बिस्कोहर की माटी Summary – Class 12 Hindi Antral Chapter 3 Summary
बिस्कोहर की माटी – डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी – कवि परिचय
प्रश्न :
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का जन्म 16 फरवरी, 1931 को बिस्कोहर गाँव, जिला बस्ती (सिद्धार्थ नगर) उ. प्र. में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई। तत्पश्चात् बलरामपुर कस्बे में आगे की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए वे पहले कानपुर और बाद में वाराणसी गए। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। शुरू में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज में अध्यापन कार्य किया, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में अध्यापन कार्य से जुड़े रहे। यहीं से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे है।
रचनाएँ – उनकी रचनाओं में प्रारंभिक अवधी, हिंदी आलोचना, हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, लोकवादी तुलसीदास, मीस का काव्य, देश के इस दौर में, कुछ कहानियाँ कुछ विचार, पेड़ का हाथ, जैसा कह सका (कविता-संग्रह) प्रमुख हैं। उन्होंने आरंभ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ अद्हमाण (अब्दुल रहमान) के अपभ्रंश काव्य ‘संदेश रासक’ का संपादन किया। कविताएँ 1963, कविताएँ 1964, कविताएँ 1965 अजीत कुमार के साथ, ‘हिन्दी के प्रहरी रामविलास शर्मा’ अरुण प्रकार के साथ संपादित की। उनको गोकुलचन्द्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली का साहित्य सम्मान आदि से सम्मानित किया गया।
पाठ का संक्षिप्त परिचय –
पाठ्यपुस्तक में विश्वनाथ त्रिपाठी की आत्मकथा नंगातलाई का गाँव का एक अंश ‘बिस्कोहर की माटी’ नाम से दिया गया है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह पाठ अपनी अभिव्यंजना में अत्यंत रोचक और पठनीय है। लेखक ने उम्र के कई पड़ाव पार करने के बाद अपने जीवन में माँ, गाँव और आस-पास के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन शैली, लोक कथाओं, लोक-मान्यताओं को पाठक तक पहुँचाने की कोशिश की है।
गाँव, शहर की तरह सुविधायुक्त नहीं होते, बल्कि प्रकृति पर अधिक निर्भर रहते हैं। इस निर्भरता का दूसरा पक्ष प्राकृतिक सौंदर्य भी है जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से जिया और प्रस्तुत किया है। एक तरफ प्राकृतिक संपदा के रूप में अकाल के वक्त खाई जाने वाली कमल-ककड़ी का वर्णन है तो दूसरी ओर प्राकृतिक विपदा बाढ़ से बदहाल गाँव की तकंलीफों का जिक्र है। कमल, कोइयाँ, हरसिंगार के साथ-साथ तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली … कदंब आदि के फूलों का वर्णन कर लेखक ने ग्रामीण प्राकृतिक सुषमा और संपदा को दिखाया है तो डोड़हा, मजगिदवा, धामिन, गोंहुअन, घोर कड़ाइच आदि साँपों, बिच्छुओं आदि के वर्णन द्वारा भयमिश्रित वातावरण का भी निर्माण किया है।
ग्रामीण जीवन में शहरी दवाइयों की जगह प्रकृति से प्राप्त फूल, पत्तियों के प्रयोग भी आम हैं जिसे लेखक ने रेखांकित किया है। पूरी कथा के केंद्र में है बिस्कोहर जो लेखक का गाँव है और एक पात्र ‘बिसनाथ’ जो लेखक स्वयं (विश्वनाथ) है। गर्मी, वर्षा और शरद ऋतु में गाँव में होने वाली दिक्कतों का भी लेखक के मन पर प्रभाव पड़ा है जिसका उल्लेख इस रचना में भी दिखाई पड़ता है। दस वर्ष की उम्र में करीब दस वर्ष बड़ी स्त्री को देखकर मन में उठे-बसे भावों, संवेगों के अमिट प्रभाव व उसकी मार्मिक प्रस्तुति के बीच संवादों की यथावत् आंचलिक प्रस्तुति, अनुभव की सत्यता और नैसर्गिकता का द्योतक है। पूरी रचना में लेखक ने अपने देखे-भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक की शैली अपने आप में अनूठी और बिल्कुल नई है।
Biskohar Ki Mati Class 12 Hindi Summary
प्रस्तुत पाठ लेखक की आत्मकथा का एक अंश है। लेखक बताता है कि पूरब टोल के तालाब में कमल फलते-फूल्ते हैं। इसी के कमल-पत्र (कमल का पत्ता) पर हिंदुओं के भोज में भोजन परोसा जाता है। कमल-पत्र को ‘पुरइन’ और कमल की नाल को भसीण कहते हैं। कमल-ककड़ी को सामान्यतः नहीं खाया जाता, पर कमल ग्टा (कमल का बीज) अवश्य खाया जाता है। कमल से ज्यादा बहार कोइयाँ की थी। इस जल-पुष्प को ‘कुमुद’ कहते हैं। इसे ‘कोका बेली’ भी कहते हैं। रेलवे लाइनों के दोनों ओर के गड्ढों में जहाँ पानी भरा होता है वहाँ इसे देखा जा सकता है।
इसकी गंध को जो पसंद करता है वही इसके महत्त्व को जानता है। इन्हीं दिनों तालाबों में सिंघाड़ा आता है। सिंघाड़े के भी फूल होते हैं-उजले और उनमें गंध भी होती है। विश्वनाथ को सिंघाड़े के फूलों से भरे तालाब से गंध के साथ एक हल्की-सी आवाज भी सुनाई देती थी। शरद ऋतु में हरसिंगार फूलता है। पितृ पक्ष में मालिन दाई के घर के दरवाजे पर हरसिंगार की राशि रखी जाती थी। गाँव की बोली में इसे ‘कुरई जात रही’ कहा जाता है। गाँव में ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियों, जल के विविध रूपों और मिट्टि के अनेक वर्णों-आकारों का एक सजीव वातावरण था।
तब आकाश भी अपने गाँव का ही एक टोला लगता था। चंदा मामा थे। उसमें एक बुढ़िया थी जो बच्चों की दादी की सहेली थी। माँ के आँचल में छिपकर बच्चां केवल दूध ही नहीं पीता है बल्कि सुबुकता है, रोता है, माँ को मारता है, पर माँ से चिपटा रहता है, बच्चा माँ के पेट का स्पर्श गंध भोगता रहता है। बच्चे जब दाँत निकलते हैं, तो हर चीज को काटते हैं। लेखक ने भी बचपन में माँ को काट लिया था, तब माँ ने उसे जोर से थम्पड़ मारा था। माँ बच्चे की माँ ही नहीं उसे मित्र का सुख भी देती है। माँ के अंक से लिपटकर माँ का दूध पीना मानव-जीवन की सार्थकता है। पशु-माताएँ भी अपने बच्चों को यह सुख देती होंगी।
लेखक ने यह बात बहुत बाद में देखी-समझी। दिलशाद गार्डन के डियर पार्क में बत्तखे जब अंडा देने को होती हैं तब पानी छोड़कर जमीन पर आ जाती हैं। इसके लिए एक सुरक्षित काँटेदार बाड़ा था। एक बत्तख कई अंडों को से रही थी। वह पंख फुलाए उन्हें दुनिया से छिपाए रखती है। बत्तख की चोंच सख्त होती है। बत्तख अंडों को बहुत सतर्कता और कोमलता से डैनों के अंदर छिपा लेती थी। कभी-कभी वह अंडों को बड़ी सतर्कता से उलटती-पलटती भी थी।
लेखक की माँ और बत्तख की माँ की ममता प्रकृति की देन है। विश्वनाथ (लेखक) के साथ तब अत्याचार हो गया जब उसका छोटा भाई आ गया। तब माँ के दूध पर छोटे भाई का कब्जा हो गया। बालक विश्वनाथ ने अपना कब्जा छोड़ने से इंकार कर दिया। अब माँ चालाकी से स्तनों पर उबटन का लेप करके बालक विश्वनाथ को दूध पिलाने लगी। इसे कसैले स्वाद से बालक चीख पड़ा-तुम्हारा दूध खराब है, हम इसे नहीं पीते। घर वाले तो यही चाहते थे। छोटा भाई खुश होकर माँ का दूध पीता और विश्वनाथ गाय का बेस्वाद दूध। बालक विश्वनाथ का पालन-पोषण पड़ोस की कसेरिन दाई ने किया था। उसके साथ लेटे-लेटे वे चाँद को देखते रहते।
फूलों की बात-कमल, कोइयाँ, हरसिंगार की हो रही थी। ऐसे कितने ही फूल थे जिनके फूलों की चर्चा फूलों के रूप में नहीं होती और हैं वे असली फूल-तोरई, लौकी, भिंडी, भटकटेंया, इमली, अमरूद, कदंब, बैगन, कासीफल, शरीफा, आम के बौर, कटहल, बेल, अरहर, उड़द, चना, मसूर, मटर के फूल, सेमल के फूल, कदंब के फूलों से पेड़ लदबदा जाता है। खेतों में सरसों के फूलों की तेलयुक्त गंध तैरती है। विश्वनाथ के गाँव में एक फल बहुत होता है-भरभंडा। उसे ही सत्यानाशी कहा जाता है। इसका नाम चाहे जैसा हो, पर इसकी सुंदरता में कोई जवाब नहीं। फूल पीली तितली जैसा, आँखें दु:खने पर माँ उसका दूध आँख में लगाती। धान, गेहूँ, जौ के भी फूल होते हैं। जीरे की शक्ल में भुट्टे का फूल होता है।
घास पत्तों से भरी मेड़ों पर, मैदानों में, तालाब के भीटों पर तरह-तरह के साँप मिलते थे। डोंड़हा और मजगिदवा विषरहित साँप थे। डोड़हा को मारा नहीं जाता। धामिन भी विषरहित है। सबसे खतरनाक गोंहुअन होता है जिसे गाँव में ‘फेंटारा’ कहा जाता था। यह बड़ा खतरनाक होता है। इसके काट लेने पर आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाकर मरता है। इसके बाद ‘भटिहा’ आता है। इसके दो मुँह होते हैं। आम, पीपल, केवड़े की झाड़ी में रहने वाले साँप बहुत खतरनाक होते हैं। साँप से डर भी लगता था और उनकी प्रतीक्षा भी की जाती थी। बिच्छू के काटने से दर्द तो बहुत होता था, पर उसे कोई मारता न था। गुड़हल का फूल देवी का फूल था। नीम के फूल और पत्ते चेचक में रोगी के पास रख दिए जाते हैं। फूल बेर के भी होते हैं और उनकी गंध मादक होती है।
गर्मी के दिनों में सबको सोता देखकर लेखक चुपके से घर से निकल जाते। लू से बचने के लिए माँ धोती या कमीज में गाँठ लगाकर प्याज बाँध देती थी। लू लगने की दवा थी-आम का पन्ना। कच्चे आम की हरी गंध, पकने से पहले जामुन खाना, तोड़ना-यह गर्मी की बहार थी। कटहल गर्मी का फल और तरकारी दोनों है। वर्षा एकाएक नहीं आती थी। पहले बादल घिरते-गड़गड़ाहट होती थी। पहली वर्षा में नहाने के बाद दाद-खाज, फोड़ा-फुंसी ठीक हो जाते थे। फिर गंदगी, कीचड़। जलाने की लकड़ी पहले जमा करनी
पड़ती थी। चारों ओर पानी ही पानी भर जाता था। जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज्यादा अंतर नही होता। रंखक ने विस्फाहर की औरत पहली बार बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा था। विश्वनाथ की उमर उससे काफी कम है-शायद 10 वर्ष कम। वह औरत विश्वनाथ को औरत के रूप में नहीं; जूही की लता बन गई चाँदनी के रूप में लगी। विश्वनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में हुई। विश्वनाथ मान ही नहीं सकते कि बिस्कोहर से अच्छा कोई गाँव हो सकता है और बिस्कोहर से ज्यादा सुंदर कहीं की औरत हो सकती है।
विश्वनाथ को अपनी माँ के पेट का रंग हल्दी मिलाकर बनाई गई पूड़ी का सा लगता। नारी शरीर से उन्हें बिस्कोहर की ही फसलों की गंध आती है। तालाब की चिकनी मिद्टी की गंध. गेहूँ, भुट्टा, खीरा की गंध या पुआल की होती है। आम के बाग में आम्रमंजरी, बौर की पलट मारती हुई गंध तो साक्षात् रति गंध होती है। फूले हुए नीम की गंध को नारी-शरीर या श्रृंगार से कभी नहीं जोड़ सकते। वह गंध मादक , गंभीर और असीमित की ओर ले जाने वाली होती है।
बड़े गुलाम अली खाँ साहब ने एक ठुमरी गाई है-अब तो आओ साजन-सुनें अकेले में या याद करें-इस ठुमरी को तो रूलाई आती है और वही औरत इसमें व्याकुल नजर जाती है। वह सफेद रंग की साड़ी पहने रहती है। घने काले केश सँवारे हुए है। आँखों में व्यथा है। वह सिर्फ इंतजार करती है। नृत्य, संगीत, मूर्ति, कविता, स्थापत्य, चित्र अर्थात् हर कला रूप में वह मौजूद है। लेखक विश्वनाथ के लिए हर दुःख-सुख से जोड़ने की सेतु है।
इस स्मृति के साथ मृत्यु का बोध अजीब तौर पर जुड़ा हुआ है।
शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
भसीण – कमलनाल, कमल का तना, सिंघाड़ा – जलफल. काँटेदार फल जो पानी में होता है, प्रयोजन – उद्देश्य, साफ-सफ्फाक – साफ और स्वच्छ, भीटो – टीले, ढूह, सुबकना – धीमे स्वर में रोना, आँख आना – गर्मियों के मौसम में आँख का रोग होना, धिरकना – नाचना, आर्द्य, – नमी, व्यथा – पीड़ा, दर्द, असीमित – बहुत अधिक, सार्थक – जिसका कोई अर्थ हो, लता – बेल, प्रतिबिंब – परछाई, शीतलता – ठंडक, अनुभूति – अनुभव करना, कुमुद – जलपुष्प, कुइयाँ, कोकाबेली, बतिया फल का अविकसित रूप, कथरी – बिछौना, इफरात – अधिकता, बरहा – खेतों की सिंचाई के लिए बनाई गई नाली, अगाध भरपूर, स्थापत्य – भवन-निर्माण कला, अगाध – बहुत गहरा, मादक – मस्ती भरा, अंतराल – गैप, अनवरत – लगातार, सतर्कता – चौकन्नापन, सावधानी, सरोवर – तालाब, सर्वत्र – सब जगह।