गोल Class 6 Summary Notes in Hindi Chapter 2
गोल Class 6 Summary in Hindi
यह पाठ हॉकी खेल के जादूगर मेजर ध्यानचंद के संस्मरण का एक अंश है। ‘गोल’ शब्द पढ़ते ही हमारे समक्ष गोल वस्तुओं के नाम और चित्र जैसे- गेंद, रोटी, सूरज, चाँद आदि उभर आते हैं लेकिन इस पाठ में ध्यानचंद ने हॉकी के ‘गोल’ की बात की है।
मेजर ध्यानचंद के संस्मरण की एक घटना उन्होंने अपने संस्मरण में इस घटना का उल्लेख किया है कि सन् 1933 में वे पंजाब रेजिमेंट की ओर से खेला करते थे। एक दिन ‘पंजाब रेजिमेंट’ और ‘सैंपर्स एंड माइनर्स टीम’ के महज हॉकी के खेल का मुकाबला हुआ। माइनर्स टीम के खिलाड़ी निरंतर ध्यानचंद से गेंद छीनना चाह रहे थे लेकिन हर बार असफल रहे। उनके एक खिलाड़ी को इतना गुस्सा आ गया कि उसने गुस्से में आकर ध्यानचंद के सिर में हॉकी की स्टिक मार दी।
ध्यानचंद चोट खाकर उत्साही बने रहे और पट्टी बँधवाकर फिर से खेल के मैदान में आ पहुँचे। उन्होंने अपने एक अलग ही अंदाज में उस खिलाड़ी से यह कहा कि मैं अपनी इस चोट का बदला अवश्य लूँगा । उसके बाद उन्होंने इतने जोश और उत्साह से गोल लिया कि लगातार छह गोल करके ‘सैंपर्स एंड माइनर्स टीम को बुरी तरह मात दी।
हॉकी का जादूगर – नए नाम की उपाधि प्राप्त करना- बर्लिन ओलंपिक में लोग इनके हॉकी खेलने के ढंग से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’ कहना शुरू कर दिया। यह उपाधि उन्हें इसलिए भी मिली क्योंकि वे स्वयं आगे बढ़ने के साथ-साथ दूसरों को भी आगे बढ़ाना चाहते थे। ‘हॉकी’ खेल में गेंद दूसरों तक पहुँचाते ताकि उनके साथियों को भी जीतने का श्रेय मिले।
ध्यानचंद के जीवन का गुरुमंत्र – उन्होंने अपने जीवन में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने का गुरुमंत्र यह बताया कि लगन, साधना और खेल भावना ही मनुष्य को ऊँचाइयों की ओर लेकर जाते हैं।
मेजर ध्यानचंद का जीवन परिचय एवं हॉकी खेल के क्षेत्र में पदार्पण – मेजर ध्यानचंद का जन्म सन् 1904 में प्रयाग के एक साधारण परिवार में हुआ। बाद में इनका परिवार झाँसी जाकर बस गया। 16 वर्ष की आयु में ये ‘फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट’ में साधारण सिपाही के रूप में शामिल हुए। इस रेजिमेंट के सूबेदार मेजर तिवारी थे। इस रेजिमेंट का ‘हॉकी खेल’ में बड़ा नाम था ।
तिवारी जी उन्हें सदा उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित करते रहते थे। रेजिमेंट के सभी सिपाही किसी भी समय हॉकी खेलने के लिए तैयार रहते थे। ध्यानचंद ने भी नौसिखिया खिलाड़ी की भाँति खेलना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनके खेल में निखार आता गया और वे उच्च खिलाड़ियों की श्रेणी में आने लगे और जल्द ही बर्लिन ओलंपिक टीम के कप्तान बन गए। उस समय वे सेना में भी ‘लांस नायक’ के पद पर पहुँच चुके थे।
हॉकी प्रेमी ध्यानचंद का खेल जगत में विस्मरणीय नाम ध्यानचंद ‘हॉकी’ खेल से बहुत प्रेम करते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम ही ‘गोल’ रखा। वे अमर खिलाड़ी हैं। सन् 1979 में ध्यानचंद चिरनिद्रा में चले गए। उनका जन्मदिन ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। भारत का सर्वोच्च खेल पुरस्कार ‘खेल रत्न’ उनके नाम पर दिया जाता है।
गोल शब्दार्थ और टिप्पणी
पृष्ठ 13
प्रसिद्ध – मशहूर । कोशिश प्रयास । झटपट एकदम । पीठ थपथपाई – शाबाशी देना। शर्मिंदा – लज्जित ।
पृष्ठ 14
गुरु- मंत्र – तरीका । लगन लगाव । साधना – अभ्यास । भावना- इच्छा। दिलचस्पी – रुचि । निश्चित- पक्का | नौसिखिया – नया सीखने वाला। निखार सुधार होना । तरक्की उन्नति ।
पृष्ठ 15
श्रेय – प्रसिद्धि । कार्य करने में नाम कमाना ।
पृष्ठ 16
आत्मकथा – अपने बारे में लिखी गई विचारों की कहानी । अमर जो कभी न मरे। प्रेरणा- सीख ।
गोल पाठ लेखक परिचय
यदि कोई खिलाड़ी अपनी आत्मकथा का नाम ‘गोल’ रखे, तो इस नाम को पढ़कर इतना तो तुरंत समझ में आ जाता है कि उसे खेल से कितना प्यार रहा होगा। जी हाँ, वे अमर खिलाड़ी हैं ‘हॉकी के जादूगर’ कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद। इतने महान कि भारत उनके जन्मदिन को (1905-1979) ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाता है, जिससे लाखों भारतवासी उनके जीवन से प्रेरणा ले सकें। इतने महान खिलाड़ी कि भारत का सर्वोच्च खेल `पुरस्कार ‘खेल रत्न’ उनके नाम पर दिया जाता है।
Class 6 Hindi गोल पाठ
इस पाठ का नाम पढ़कर आपके मन में कुछ गोल वस्तुओं के नाम या चित्र उभरे होंगे, गोल गेंद, गोल रोटी, गोल चंद्रमा आदि। लेकिन यह पाठ एक विशेष प्रकार के गोल और उसे करने वाले के बारे में है। यह पाठ एक प्रसिद्ध खिलाड़ी के संस्मरण का एक अंश है। आइए, इसे पढ़ते हैं और जानते हैं कि कौन थे वे प्रसिद्ध खिलाड़ी!
खेल के मैदान में धक्का-मुक्की और नोंक-झोंक की घटनाएँ होती रहती हैं। खेल में तो यह सब चलता ही है। जिन दिनों हम खेला करते थे, उन दिनों भी यह सब चलता था।
सन् 1933 की बात है। उन दिनों में, मैं पंजाब रेजिमेंट की ओर से खेला करता था। एक दिन ‘पंजाब रेजिमेंट’ और ‘सैंपर्स एंड माइनर्स टीम’ के बीच मुकाबला हो रहा था। ‘माइनर्स टीम’ के खिलाड़ी मुझसे गेंद छीनने की कोशिश करते, लेकिन उनकी हर कोशिश बेकार जाती। इतने में एक खिलाड़ी ने गुस्से में आकर हॉकी स्टिक मेरे सिर पर दे मारी। मुझे मैदान से बाहर ले जाया गया।
थोड़ी देर बाद मैं पट्टी बाँधकर फिर मैदान में आ पहुँचा। आते ही मैंने उस खिलाड़ी की पीठ पर हाथ रखकर कहा, “तुम चिंता मत करो, इसका बदला मैं जरूर लूँगा।” मेरे इतना कहते ही वह खिलाड़ी घबरा गया। अब हर समय मुझे ही देखता रहता कि मैं कब उसके सिर पर हॉकी स्टिक मारने वाला हूँ। मैंने एक के बाद एक झटपट छह गोल कर दिए। खेल खत्म होने के बाद मैंने फिर उस खिलाड़ी की पीठ थपथपाई और कहा, “दोस्त, खेल में इतना गुस्सा अच्छा नहीं। मैंने तो अपना बदला ले ही लिया है। अगर तुम मुझे हॉकी नहीं मारते तो शायद मैं तुम्हें दो ही गोल से हराता ।” वह खिलाड़ी सचमुच बड़ा शर्मिंदा हुआ। तो देखा आपने मेरा बदला लेने का ढंग? सच मानो, बुरा काम करने वाला आदमी हर समय इस बात से डरता रहता है कि उसके साथ भी बुराई की जाएगी।
आज मैं जहाँ भी जाता हूँ बच्चे व बूढ़े मुझे घेर लेते हैं और मुझसे मेरी सफलता का राज जानना चाहते हैं। मेरे पास सफलता का कोई गुरु-मंत्र तो है नहीं। हर किसी से यही कहता कि लगन, साधना और खेल भावना ही सफलता के सबसे बड़े मंत्र हैं।
मेरा जन्म सन् 1904 में प्रयाग में एक साधारण परिवार में हुआ। बाद में हम झाँसी आकर बस गए। 16 साल की उम्र में मैं ‘फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट’ में एक साधारण सिपाही के रूप में भर्ती हो गया। मेरी रेजिमेंट का हॉकी खेल में काफी नाम था । पर खेल में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस समय हमारी रेजिमेंट के सूबेदार मेजर तिवारी थे। वे बार-बार मुझे हॉकी खेलने के लिए कहते। हमारी छावनी में हॉकी खेलने का कोई निश्चित समय नहीं था। सैनिक जब चाहे मैदान में पहुँच जाते और अभ्यास शुरू कर देते। उस समय तक मैं एक नौसिखिया खिलाड़ी था ।
जैसे-जैसे मेरे खेल में निखार आता गया, वैसे-वैसे मुझे तरक्की तरक्की भी मिलती गई। सन् 1936 में बर्लिन ओलंपिक में मुझे कप्तान बनाया गया। उस समय मैं सेना में लांस नायक था। बर्लिन ओलंपिक में लोग मेरे हॉकी खेलने के ढंग से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे ‘हॉकी का जादूगर’ कहना शुरू कर दिया। इसका यह मतलब नहीं कि सारे गोल मैं ही करता था। मेरी तो हमेशा यह कोशिश रहती कि मैं गेंद को गोल के पास ले
जाकर अपने किसी साथी खिलाड़ी को दे दें ताकि उसे गोल करने का श्रेय मिल जाए। अपनी इसी खेल भावना के कारण मैंने दुनिया के खेल प्रेमियों का दिल जीत लिया। बर्लिन ओलंपिक में हमें स्वर्ण पदक मिला। खेलते समय मैं हमेशा इस बात का ध्यान रखता था कि हार या जीत मेरी नहीं, बल्कि पूरे देश की है।
– मेजर ध्यानचंद