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हरिद्वार Class 8 Summary in Hindi
हरिद्वार Class 8 Hindi Summary
हरिद्वार का सारांश – हरिद्वार Class 8 Summary in Hindi

हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध रचनाकार भारतेंदु हरिश्चंद्र अपनी यात्राओं के लिए चर्चित रहे हैं। उन्होंने भारत के अनेक गाँवों और नगरों की यात्राएँ की और उनके विषय में पत्र-पत्रिकाओं में लिखा भी । प्रकृति, इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व का अध्ययन करने में यात्राओं से उन्हें बहुत सहायता मिली। वे मानते थे कि शिक्षा की पूर्ति पुस्तकों से ही नहीं यात्राओं से भी होती है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र 1871 ई. में हरिद्वार की यात्रा पर गए थे। वे लिखते हैं- “मेरा तो चित्त वहाँ जाते ही ऐसा प्रसन्न और निर्मल हुआ कि वर्णन के बाहर है।” हरिद्वार की प्रकृति, वहाँ के पर्वतों, पक्षियों, वृक्षों और कलकल बहती गंगा, वहाँ के घाटों, लोगों, दुकानों और गंगा तट के मनोरम दृश्यों को देखकर वे अति आनंदित हुए। इस पाठ में उन्होंने कविवचन सुधा पत्रिका के संपादक के नाम पत्र लिखते हुए अपनी उसी हरिद्वार-यात्रा का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। इस पत्र में प्रयुक्त हिंदी का स्वरूप लगभग 150 वर्ष पुराना है।
श्रीमान कविवचन सुधा संपादक महामहिम मित्रवरेषु !
मुझे हरिद्वार का समाचार लिखने में बड़ा आनंद होता है कि मैं उस पुण्य भूमि का वर्णन करता हूँ जहाँ प्रवेश करने ही से मन शुद्ध हो जाता है। यह भूमि तीन ओर सुंदर हरे-हरे पर्वतों से घिरी है जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की वल्ली हरी-भरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भाँति फैलकर लहलहा रही है और बड़े-बड़े वृक्ष भी ऐसे खड़े हैं मानो एक पैर से खड़े तपस्या करते हैं और साधुओं की भाँति घाम, ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं। अहा! इनके जन्म भी धन्य हैं जिनसे अर्थी विमुख जाते ही नहीं। फल, फूल, गंध, छाया, पत्ते, छाल, बीज, लकड़ी और जड़;

यहाँ तक कि जले पर भी कोयले और राख से लोगों का मनोर्थ पूर्ण करते हैं। सज्जन ऐसे कि पत्थर मारने से फल देते हैं। इन वृक्षों पर अनेक रंग के पक्षी चहचहाते हैं और नगर के दुष्ट बधिकों से निडर होकर कल्लोल करते हैं। वर्षा के कारण सब ओर हरियाली ही दिखाई पड़ती थी मानो हरे गलीचा की जात्रियों के विश्राम के हेतु बिछायत बिछी थी।
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एक ओर त्रिभुवन पावनी श्री गंगा जी की पवित्र धारा बहती है जो राजा भगीरथ के उज्ज्वल कीर्ति की लता-सी दिखाई देती है। जल यहाँ का अत्यंत शीतल है और मिष्ट भी वैसा ही है मानो चीनी के पने को बरफ में जमाया है, रंग जल का स्वच्छ और श्वेत है और अनेक प्रकार के जल-जंतु कल्लोल करते हुए । यहाँ श्री गंगा जी अपना नाम नदी सत्य करती हैं अर्थात् जल के वेग का शब्द बहुत होता है और शीत वायु नदी के उन पवित्र छोटे-छोटे कनों को लेकर स्पर्श ही से पावन करता हुआ संचार करता है।
यहाँ पर श्री गंगा जी दो धारा हो गई हैं— एक का नाम नील धारा, दूसरी श्री गंगा जी ही के नाम से, इन दोनों धारों के बीच में एक सुंदर नीचा पर्वत है और नील धारा के तट पर एक छोटा-सा सुंदर चुटीला पर्वत है और उसके शिषर पर चण्डिका देवी की मूर्ति है। यहाँ हरि की पैड़ी नामक एक पक्का घाट है और यहीं स्नान भी होता है।
विशेष आश्चर्य का विषय यह है कि यहाँ केवल गंगा जी ही देवता हैं, दूसरा देवता नहीं। यों तो वैरागियों ने मठ मंदिर कई बना लिए हैं। श्री गंगा जी का पाट भी बहुत छोटा है पर वेग बड़ा है, तट पर राजाओं की धर्मशाला यात्रियों के उतरने हेतु बनी हैं और दुकानें भी बनी हैं पर रात को बंद रहती हैं। यह ऐसा निर्मल तीर्थ है कि इच्छा

क्रोध की खानि जो मनुष्य हैं सो वहाँ रहते ही नहीं। पंडे दुकानदार इत्यादि कनखल व ज्वालापुर से आते हैं। पंडे भी यहाँ बड़े विलक्षण संतोषी हैं। एक पैसे को लाख करके मान लेते हैं। इस क्षेत्र में पाँच तीर्थ मुख्य हैं हरिद्वार, कुशावर्त्त, नीलधारा, विल्वपर्वत और कनखल। हरिद्वार तो हरि की पैंड़ी पर नहाते हैं, कुशावर्त्त भी उसी के पास है, नीलधारा वही दूसरी धारा, विल्व पर्वत भी पास ही एक सुहाना पर्वत है जिस पर विल्वेश्वर महादेव की मूर्ति है और कनखल तीर्थ इधर ही है, यह कनखल तीर्थ बड़ा उत्तम है।
किसी काल में दक्ष ने यहीं यज्ञ किया था और यहीं सती ने शिव जी का अपमान न सहकर अपना शरीर भस्म कर दिया। यहाँ कुछ छोटे-छोटे घर भी बने हैं। और भारामल जैकृष्णदास खत्री यहाँ के प्रसिद्ध धनिक हैं। हरिद्वार में यह बखेड़ा कुछ नहीं है और शुद्ध निर्मल साधुओं के सेवन योग्य तीर्थ है। मेरा तो चित्त वहाँ जाते ही ऐसा प्रसन्न और निर्मल हुआ कि वर्णन के बाहर है। मैं दीवान कृपा राम के घर के ऊपर के बंगले पर टिका था।
यह स्थान भी उस क्षेत्र में टिकने योग्य ही है। चारों ओर से शीतल पवन आती थी । यहाँ रात्रि को ग्रहण हुआ और हम लोगों ने ग्रहण में बड़े आनंदपूर्वक स्नान किया और दिन में श्री भागवत का पारायण भी किया। वैसे ही मेरे संग कल्लू जी मित्र भी परमानंदी थे। निदान इस उत्तम क्षेत्र में जितना समय बीता, बड़े आनंद से बीता। एक दिन मैंने श्री गंगा जी के तट पर रसोई करके पत्थर ही पर जल के अत्यंत निकट परोसकर भोजन किया। जल के छलके पास ही ठंढे-ठंढे आते थे। उस समय के पत्थर पर का भोजन का सुख सोने की थाल के भोजन से कहीं बढ़ के था। चित्त में बारंबार ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का उदय होता था।
झगड़े- लड़ाई का कहीं नाम भी नहीं था। यहाँ और भी कई वस्तु अच्छी बनती हैं, जनेऊ यहाँ का अच्छा महीन और उज्ज्वल बनता है। यहाँ की कुशा सबसे विलक्षण होती है जिसमें से दालचीनी, जावित्री इत्यादि की अच्छी सुगंध आती है।
मानो यह प्रत्यक्ष प्रगट होता है कि यह ऐसी पुण्यभूमि है कि यहाँ की घास भी ऐसी सुगंधमय है। निदान यहाँ जो कुछ है, अपूर्व है और यह भूमि साक्षात विरागमय साधुओं और विरक्तों के सेवन योग्य है। और संपादक महाशय, मैं चित्त से तो अब तक वहीं निवास करता हूँ और अपने वर्णन द्वारा आपके पाठकों को इस पुण्यभूमि का वृत्तांत विदित करके मौनावलंबन करता हूँ। निश्चय है कि आप इस पत्र को स्थानदान दीजिएगा।
आपका मित्र
यात्री
– भारतेंदु हरिश्चंद्र
हरिद्वार पाठ लेखक परिचय
‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ का उद्घोष करने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता, नाटक, निबंध और यात्रा-वृत्तांत आदि अनेक विधाओं में लेखन कार्य किया। ( 1850-1885) इन्होंने कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चंद्रिका और स्त्रियों के लिए बालाबोधिनी पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। इनकी रचनाओं में समाज-सुधार, राष्ट्र-प्रेम, अंग्रेजी शासन का विरोध, स्वाधीनता की भाव के स्वर सुनाई देते हैं। इन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है। सत्य हरिश्चन्द्र, भारत-दुर्दशा, अंधेर नगरी और सरयूपार की यात्रा इनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
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हरिद्वार शब्दार्थ
पृष्ठ-45
वल्ली – लता ।
घाम- धूप।
अर्थी प्रार्थी, माँगने वाला ।
पृष्ठ-46
राख – भस्म ।
बधिक – शिकारी, बहेलिया ।
कल्लोल – क्रीड़ा, मौज।
गलीचा – एक प्रकार का मोटा, बुना हुआ कपड़ा जो फर्श पर बिछाने के काम आता है।
जात्रियों – यात्रियों ।
विश्राम – आराम।
बिछायत – बिछौना ।
मिष्ट – मिठास युक्त ।
चीनी के पने – चीनी का घोल ।
पृष्ठ-47
क्रोध की खानि – गुस्सा, आक्रोश।
विलक्षण – अत्यंत लक्षणों वाला ।
बखेड़ा – झगड़ा, विवाद ।
चित्त – मन ।
पारायण – धार्मिक ग्रंथ का किया जानेवाला पाठ।
पृष्ठ-48
वैराग्य – सांसारिक सुखों और इच्छाओं से विरक्ति ।
जनेऊ – एक पवित्र धागा।
कुशा – पवित्र घास ।
विदित – अवगत ।
मौनावलंबन – चुप्पी साधना ।
Class 8 Hindi Chapter 4 Summary हरिद्वार
भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित ‘हरिद्वार’ पाठ जो उनकी यात्रा वृत्तांतों का हिस्सा है, मुख्य रूप से हरिद्वार की यात्रा का वर्णन करता है। यह पाठ केवल एक भौतिक यात्रा का वृत्तांत नहीं है, बल्कि इसमें धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का भी सूक्ष्म चित्रण मिलता है। इस पाठ में उन्होंने कविवचन सुधा पत्रिका के संपादक के नाम पत्र लिखते हुए अपनी उसी हरिद्वार – यात्रा का रोचक वर्णन प्रस्तुत किया। पाठ का सारांश इस प्रकार है-
हरिद्वार की पावन भूमि तीन ओर सुंदर हरे-हरे पर्वतों से घिरी है जिन पर्वतों पर अनेक प्रकार की वल्ली हरी-भरी सज्जनों के शुभ मनोरथों की भाँति फैलकर लहलहा रही है। बड़े-बड़े वृक्ष ऐसे खड़े हैं जैसे कोई तपस्वी एक पैर पर खड़े होकर तपस्या में लीन है और घाम, ओस और वर्षा अपने ऊपर सहते हैं।
फल, फूल, गंध, छाया, पत्ते, छाल, बीज, लकड़ी और जड़; यहाँ तक कि जले पर भी कोयले और राख से लोगों का मनोरथ पूर्ण करते हैं। सज्जन के वृक्षों पर अनेक रंग के पक्षी चहचहाते हैं और नगर के दुष्ट बधिकों से निडर होकर कल्लोल करते हैं। वर्षा के कारण सब ओर हरियाली ही दिखाई पड़ती है मानो हरे गलीचा की यात्रियों के विश्राम के लिए बिछायत बिछी है।
यहाँ पर श्री गंगा जी दो धारा हो गई हैं-
एक नाम नील धारा, दूसरी श्री गंगा जी ही के नाम से। इन दोनों धारों के बीच में एक सुंदर नीचा पर्वत है। और नीलधारा के तट पर एक छोटा-सा सुंदर चुटीला पर्वत है और उसके शिखर पर चण्डिका देवी की मूर्ति है। यहाँ हरि की पैड़ी नामक एक पक्का घाट है और यहीं स्नान भी होता है। श्री गंगा जी के तट पर राजाओं की धर्मशाला यात्रियों के ठहरने हेतु बनी है। पंडे, दुकानदार आदि कनखल व ज्वालापुर से आते हैं। इस क्षेत्र में पाँच तीर्थ मुख्य हैं – हरिद्वार, कुशावर्त्त, नीलधारा, विल्वपर्वत और कनखल |
कनखल तीर्थ बड़ा उत्तम है। किसी काल में दक्ष ने यही यज्ञ किया था और यहीं सती ने शिव जी का अपमान न सहकर अपना शरीर भस्म कर दिया।
यह ऐसा निर्मल तीर्थ है कि इच्छा वैराग्य और भक्ति का उदय होता था। झगड़े- लड़ाई का कहीं नाम भी नहीं था। यहाँ कई वस्तु अच्छी बनती हैं, जनेऊ यहाँ का अच्छा महीन और उज्जवल बनता है। यहाँ की कुशा सबसे विलक्षण होती है जिसमें से दालचीनी, जावित्री इत्यादि की अच्छी सुगंध आती है।
निष्कर्षतः भारतेंदु हरिश्चंद्र का यह यात्रा – वृत्तांत केवल एक धार्मिक स्थल का वर्णन नहीं है, बल्कि यह उस समय की सामाजिक, सांस्कातक और धार्मिक दशा का दस्तावेज़ भी है। उनकी लेखन शैली रोचक, व्यंग्यात्मक और सूक्ष्म निरीक्षण से भरपूर है।