’ से अवतरित है। यह ‘भावोल्लास’ प्रकरण से लिया गया है। नायिका और उसकी सखियाँ एक स्थान पर बैठी हुई हैं। सखियाँ नायिका राधा से उसकी प्रेमानुभूति को जानना चाहती हैं। उसने कृष्ण से जो प्रेम किया है, वह कैसा है ? नायिका उनकी जिजासा को संतुष्ट करती हुई उस प्रेम का वर्णन करती है।
व्याख्या : हे सखी! तू मुझसे मेरे प्रेम-अनुभव (मिलन सुख) के बारे में क्या पूछती है अर्थात् तुझे उस प्रेमानुभव के बारे में क्या बताऊँ ? इसके आनंद और स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। यदि उस प्रेम तथा अनुराग का वर्णन किया जाए तो वह क्षण-प्रतिक्षण नवीन-ही-नवीन दिखाई पड़ता है। अतः उसका वर्णन करना कोई सरल काम नहीं है। वर्णन तो स्थिर वस्तु का किया जा सकता है। मैं तो जीवन-भर कृष्ण के रूप को टकटकी बाँध कर देखती रही हुँ, तभी तो मेरे नेत्र अभी तक तृप्त नहीं हुए हैं। मैं उनके मधुर वचनों को सदैव कानों से सुनती रही हूँ किंतु फिर भी लगता है कि जैसे मैंने उन्हें कभी सुना ही न हो। रूप और वाणी की चिर नवीनता मुझे अतृप्त बनाए रखती है।
मैंने कितनी ही मादक एवं सुहावनी वसंत की रातें कृष्ग के साथ प्रेम-क्रीड़ा में बिता दीं फिर भी यह नहीं जान पाई कि रति-क्रीड़ा कैसी होती है ? मिलन की उत्कंठा आज भी बनी ठुई है। मैंने युग-युगों तक अर्थात् चिरकाल तक अपने हुदय को उनके हृदय से लगाए रखा फिर भी हृदय शीतल नहीं हुआ अर्थात् मिलन की प्यास वैसी की वैसी बनी रही जैसी पहले थी। मेरी तो बात क्या, कितने ही रसिकजन प्रेमरस का पान करते हैं, पर उस प्रेम का वास्तविक अनुभव कोई नहीं जानता। कवि विद्यापति कहते हैं कि उन्हें लाखों व्यक्तियों में भी एक व्यक्ति में ऐसा नहीं मिला जिसके मन ने प्रेम में पूर्ण तृप्ति का अनुभव किया हो। कारण यह है कि प्रेम की पूर्ण तृप्ति हो ही नहीं सकती। प्रेम सदा नूतन बना रहता है, इसलिए उसका सही-सही वर्णन करना संभव नहीं है।
विशेष :
- ‘सखि ‘होए’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- ‘तिल-तिल’ में वीप्सा अलंकार है।
- ‘नयन ‘भेल’ में विशेषोक्ति अलंकार है।
- ‘लाख ‘गेल’ में विरोधाभास अलंकार है।
- ‘कल ‘एक’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- भाषा मैथिली है।
- काव्य-भाषा में माधुर्य गुण का समावेश है।
- प्रस्ततु पद में प्रेम की चिर नवीनता का प्रतिपादन किया गया है।
भाव साम्य : (बिहारी का दोहा)
लिखन बैठि जाकी सबी; गहि-गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेरे क्रूरू।
अतृप्त प्रेम ही चरम आदर्श बताया गया है।
घनानंद ने भी एक स्थान पर ‘बिद्छुर मिले प्रीतम शांति न माने’ कहकर प्रेम की अतृप्तता की ओर संकेत किया है।
3. कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूदि रहए दु नयनि।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपइ कान॥
माधब, सुन-सुन बचन हमारा।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा॥
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठड न पारा।
शब्दार्थ : कुसुमित = प्रफुल्लित, विकसित। कानन = वन। हेरि = देखकर। कमलमुखि = कमल के समान मुख वाले। मूदि रहए दु नयन = दोनों आँखें मूँद लेती है। कोकिल = कोयल। कलरव = शब्द, ध्वनि। मधुकर = भौरा। धुनि = ध्वनि। झाँपइ = बंद कर दे। भेल = हुए। दुबरि = दुर्बल। सुंदरि = सुंदरी। गुनि-गुनि = सोच-सोचकर। तोहारा = तुम्हारा। धरनी = धरती, पृथ्वी। कत बेरि = कठिनाई से। बइसइ = बैठती है। पुनि तेहि = पुन: वहाँ से। उठइ न पारा = उठ नहीं सकती।
प्रसंग : प्रस्तुत पद आदिकालीन कवि विद्यापति द्वारा रचित “पदावली” से अवतरित है। इसे “विरह” शीर्षक से लिया गया है। राधा की सखी उसकी विरह-भावना का वर्णन कृष्ण के सम्मुख कर रही है।
व्याख्या : हे कृष्ण! विकसित प्रफुल्लित वन को देखकर वह कमल मुखी राधा अपने दोनों नेत्रों को मूँद लेती है। कोयल की मीठी कूक और भौंरों की मधुर झंकार को सुनकर वह (राधा) अपने हाथों से अपने कान बंद कर लेती है। हे कृष्ण! जरा मेरी बात सुनो! तुम्हारे गुणों एवं प्रेम का स्मरण करके राधा सुंदरी अत्यंत दुर्वल हो गई है। उसकी दुर्बलता का यह हाल है कि पृथ्वी को पकड़कर बड़ी कठिनाई से बैठ तो जाती है, पर पुन: चेष्टा करने पर भी उठ नहीं पाती।
विशेष :
- “कुसुमित नयन” में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- “गुनि-गुनि”, “छन-छन”, “सुन-सुन” में वीप्सा अलंकार है।
- “कमल-मुखि” में रूपक अलंकार है।