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नए मेहमान Class 8 Summary in Hindi
नए मेहमान Class 8 Hindi Summary
नए मेहमान का सारांश – नए मेहमान Class 8 Summary in Hindi
प्रस्तुत पाठ व्यंग्यात्मक आधार पर एक एकांकी है। जिसके मुख्य पात्र विश्वनाथ हैं। वे अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ एक किराए के मकान में शहर में रहते हैं । उनकी हालत अच्छी नहीं है। किसी तरह नौकरी करके घर का खर्च चला रहे हैं। घर बहुत छोटा-सा है, इसमें कहीं से भी हवा नहीं आती । गर्मी के मौसम में तो बहुत ही बुरा हाल हो जाता है। एक रात पति – पत्नी दोनों ही गर्मी से बेहाल थे कि उनके घर दो अपरिचित मेहमान बनकर आ गए।
विश्वनाथ और उनकी पत्नी उन्हें देखकर परेशान हो गए। आने वाले मेहमानों ने पहले ठंडा पानी माँगा फिर नहाने की इच्छा जताई क्योंकि वे दोनों पसीने से तर-बतर थे। नहाने के बाद वे खाना भी खाना चाहते थे। मेहमानों की बात सुनकर पत्नी ने सिर दर्द की बात कही और खाना बनाने से इंकार कर दिया। वह चाहती थी कि मेहमान लौट जाएँ, क्योंकि उनके कारण पूरे परिवार को असुविधा हो रही थी । विश्वनाथ के साथ परेशानी यह थी कि वह मेहमानों को पहचान नहीं पा रहा था।
बार- बार पूछने पर यह बात सामने आई कि वे दोनों अपरिचित गलती से विश्वनाथ के घर आ गए हैं। उन्हें तो किसी कविराज वैद्य के घर दूसरी गली में जाना था। इतना खुलासा होते ही दोनों मेहमान वापस लौट गए और पूरा परिवार खुश हो गया। परंतु थोड़ी ही देर में विश्वनाथ की पत्नी रेवती का भाई मेहमान बनकर आ गया; जिसे देखकर रेवती चहक उठी और खुशी-खुशी भाई के लिए भोजन बनाने में जुट गई अब उसे सिर दर्द भी नहीं था। विश्वनाथ पत्नी का ये बदला रूप देखकर हैरान था पर चुप था। क्योंकि बात अब बच्चों के मामा की थी । ऐसे में चुप रहना ही बेहतर था ।
नए मेहमान पाठ लेखक परिचय

अभी आपने जो एकांकी पढ़ी, उसके लेखक हैं— उदयशंकर भट्ट । इनका जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा में हुआ। परिवार में साहित्यिक वातावरण था इसलिए इनकी साहित्य में अधिक (1898–1966) रुचि थी। इन्होंने रेडियो के लिए अनेक ‘नाटक’ लिखे। साथ ही नाटकों तथा फिल्मों में अभिनय भी किया है। इन्होंने कविता और उपन्यास भी लिखे हैं, लेकिन नाटक व एकांकी के क्षेत्र में इन्हें विशेष प्रसिद्धि मिली है। इनका लोक-परलोक उपन्यास और पर्दे के पीछे एकांकी संग्रह बहुत चर्चित रहे हैं।
किराये के एक छोटे से मकान में अनेक असुविधाओं और गर्मी से परेशान घर लोग रात में सोने की तैयारी कर रहे हैं। तभी अचानक दो ऐसे मेहमान आ जाते हैं जिन्हें घर का कोई व्यक्ति नहीं जानता है। ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ वाली स्थिति हो जाती है । संकोचवश उनकी खातिरदारी में जुटा एक आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय परिवार किन परेशानियों से जूझता है, हम इसका जीवंत चित्रण उदयशंकर भट्ट के ‘नए मेहमान’ एकांकी में देख सकते हैं।
नए मेहमान शब्दार्थ
पृष्ठ 105
द्वार-दरवाजा।
भीतर-अंदर।
बेहद – बहुत ।
गृहस्थ – परिवार।
पसीने से तर – पसीने में भीगा हुआ ।
बेचैन – परेशान।
प्रवेश – अंदर आना।
खूँटी- कपड़े टाँगने की कील।
पृष्ठ 111
तुनककर – चिड़चिड़ाकर ।
आश्चर्य – हैरानी,
साहित्यिक – साहित्य से जुड़ा हुआ।
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Class 8 Hindi Chapter 8 Summary नए मेहमान
किराये के एक छोटे से मकान में अनेक असुविधाओं और गर्मी से परेशान घर के लोग रात में सोने की तैयारी कर रहे हैं। तभी अचानक दो ऐसे मेहमान आ जाते हैं जिन्हें घर का कोई व्यक्ति नहीं जानता है। ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ वाली स्थिति हो जाती है। संकोचवश उनकी खातिरदारी में जुटा एक आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय परिवार किन परेशानियों से जूझता है, हम इसका जीवंत चित्रण उदयशंकर भट्ट के ‘नए मेहमान’ एकांकी में देख सकते हैं।
पात्र – परिचय
विश्वनाथ – गृहपति
नन्हेमल, बाबूलाल – अतिथि
प्रमोद, किरण – विश्वनाथ के बच्चे
आगंतुक – रेवती का भाई
रेवती – विश्वनाथ की पत्नी
स्थान
भारत का कोई बड़ा नगर
(गरमी की ऋतु, रात के आठ बजे का समय। कमरे के पूर्व की ओर दो दरवाजे । दक्षिण का द्वार बाहर आने-जाने के लिए। पश्चिम का द्वार भीतर खुलता है। उत्तर की ओर एक मेज है, जिस पर कुछ किताबें और अखबार रखे हैं। पास ही दो कुर्सियाँ, पश्चिम द्वार के पास एक पलंग बिछा है। मेज पर रखा हुआ पुराना पंखा चल रहा है, जिससे बहुत कम हवा आ रही है। कमरा बेहद गरम है। मकान एक साधारण गृहस्थ का है। पलंग के ऊपर चार-पाँच साल का एक बच्चा सो रहा है। पंखे की हवा केवल उस बच्चे को लग रही है। फिर भी वह पसीने से तर है। इसलिए वह कभी-कभी बेचैन हो उठता है, फिर सो जाता है।
कुरता- धोती पहने एक व्यक्ति प्रवेश करता है। पसीने से उसके कपड़े तर हैं। कुरता उतार कर वह खूँटी पर

टाँग देता है और हाथ के पंखे से बच्चे को हवा करता है। उसका नाम विश्वनाथ है। उम्र 45 वर्ष, गठा हुआ शरीर, गेहुँआ रंग, मुख पर गंभीरता का चिह्न।)

विश्वनाथ – ओफ, बड़ी गरमी है! (पंखा जोर-जोर से करने लगता है) इन बंद मकानों में रहना कितना भयंकर है! मकान है कि भट्टी!
(पश्चिम की ओर से एक स्त्री प्रवेश करती है)
रेवती – (आँचल से मुँह का पसीना पोंछती हुई) पत्ता तक नहीं हिल रहा है। जैसे साँस बंद हो जाएगी। सिर फटा जा रहा है। (सिर दबाती है)
विश्वनाथ – पानी पीते-पीते पेट फूला जा रहा है और प्यास है कि बुझने का नाम नहीं लेती। अभी चार गिलास पीकर आया हूँ, फिर भी होंठ सूख रहे हैं। एक गिलास पानी और पिला दो। ठण्डा तो क्या होगा!
रेवती – गरम है। आँगन में घड़े में भी तो पानी ठंडा नहीं होता- हवा लगे तब तो ठंडा हो । जाने कब तक इस जेलखाने में सड़ना होगा।
विश्वनाथ – मकान मिलता ही नहीं। आज दो साल से दिन-रात एक करके ढूँढ़ रहा हूँ। हाँ, पानी तो ले आओ, ज़रा गला ही तर कर लूँ।
रेवती – बरफ ले आते। पर बरफ भी कोई कहाँ तक पिए ।
विश्वनाथ – बरफ! बरफ का पानी पीने से क्या फायदा? प्यास जैसी-की-तैसी, बल्कि दुगुनी लगती है। ओफ ! लो, पंखा कर लो। बच्चे क्या ऊपर हैं?
रेवती – रहने दो, तुम्हीं करो। छत इतनी छोटी है कि पूरी खाटें भी तो नहीं आतीं। एक खाट पर दो-दो, तीन-तीन बच्चे सोते हैं, तब भी पूरा नहीं पड़ता।
विश्वनाथ – एक यह पड़ोसी हैं, निर्दयी, जो खाली छत पड़ी रहने पर भी बच्चों के लिए एक खाट नहीं बिछाने देंगे।
रेवती – वे तो हमको मुसीबत में देखकर प्रसन्न होते हैं। उस दिन मैंने कहा तो लाला की औरत बोली ‘क्या छत तुम्हारे लिए है? नकद पचास देते हैं, तब चार खाटों की जगह मिली है। न, बाबा, यह नहीं हो सकेगा। मैं खाट नहीं बिछाने दूँगी। सब हवा रुक जाएगी। उन्हें और किसी को सोता देखकर नींद नहीं आती।’
विश्वनाथ – पर बच्चों के सोने में क्या हर्ज है? ज़रा आराम से सो सकेंगे। कहो तो मैं कहूँ?
रेवती – क्या फायदा? अगर लाला मान भी लेगा तो वह नहीं मानेगी। वैसे भी मैं उसकी छत पर बच्चों का अकेला सोना पसन्द नहीं करूंगी।
विश्वनाथ – फिर जाने दो। मैं नीचे आँगन में सो जाया करूँगा। कमरे में भला क्या सोया जाएगा? मैं कभी-कभी सोचता हूँ यदि कोई अतिथि आ जाए तो क्या होगा?
रेवती – ईश्वर करे इन दिनों कोई मेहमान न आए। मैं तो वैसे ही गरमी के मारे मर रही हूँ। पिछले पंद्रह दिन से दर्द के मारे सिर फट रहा है। मैं ही जानती हूँ जैसे रोटी बनाती हूँ।
विश्वनाथ – सारे शहर में जैसे आग बरस रही हो। यहाँ की गरमी से तो ईश्वर बचाए। इसीलिए यहाँ गर्मियों में सभी संपन्न लोग पहाड़ों पर चले जाते हैं।
रेवती – चले जाते होंगे। गरीबों की तो मौत है।
(रेवती जाती है। बच्चा गरमी से घबरा उठता है । विश्वनाथ जोर-जोर से पंखा करता है।)
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विश्वनाथ – इन सुकुमार बालकों का क्या अपराध है? इन्होंने क्या बिगाड़ा है? तमाम शरीर मारे गरमी के उबल उठा है।
(रेवती पानी का गिलास लेकर आती है।)
रेवती – बड़े का तो अभी तक बुरा हाल है। अब भी कभी-कभी देह गरम हो जाती है।
विश्वनाथ – (पानी पीकर) उसने क्या कम बीमारी भोगी है— पूरे तीन महीने तो पड़ा रहा। वह तो कहो मैं उसे शिमला भेज दिया। नहीं तो न जाने …
रेवती – भगवान ने रक्षा की। देखा नहीं, सामने वालों की लड़की को फिर से टाइफाइड हो गया और वह चल बसी। तुम कुछ दिनों की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते। मुझे डर है, कहीं कोई बीमार न पड़ जाए।

विश्वनाथ – छुट्टी कोई दे तब न। छुट्टी ले भी लूँ तो खर्च चाहिए। खैर, तुम आज जाकर ऊपर सो जाओ। मैं आँगन में खाट डालकर पड़ा रहूँगा। बच्चे को ले जाओ। यह गरमी में भुन रहा है।
रेवती – यह नहीं हो सकता। मैं नीचे सो जाऊँगी। तुम ऊपर छत पर जाकर सो जाओ। और ऊपर भी क्या हवा है! चारों तरफ दीवारें तप रही हैं। तुम्हीं जाओ ऊपर।
विश्वनाथ – यह तो तुम्हारी बुरी आदत है। किसी का कहना न मानोगी, बस अपनी ही हाँके जाओगी। पंद्रह दिन से सिर में दर्द हो रहा है। मैं कहता हूँ खुली हवा में सो जाओगी तो तबीयत ठीक हो जाएगी।
रेवती – तुम तो व्यर्थ की जिद करते हो। भला यहाँ आँगन में तुम्हें नींद आएगी? बंद मकान, हवा का नाम नहीं। रात भर नींद न आएगी। सबेरे काम पर जाना है। जाओ, मेरा क्या है, पड़ी रहूँगी।
विश्वनाथ – नहीं, यह नहीं हो सकता। आज तो तुम्हें ऊपर सोना पड़ेगा। वैसे भी मुझे कुछ काम करना है।
रेवती – ऐसी गरमी में क्या काम करोगे? तुम्हें भी न जाने क्या धुन सवार हो जाती है। जाओ, सो जाओ। मैं आँगन में खाट पर इसे लेकर जैसे-तैसे रात काट लूँगी, जाओ।
विश्वनाथ – अच्छा तुम जानो। मैं तो तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा था। मैं ही ऊपर जाता हूँ।
(बाहर से कोई दरवाजा खटखटाता है।)
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रेवती – कौन होगा?
विश्वनाथ – न जाने। देखता हूँ।
रेवती – हे भगवान! कोई मुसीबत न आ जाए।
(बच्चे को पंखा करती है। बच्चा गरमी के मारे उठ बैठता है, पानी माँगता है। वह बच्चे को पानी पिलाती है, पंखा करती है। इसी समय दो व्यक्तियों के साथ विश्वनाथ प्रवेश करता है। रेवती बच्चे को लेकर आँगन में चली जाती है। आगंतुक एक साधारण बिस्तर तथा एक संदूक लेकर कमरे में प्रवेश करते हैं। विश्वनाथ भी पीछे-पीछे आता है। कमीजों के ऊपर काली बंडी, सिर पर सफेद पगड़ियाँ। बड़े की अवस्था पैंतीस और छोटे की चौबीस है। बड़े की मूँछे मुँह को घेरे हुए, माथे पर सलवट । छोटे की अधकटी मूँछें, लंबा मुख । दोनों मैली धोतियाँ पहने हैं। बड़े का नाम नन्हेमल और छोटे का बाबूलाल है। इस हबड़-बड़ में दोनों बच्चे ऊपर से उतरकर आते हैं और दरवाजे के पास खड़े होकर आगंतुकों को देखते हैं।)
विश्वनाथ – (बड़े लड़के से) प्रमोद, ज़रा कुर्सी इधर खिसका दो, (दूसरे अतिथि से) आप इधर खाट प आ जाइए! ज़रा पंखा तेज कर देना, किरण ।
(किरण पंखा तेज करती है, किंतु पंखा वैसे ही चलता है।)
नन्हेमल – (पगड़ी के पल्ले से मुँह का पसीना पोंछकर उसी से हवा करता हुआ।) बड़ी गरमी है। क्या कहें, पंडित जी, पैदल चले आ रहे हैं, कपड़े तो ऐसे हो गए कि निचोड़ लो।
विश्वनाथ – जी, आप लोग…..
बाबूलाल – चाचा, मेरे कपड़े निचोड़कर देख लो, एक लोटे से कम पसीना नहीं निकलेगा। धोती ऐसी चर्रा रही है, जैसे पुरानी हो। पिछले दिनों नकद नौ रुपये खर्च करके खरीदी थी।
नन्हेमल – मोतीराम की दुकान से ली होगी। बड़ा ठग है। मैंने भी कुरतों के लिए छह गज मलमल मोल ली थी, सवा रुपया गज दी जबकि नत्थामल के यहाँ साढ़े नौ आने गज बिक रही थी। पंडित जी, गला सूखा जा रहा है। स्टेशन पर पानी भी नहीं मिला, मन करता है लेमन की पाँच-छह बोतलें पी जाऊँ।

बाबूलाल – मुझे कोई पिलाकर देखे, दस से कम नहीं पीऊँगा, (बच्चों की ओर देखकर) क्या नाम है तुम्हारा भाई ?
प्रमोद – प्रमोद |
किरण – किरण।
बाबूलाल – ठंडा-ठंडा पानी पिलाओ दोस्त, प्राण सूखे जा रहे हैं।
विश्वनाथ – देखो प्रमोद, कहीं से बरफ मिले तो ले आओ, आप लोग…
नन्हेमल – अपना लोटा कहाँ रखा है? थैले में ही है न?
बाबूलाल – बिस्तर में होगा चाचा, निकालूँ क्या? और तो और बिस्तर भी पसीने से भीग गया, चाचा मैं तो पहले नहाऊँगा, फिर जो होगा देखा जाएगा, हाँ नहीं तो ! मुझे नहीं मालूम था यहाँ इतनी गरमी है।
नन्हेमल – देखते जाओ। हाँ साहब।
विश्वनाथ – क्षमा कीजिएगा आप कहाँ से पधारे हैं?
नन्हेमल – अरे, आप नहीं जानते ! वह लाला संपतराम हैं न गोटेवाले, वह मेरे चचेरे भाई हैं। क्या बताएँ साहब, उन बेचारों का कारोबार सब चौपट हो गया, हम लोगों के देखते-देखते वह लाखों के आदमी खाक में मिल गए। बाबू, यह लो मेरी बंडी संदूक में रख दो।
विश्वनाथ – कौन संपतराम ?
बाबूलाल – अरे वही गोटेवाले। लाओ न, चाचा (संदूक खोलकर बंडी रखते हुए) माल-मसाला तो अंटी में है न?
नन्हेमल – नहीं, जेब में है, बंडी की जेब में है। अब डर की क्या बात है! घर ही तो है।
विश्वनाथ – मैं संपतराम को नहीं जानता।
नन्हेमल – संपतराम को जानने की … क्यों, वह तो आपसे मिले हैं। आपकी तो वह…
बाबूलाल – हाँ, उन्होंने कई बार मुझसे कहा है। आपकी तो वह बहुत तारीफ करते हैं। पंडित जी, क्या मकान इतना ही बड़ा है?
नन्हेमल – देख नहीं रहे, इसके पीछे एक कमरा दिखाई देता है। पंडित जी, इसके पीछे आँगन होगा और ऊपर छत होगी? शहर में तो ऐसे ही मकान होते हैं।
किरण – (विश्वनाथ से) माँ पूछती है खाना…..
नन्हेमल – क्यों बाबूलाल? पंडित जी, कष्ट तो होगा, पर तुम जानो खाना तो….
बाबूलाल – बस एक साग और पूरी।
नन्हेमल – वैसे तो मैं पराँठे भी खा लेता हूँ।
बाबूलाल – अरे खाने की भली चलाई, पेट ही तो भरना है। शहर में आए हैं तो किसी को तकलीफ थोड़े ही देंगे, देखिए पंडित जी, जिसमें आपको आराम हो, हम तो रोटी भी खा लेंगे। कल फिर देखी जाएगी।
नन्हेमल – भूख कब तक नहीं लगेगी — सारा दिन तो गया ।
बाबूलाल – नहाने का प्रबंध तो होगा, पंडित जी ?
(प्रमोद बरफ का पानी लाता है)

नन्हेमल – हाँ भैया, ला तो ज़रा, मैं तो डेढ़ लोटा पानी पीऊँगा ।
बाबूलाल – उतना ही मैं।
(दोनों गट-गट पानी पीते हैं।)
किरण – (विश्वनाथ से धीरे से ) फिर खाना?
विश्वनाथ – (इशारे से) ठहर जा ज़रा ।
नन्हेमल – (पानी पीकर) आह! अब जान में जान आई। सचमुच गरमी में पानी ही तो जान है।
बाबूलाल – पानी भी खूब ठंडा है वाह भैया, खुश रहो।
नन्हेमल – कितने सीधे लड़के हैं।
बाबूलाल – शहर के हैं न!
विश्वनाथ – क्षमा कीजिए, मैंने आपको…..
दोनों – अरे पंडित जी, आप कैसी बातें करते हैं? हम तो आपके पास के हैं।

विश्वनाथ – आप कहाँ से आए हैं?
नन्हेमल – बिजनौर से |
विश्वनाथ – (आश्चर्य से) बिजनौर से! बिजनौर में तो…। मैं बिजनौर गया हूँ, किंतु ….
नन्हेमल – मैं ज़रा नहाना चाहता
बाबूलाल – मैं भी स्नान करूँगा।
विश्वनाथ – पानी तो नल में शायद ही हो, फिर भी देख लो। प्रमोद, इन्हें नीचे नल पर ले जाओ।
बाबूलाल – तब तक खाना भी तैयार हो जाएगा।
(दोनों बाहर निकल जाते हैं, रेवती का प्रवेश)
रेवती – ये लोग कौन हैं? जान-पहचान के तो मालूम नहीं पड़ते।
विश्वनाथ – न जाने कौन हैं।
रेवती – पूछ लो न?
विश्वनाथ – क्या पूछ लूँ? दो-तीन बार पूछा, ठीक-ठीक उत्तर ही नहीं देते।
रेवती – मेरा तो दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है, इधर पिछली शिकायत फिर बढ़ती जा रही है। पहले सोते-सोते हाथ-पैर सुन्न हो जाते थे, अब बैठे-बैठे हो जाते हैं।
विश्वनाथ – क्या बताऊँ, जीवन में तुम्हें कोई सुख न दे सका। नौकर भी नहीं टिकता है।
रेवती – पानी जो तीन मंजिल पर चढ़ाना पड़ता है, इसीलिए भाग जाता है और गरमी क्या कम है ! किसी को क्या जरूरत पड़ी है जो गरमी में भुने। यह तो हमारा ही भाग्य है कि चने की तरह भाड़ में भुनते रहते हैं।

विश्वनाथ – क्या किया जाए?
रेवती – फिर क्या खाना बनाना ही होगा? पर ये हैं कौन?
विश्वनाथ – खाना तो बनाना ही पड़ेगा। कोई भी हों, जब आए हैं तो खाना जरूर खाएँगे, थोड़ा-सा बना लो।
रेवती – (तुनककर) खाना तो खिलाना ही होगा – तुम भी खूब हो ! भला इस तरह कैसे काम चलेगा? दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है, फिर खाना बनाना इनके लिए और इस समय ? आखिर ये आए कहाँ से हैं?
विश्वनाथ – कहते हैं बिजनौर से आए हैं।
रेवती – (आश्चर्य से) बिजनौर! क्या बिजनौर में तुम्हारी जान-पहचान है? अपनी रिश्तेदारी का तो कोई आदमी वहाँ रहता नहीं है?
विश्वनाथ – बहुत दिन हुए एक बार काम से बिजनौर गया था, पर तब से अब तो बीस साल हो गए हैं।
रेवती – सोच लो, शायद वहाँ कोई साहित्यिक मित्र हो, उसी ने इन्हें भेजा हो।
विश्वनाथ – ध्यान तो नहीं आता, फिर भी कदाचित कोई मुझे जानता हो और उसी ने भेजा हो, किसी संपतराम का नाम बता रहे थे, मैं जानता भी नहीं।
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रेवती – बड़ी मुश्किल है, मैं खाना नहीं बनाऊँगी, पहले आत्मा फिर परमात्मा, जब शरीर ही ठीक नहीं रहता तो फिर और क्या करूँ?
विश्वनाथ – क्या कहेंगे कि रातभर भूखा मारा, बाजार से कुछ मँगा दो न !
रेवती – बाजार से क्या मुफ्त में आ जाएगा? तीन-चार रुपये से कम में क्या इनका पेट भरेगा, पहले तुम पूछ लो, मैं बाद में खाना बनाऊँगी।
(बाबूलाल का प्रवेश, रेवती का दूसरी ओर से जाना)
बाबूलाल – तबीयत अब शांत हुई है, फिर भी पसीने से नहा गया हूँ, न जाने पंडित जी, आप यहाँ कैसे रहते हैं! (पंखा करता है)
विश्वनाथ – आठ-नौ लाख आदमी इस शहर में रहते हैं और उनमें से छह-सात लाख आदमी इसी तरह के मकानों में रहते हैं। (ऊपर छत पर शोर मचता है) क्या बात है? कैसा झगड़ा है, प्रमोद ?
प्रमोद – (आकर) उन्होंने दूसरी छत पर हाथ धो लिए, पानी फैल गया, इसीलिए वह पड़ोस की स्त्री चिल्ला रही है। मैंने कहा, सबेरे साफ कर देंगे, इन्हें मालूम नहीं था।
विश्वनाथ – तुमने क्यों नहीं बताया कि हाथ दूसरी जगह धोओ।
प्रमोद – मैं पानी पीने चला गया था। वहाँ उषा रोने लगी। उसे चुप कराया, पानी पिलाया और पंखा झलता रहा।
विश्वनाथ – चलो कोई बात नहीं, उनसे कह दो कि सबेरे साफ करा देंगे।
(नेपथ्य में— “अरे बाबू, मेरी धोती दे देना। मैं भी नहा लूँ।”)

बाबूलाल – लाया चाचा। (जाता है)
(पड़ोसी का तेजी से प्रवेश)
पड़ोसी – देखिए साहब, मेहमान आपके होंगे, मेरे नहीं। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी छत पर इस तरह गंदा पानी फैलाया जाए।
विश्वनाथ – वाकई गलती हो गई। कल सबेरे साफ करा दूँगा।
पड़ोसी – आपसे रोज ही गलती होती है।
विश्वनाथ – अनजान आदमी से गलती हो ही जाती है। उसे क्षमा कर देना चाहिए। कल से ऐसा नहीं होगा।
पड़ोसी – होगा क्यों नहीं, रोज होगा। रोज होता है। अभी उसी दिन आपके एक और मेहमान ने पानी फैला दिया था। फिर वह हमारी खाट बिछाकर लेट गया था।
विश्वनाथ – मैंने समझा तो दिया था। फिर तो वह आदमी खाट पर नहीं लेटा था ।
पड़ोसी – तो आपके यहाँ इतने मेहमान आते ही क्यों हैं? यदि मेहमान बुलाने हों तो बड़ा-सा मकान लो।
विश्वनाथ – यह भी आपने खूब कहा कि इतने मेहमान क्यों आते हैं! अरे भाई मेहमानों को क्या मैं बुलाता हूँ? खैर, आज क्षमा करें, अब आगे ऐसा नहीं होगा।
पड़ोसी – कहाँ तक कोई क्षमा करे। क्षमा, क्षमा! बस एक ही बात याद कर ली है— क्षमा!
(पड़ोसी चला जाता है। दोनों अतिथि आते हैं।)
दोनों – क्या बात है?
विश्वनाथ – कुछ नहीं, आप धोतियाँ छज्जे पर सुखा दें।
नन्हेमल – सचमुच हमारी वजह से आपको बड़ा कष्ट हुआ। भैया, ज़रा-सा पानी और पिला दो। उफ्फ, बड़ी गरमी है। हाँ साहब, खाने में क्या देर-दार है? बात यह है कि नींद बड़े जोर से आ रही है।
विश्वनाथ – देखिए, मैं आपसे एक-दो बात पूछना चाहता हूँ।
नन्हेमल – हाँ, हाँ पूछिए, मालूम होता है, आपने हमें पहचाना नहीं है।
विश्वनाथ – जी हाँ, बात यह है कि मैं बिजनौर गया तो अवश्य हूँ, पर बहुत दिन हो गए हैं।
नन्हेमल – तो क्या हर्ज है— कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है। हम तो आपको जानते हैं। कई बार आपको देखा भी है।
बाबूलाल – लाला भानामल की लड़की की शादी में आप नजीबाबाद गए थे?
नन्हेमल – अरे, दूर क्यों जाते हो। अभी पिछले साल आप मुरादाबाद गए थे?
विश्वनाथ – हाँ पिछले साल मैं लखनऊ जाते हुए दो दिन के लिए जगदीशप्रसाद के पास मुरादाबाद ठहरा था।
नन्हेमल – हाँ, सेठ जगदीशप्रसाद के यहाँ हमने आपको देखा था।
बाबूलाल – उनकी आटे की मिल है, क्या कहने हैं उनके—बड़े आदमी हैं। हम उन्हीं के रिश्तेदार हैं।
विश्वनाथ – पर उनका तो प्रेस है।
नन्हेमल – प्रेस भी होगा। उनकी एक बड़ी मिल भी है। अब एक और गन्ने की मिल बिजनौर में खुल रही है।
बाबूलाल – अगले महीने तक खुल जाएगी। हाँ भैया, पानी ले आए, लो चाचा, पहले तुम पी लो।
विश्वनाथ – तो आप कोई चिट्ठी-विट्ठी लाए हैं?
दोनों – (सकपकाकर) चिट्ठी, चिट्ठी तो नहीं लाए हैं।
नन्हेमल – संपतराम ने कहा था कि स्टेशन से उतर कर सीधे रेलवे रोड चले जाना। वहाँ कृष्णा गली में वह रहते हैं।
विश्वनाथ – पर कृष्णा गली तो यहाँ छह हैं। कौन-सी गली में बताया था ?
नन्हेमल – छह हैं। बहुत बड़ा शहर है साहब! हमें तो यह मालूम नहीं है, शायद बताया हो । याद ही नहीं रहा।
विश्वनाथ – (खीझकर) जिसके यहाँ आपको जाना है, उसका नाम भी तो बताया होगा?
बाबूलाल – क्या नाम था चाचा?
नन्हेमल – नाम तो याद नहीं आता। ज़रा ठहरिए, सोच लूँ।
बाबूलाल – अरे चाचा, कविराज या कवि बताया था। मैं उस समय नहीं था। सामान लेने घर गया था। तुम्हीं ने रेल में बताया था।
नन्हेमल – हाँ, साहब, कविराज बताया था। आप तो बेकार शक में पड़े हैं! हम कोई चोर थोड़े ही हैं।
बाबूलाल – चोर छिपे थोड़े ही रहते हैं। पंडित जी, क्या बताएँ, हमारे घर चलकर देख लें तो पता लगेगा कि हम भी….
विश्वनाथ – लेकिन मैं कविराज तो नहीं हूँ?
दोनों – (चिल्लाकर) तो कवि ही बताया होगा, साहब।
नन्हेमल – हमें याद नहीं आ रहा। हमें तो जो पता दिया था उसी के सहारे आ गए। नीचे आवाज लगाई और आप मिल गए, ऊपर चढ़ आए। पहले हमने सोचा होटल या धर्मशाला में ठहर जाएँ। फिर सोचा घर के ही तो हैं। चलो, घर ही चलें।
विश्वनाथ – जिनके यहाँ आपको जाना था, वह काम क्या करते हैं?
नन्हेमल – काम? क्या काम बताया था बाबू?
बाबूलाल – मेरे सामने तो कोई बात ही नहीं हुई। मैं तो सामान लेने चला गया था। आप तो, पंडित जी, शायद वैद्य हैं?
नन्हेमल – हाँ, याद आया। बताया था वैद्य हैं।
विश्वनाथ – पर मैं तो वैद्य नहीं हूँ।
प्रमोद – पिछली गली में एक कविराज वैद्य रहते हैं।
विश्वनाथ – हाँ, हाँ, ठीक, कहीं आप कविराज रामलाल वैद्य के यहाँ तो नहीं आए हैं?
दोनों – (उछलकर) अरे हाँ, वही तो कविराज रामलाल ।
विश्वनाथ – शायद वह उधर के हैं भी।
नन्हेमल – ठीक है, साहब, ठीक है। वही हैं। मैं भी सोच रहा था कि आप न संपतराम को जानते हैं, न जगदीशप्रसाद को — (प्रमोद से) कहाँ है उन कविराज का घर ?
विश्वनाथ – जाओ, इन्हें उनका मकान बता दो। मैं भीतर हो आऊँ।
दोनों – चलो, जल्दी चलो भैया, अच्छा साहब, राम-राम।
विश्वनाथ – (भीतर से ही) राम-राम !
रेवती – अब जान में जान आई। हाय, सिर फटा जा रहा है।
(नीचे से आवाज आती है)
(नेपथ्य में— भले आदमी, न जाने कहाँ मकान लिया है— ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आधी रात हो गई।)
रेवती – फिर, फिर, (प्रसन्न होकर) अरे अरे भैया हैं! आओ, आओ, तुमने तो खबर भी न दी।
आगंतुक – रेवती! (दोनों मिलते हैं। विश्वनाथ से ) पिछले चार घंटे से बराबर मकान खोज रहा हूँ। क्या मेरा तार नहीं मिला?
विश्वनाथ – नहीं तो, कब तार दिया था?
आगंतुक – कल ही तो झाँसी से दिया था। सोचा था कि ठीक समय पर मिल जाएगा। ओह ! बड़ी परेशानी हुई।
रेवती – लो, कपड़े उतार डालो। पंखा करती हूँ। अरे प्रमोद, जा जल्दी से बरफ तो ला। मामा जी को ठंडा पानी पिला। और देख, नुक्कड़ पर हलवाई की दुकान खुली हो तो….
आगंतुक – भाई, बहुत बड़ा शहर है। वह तो कहो, मैं भी ढूँढ़कर ही रहा, नहीं तो न जाने कहाँ होटल या धर्मशाला में रहना पड़ता। बड़ी गरमी है। मैं ज़रा बाथरूम जाना चाहता हूँ।
विश्वनाथ – हाँ, हाँ, अवश्य। सामने चले जाइए।
आगंतुक – एक बार तो जी में आया कि सामने होटल में ठहर जाऊँ। शायद रात को आप लोगों को कोई कष्ट हो।
रेवती – ऐसा क्यों सोचते हो! कष्ट काहे का! यह तो हम लोगों का कर्तव्य था। अच्छा, तुम तैयार हो, मैं खाना बनाती हूँ।
आगंतुक – भई, देखो, इस समय खाना-वाना रहने दो। मैं पानी पीकर सो जाऊँगा। वैसे मुझे भूख भी नहीं है।
रेवती – (जाती हुई, लौटकर) कैसी बातें करते हो भैया! मैं अभी खाना बनाती हूँ।
आगंतुक – इतनी गरमी में रहने दो न |
विश्वनाथ – तुम नहाने तो जाओ। (आगंतुक जाता है। रेवती से) कहो, अब?
रेवती – अब क्या, मैं खाना बनाऊँगी। भैया भूखे नहीं सो सकते।
(यवनिका)
– उदयशंकर भट्ट