वसंत आया, तोड़ो Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 6 Summary
वसंत आया, तोड़ो – रघुवीर सहाय – कवि परिचय
प्रश्न :
रघुवीर सहाय के जीवन परिचय एवं साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : रघुवीर सहाय का जन्म 1929 ई॰ में लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनकी संपूर्ण शिक्षा लखनऊ में ही हुई। वहीं से उन्होंने 1951 में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। रघुवीर सहाय पेशे से पत्रकार थे। आरंभ में उन्होंने ‘प्रतीक’ पत्रिका में सहायक संपादक के रूप में काम किया। फिर वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में रहे। कुछ समय तक वे हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कल्पना’ के संपादन से भी जुड़े रहे। कई वर्षों तक ‘दिनमान’ का भी संपादन किया। 1990 ई० में इनका देहांत हो गया।
काव्यगत विशेषताएँ : रघुवीर सहाय ‘नयी कविता’ के कवि हैं। उनकी कुछ कविताएँ अजेय द्वारा संपादित ‘दूसरा सप्तक’ में संकलित हैं। उनके काव्य-संसार में आत्मपरक अनुभवों की जगह जनजीवन के अनुभवों की रचनात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। वे व्यापक सामाजिक संदर्भों के निरीक्षण, अनुभव और बोध को कविता में व्यक्त करते हैं। उन्होंने अपनी काव्य-रचना में अपनी पत्रकार-दृष्टि का सर्जनात्मक उपयोग किया है। मानवीय पीड़ा को अभिव्यक्त करना उनकी कविता की विशेषता है।
रचना-परिचय : रघुवीर सहाय की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं- सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरूद्ध, हँसो-हँसो जल्दी हँसो, लोग भूल गए हैं।
उनकी रचनाएँ – ‘रछुवीर सहाय रचनावली’ छः खंडों में प्रकाशित हुई है।
उन्हें ‘लोग भूल गए हैं’ काव्य-संग्रह पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला था।
भाषा-शिल्प :
- रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा सटीक, दो टूक और विवरण प्रधान है।
- वे अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से प्रयासपूर्वक बचते हैं।
- भयाक्रांत अनुभव की आवेगरहित अभिव्यक्ति उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है।
- रघुबीर सहाय ने मुक्त छंद के साथ-साथ छंद में भी काव्य-रचना की है।
- वे जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए कथा या वृत्तांत का उपयोग भी करते हैं।
- रघुवीर सहाय ने अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया है।
Vasant Aaya, Todo Class 12 Hindi Summary
1. वसंत आया कविता में कवि ने प्रकट किया है कि आज मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। वसंत ऋतु का आना अब अनुभव करने के बजाए कैलेंडर से जाना जाता है। ऋतुओं में परिवर्तन पहले की तरह ही स्वभावत: घटित होते रहते हैं। पत्ते झड़ते हैं, कोपलें फूटती हैं, हवा बहती है, ढाक के जंगल दहकते हैं-कोयल-भ्रमर अपनी मस्ती में झूमते हैं, पर हमारी निगाह उन पर नहीं जाती। हम निरपेक्ष बने रहते हैं। वास्तव में कवि ने आज के मनुष्य की आधुनिक जीवन शैली पर व्यंग्य किया है।
इस कविता की भाषा में जीवन की विडंबना छिपी हुई है। प्रकृति से अंतरगता को व्यक्त करने के लिए कवि ने देशज (तद्भव) शब्दों और क्रियाओं का भरपूर प्रयोग किया है। अशोक, मदन महीना, पंचमी, नंदन-वन, जैसे परंपरा में रचे-बसे जीवनानुभवों की भाषा ने इस कविता को आधुनिकता के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा कर दिया है। कविता में बिंबों और प्रतीकों का भी सुंदर प्रयोग हुआ है।
2. तोड़ो : यह कविता उद्बोधन शैली में रची गई है। इसमें कवि नव-निर्माण से पूर्व उसके लिए उपयुक्त भूमि को तैयार करने हेतु लोगों को आद्नान करता है। इसके लिए चट्टानें तोड़नी होंगी, ऊसर और बंजर को भी तोड़ना होगा। परती भूमि को उपजाऊ खेत में बदलना सृजन की आरंभिक परंतु अत्यंत महत्व्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस कविता का कवि विध्वंस के लिए नहीं उकसाता वरन् सुजन के लिए प्रेरित करता है। कवि ने प्रकृति से मन की तुलना करके इसको नया आयाम दे दिया है। बंजर प्रकृति के साथ-साथ मन में भी होता है। कवि मन में समाई ऊब और खाझ को तोड़ने की बात करता है। मन के भीतर की ऊब सुजन में बाधक है। कवि सृजन का आकांक्षी है। कवि मन के बारे में प्रश्न उठाकर आगे बढ़ जाता है।
वसंत आया, तोड़ो सप्रसंग व्याख्या
वसंत आया –
1. जैसे बहन ‘दा’ कहती है
ऐसे किसी बँगले के किसी तरु (अशोक?) पर कोई चिड़िया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरुरुए पाँव तले
ऊँचे तुरवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराए पत्ते
कोई छ: बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो
खिली हुई हवा आई, फिरकी सी आई, चली गई।
ऐसे, फुटपाथ पर चलते चलते चलते।
कल मैंने जाना कि वसंत आया।
शब्बार्थ : तर = पेड़। कुऊकी = चिड़िया की स्वाभाविक आवाज। चुरुराए = चरमराने की आवाज। तरुवर = वृक्ष। पियराए = पीले हुए। फिरकी = फिरहरी, लकड़ी का खिलौना जो जमीन पर गोल-गोल घूमता है।
प्रसंगः प्रसुत पंक्सियाँ नई कविता के प्रतिनिधि कवि रुुवीर सहाय द्वारा रचित कविता ‘बसंत आया’ से अवत्तरित हैं। इस कविता में कवि ने यह प्रकट किया है कि आज मुुष्य का प्रकृति से रिश्ता दूट गया है। अब वसंत छतु का आना अनुभव करने के बजाय कैलैंडर से जाना जाता है। इसमें कवि ने आज के मनुष्य की आधुनिक जीवन-शैली पर व्यंग किया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि जिस प्रकार बहन अपने भाई को सेहपूर्ण स्वर में ‘दा’ कहती है, वैसी ही मिठास भरी आवाज में किसी बंगले के अशोक के वृक्ष पर बैठी चिड़िया कुक्तती है। चहल-पहल भरी सड़क के किनारे बिडी लाल बजरी पर ऊँचे घने पेड़ां से गिरे बड़े-बड़े पीले पत्ते चरमराने की आवाज करते हुए पाँवों के नीचे आ जाते हैं। सुबह के लगभग छह बजे गरम पानी से नहाकर आई हुई सी खिली-खिली हवा गोल-गोल घूमती हुई फिरकी जैसी आई और चली गई। इस प्रकार फुटपाथ पर चलते हुए कल मैंने जाना कि वसंत आ गया है। भाव यह है कि प्रकुति में परिवर्तन स्वाभाविक रूप से ही हो रहा है। वसंत ऋतु के आने पर चिड़ियों का चहचहाना, पेड़ों से सूखे पत्तों का गिरना, नई कोंपलों का उगना, सुबह-सुबह की हवा का मस्ती में बहना, सब कुछ पहले जैसा हो रहा है, परंतु शहरी संस्कृति में प्रकृति से रिश्ता दूट सा गया है। हम अपने भीतर वसंत का उल्लास अनुभव नहीं कर पाते। बस राह चलते उसका आना जान भर लेते हैं।
विशेष :
- आधुनिक जीवन-शैली पर व्यंग्य किया गया है।
- ‘पियराए पते’ तथा ‘हुई हवा में’ अनुप्रास अलंकार है।
- ‘बड़े-बड़े’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘जैसे गरम पानी से नहाई हो’ में उत्त्रेक्षा अलंकार है।
- ‘फिरकी सी आई’ में उपमा अलंकार है।
- चित्रात्पकता का गुण विद्यमान है।
- आकर्षक बिंब का सुजन किया गया है।
- भाषा में सरलता एवं सहजता है।
2. और यह कैलेंडर से मालूम था
अमुक दिन अमुक बार मदनमहीने की होवेगी पंचमी
दफ्तर में छुद्डी थी-यह था प्रमाण
और कविताएँ पत़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं बाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गंध से लदे-फँचे दुर के विदेश के
वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा
जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।
शब्दार्थ : मदनमहीना = कामदेव का महीना (वसंत)। दहर-दहर = धधक-धधक कर। दहकना = लपट के साथ जलना। नगण्य = न गिनने योग्य। मधुमस्त = फूलों का रस पीकर मस्त। पिक = कोयल। ढाक = पलाश। कृतित्व = कार्य।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश रघुवीर सहाय द्वारा रचित कविता ‘वसंत आया’ से अवतरित है। कवि का व्यंग्य है कि आधुनिक जीवन-शैली में वसंत का आगमन अनुभव से नहीं बल्कि कैलेंडर से जाना जाता है। आज का मनुष्य प्रकृति से दूर होता चला जा रहा है।
व्याख्या : कवि कहता है कि मुझे कैलेंडर से इस बात का पता चला कि अमुक दिन, अमुक वार को कामदेव के महीने अर्थांत् वसंत पंचमी होगी। इस बात का प्रमाण यह भी था कि उस दिन दप्तर में छुट्टी थी। तात्पर्य यह है कि आधुनिक जीवन शैली में वसंत की केवल सूचना मिल पाती है, उसका वास्तविक अनुभव नहीं हो पाता। कवि आगे बताता है कि कविताएँ पढ़ते रहने से मुझे यह पता चला कि वसंत के आने पर कहीं पलाश के जंगल धधक-धधक कर जल उठेंगे अर्थात् वसंत में वन प्रदेश पलाश के लाल-लाल फूलों के सौंदर्य से दमकने लगेगा। आम के पेड़ मंजरियों से लद जाएँगे। दूर देश के आनंदमयी वन आकर्षक रंगों, फूलों-फलों के रस और गंध के भार से लदे अत्यंत शोभा पाते हुए यश को प्राप्त करेंगे अर्थात् दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो जाएँगे। फूलों का रस पीकर मस्त हुई कोयल और भँरि आदि अपने-अपने कार्यों का अभ्यास करके दिखाएँगे।कवि कहता है कि वसंत आने के बारे में सारी बातें मैं कैलेंडर और किताबों से जानता था। बस यही बात मैं न जानता था कि आज के तुच्छ दिन वसंत के आगमन के बारे में इस प्रकार जानूँगा। आज मैंने पहली बार वसंत के आगमन को हृदय से अनुभव किया। प्रकृति के साहचर्य की अनुभूति ही हमें जीवन का वास्तविक आनंद दे सकती है।
विशेष :
- इन पंक्तियों में आधुनिक जीवन-शैली पर करारा व्यंग्य किया गया है।
- ‘दहर-दहर दहकेंगे’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘अपना-अपना’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- वर्णन में चित्रात्मकता है।
- होवेगी, आवेंगी, लदे-फँदे जैसे देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है।
तोड़ो –
1. तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन दूटें
तो धरती को हम जानें
सुनते हैं मिंद्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने
शब्दार्थ : दूष = घास। व्यापी = फैली हुई, व्याप्त।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित कविता ‘तोड़ो’ से अवतरित हैं। इसके रचयिता रघुवीर सहाय हैं। यह एक उद्देश्यपरक कविता है। इसमें कवि सृजन हेतु भूमि तैयार करने के लिए चट्टानें, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आद्कान करता है।
व्याख्या : कवि कहता है कि इन पत्थरों को इन चट्टानों को तोड़ डालो। ये झूठे बंधन टूट जाएँ ताकि हम धरती को जान सकेे। हम सुनते हैं कि मिट्टी में रस है, जिसमें दूब उगती है। हमारे मन रूपी मैदानों पर कैसी ऊब व्याप्त है अर्थात् अरुचि समा गई है। इस पर आधे-अधूरे गानों का ही सृजन हो सका है। भाव यह है कि जिस तरह उपजाऊ धरती पर पत्थर की चट्टानें आ जाने से उसके अंदर रस भरा होने पर भी वह सृजन करने अर्थात् पेड़-पौधों को उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाती है। इसी प्रकार मन के भीतर की ऊब भी सृजन में बाधक बन जाती है। यदि हम उस दशा में सृजन का प्रयास भी करें तो वह आधा-अधूरा ही हो पाता है। व्यक्ति के मन की उर्वर भावनाओं का रस प्राप्त होने पर ही एक संपूर्ण एवं प्रभावशाली रचना का सृजन किया जा सकता है।
विशेष :
- इन पंक्तियों में ‘धरती’ और चट्टानों के प्रतीक के माध्यम से मनुष्य की सृजनात्मकता की बाधाओं को दूर करने की प्रेरणा दी गई है।
- ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ तथा ‘आधे-आधे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘मन के मैदानों’ में अनुप्रास अलंकार है।
- पत्थर, चट्टानों, धरती का प्रतीकात्मक प्रयोग है।
- भाषा सरल एवं सुबोध है।
2. तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये ऊसर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर छोड़ो
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को ?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो
शब्दार्थ : ऊसर-बंजर = अनुपजाऊ जमीन। चरती परती = पशुओं के चरागाह के लिए छोड़ी गई जमीन।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश रघुवीर सहाय की कविता ‘तोड़ो’ से अवतरित है। इसमें कवि ने बंजर जमीन को तोड़ने और सृजन कार्य करने का आह्लान किया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि इस बंजर ऊसर भूमि को तोड़ डालो अर्थात् अनुपजाऊ जमीन की ऊपरी सतह को तोड़ दो। इस चारागाह और खाली छोड़ी गई भूमि को तोड़ दो। इन सबको खेत बनाकर ही छोड़ो। तात्पर्य यह है कि अनुपजांक और खाली पड़ी सारी भूमि को खोदकर खेत बनाकर ही दम लो। मिट्टी के अंदर रस होता ही है। धरती उस रस से बीज का पोषण करेगी। कवि कहता है कि मैं अपने मन की खीज का क्या करूँ। धरती को तो खोदकर उपजाऊ बनाया जा सकता है, पर मन की खीज या झुंझलाहट को हटाए बिना सृजन कार्य कैसे संभव है ? कवि मन में व्याप्त ऊब और खीज को तोड़ने की बात कहता है। मन के भीतर की ऊब सृजन में बाधक है और कवि सृजन का आकांक्षी है। अतः इसे दूर करने की बात कहता है।
विशेष :
- कवि ने मन की खीज को निकालकर सृजनशीलता बनाने की प्रेरणा दी है।
- ‘तोड़ो तोड़ो तोड़ो’ तथा ‘गोड़ो गोड़ो गोड़ो’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘क्या कर’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ध्वन्यात्मकता का समावेश है।
- भाषा सरस एवं प्रवाहमयी है।