बनारस, दिशा Summary – Class 12 Hindi Antra Chapter 4 Summary
बनारस, दिशा – केदारनाथ सिंह – कवि परिचय
प्रश्न :
केवारनाथ सिंह का जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए तथा उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय : केदारनाथ सिंह का जन्म 7 जुलाई, 1934 को बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए, करने के बाद उन्होंने वहीं से ‘आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान’ विषय पर पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त की। कुछ समय गोरखपुर में हिंदी के प्राध्यापक रहे फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के पद पर रहते हुए अवकाश प्राप्त किया। आजकल दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ : केदारनाथ सिंह मूलत: मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने बिंब-विधान पर अधिक बल दिया है। केदारनाथ सिंह की कविताओं में शोर-शराबा न होकर, विद्रोह का शांत और संयत स्वर सशक्त रूप में उभरता है। ‘जमीन पक रही है’ संकलन में ‘जमीन’, ‘ रोटी’ ‘ बैल’ आदि उनकी इसी प्रकार की कविताएँ हैं। संवेदना और विचारबोध उनकी कविताओं में साथ-साथ चलते हैं।
‘तीसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा है-“प्रकृति बहुत शुरू से मेरे भावों का आलंबन रही है-कछार, मक्का के खेत और दूर-दूर तक फैली पगडंडियों की छाप आज भी मेरे मन पर उतनी ही स्पष्ट है। समाज के प्रगतिशील तत्त्वों और मानव के उच्चतर मूल्यों की परख मेरी रचनाओं में आ सकी है या नहीं, मैं नहीं जानता, पर उनके प्रति मेरे भीतर एक विश्वास, एक लालसा, एक ललक जरूर है, जिसे मैं हर प्रतिकूल झोंके से बचाने की कोशिश कराता हूँ, करता रहूँगा।”
जीवन के बिना प्रकृति और वस्तुएँ कुछ भी नहीं हैं-यह अहसास उन्हें अपनी कविताओं में आदमी के और समीप ले आया है। इस प्रक्रिया में केदारनाथ सिंह की भाषा और श्री नम्य और पारदर्शक हुई है और उनमें एक नई ऋजुता और बेलौसपन आया है। उनकी कविताओं में रोजमरा के जीवन के अनुभव परिचित बिंबों में बदलते दिखाई देते हैं। शिल्प में बातचीत की सहजता और अपनापन अनायास ही दृष्टिगोचर होता है। ‘अकाल में सारस’ कविता संग्रह पर उनको 1989 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से और 1994 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा संचालित मैधिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान तथा कुमारन आशान, व्यास सम्मान, दयावती मोदी पुरस्कार आदि अन्य कई सम्मानों से भी सम्मानित किया गया है।
रचनाएँ : अब तक केदारनाथ सिंह के चार काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं-अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ और बाघ। ‘कल्पना और छायावाद ‘ उनकी आलोचनात्मक पुस्तक और ‘मेरे समय के शब्द’ निबंध संग्रह हैं। हाल ही में उनकी चुनी हुई कविताओं का संग्रह प्रतिनिधि कविताएँ नाम से प्रकाशित हुआ है। ‘ताना-बाना’ नाम से विविध भारतीय भाषाओं का हिंदी में अनूदित काव्य संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
Banaras, Disha Class 12 Hindi Summary
1. बनारस कविता में प्राचीनतम शहर बनारस के सांस्कृतिक वैभव के साथ ठेठ बनारसीपन पर भी प्रकाश डाला गया है। बनारस शिव की नगरी और गंगा के साथ विशिष्ट आस्था का केंद्र है। बनारस में गंगा, गंगा के घाट, मंदिर तथा मंदिरों और घाटों के किनारे बैठे। भिखारियों के कटोरे जिनमें वसंत उतरता है। इस शहर के साथ मिथकीय आस्था-काशी और गंगा के सान्निध्य से मोक्ष की अवधारणा जुड़ी है। गंगा में बँधी नाव एक ओर मंदिरों-घाटों पर जलने वाले दीप तो दूसरी तरफ एभी न बुझेने वाली चितागिन, उनसे तथा हवन इत्यादि से उठने वाला धुआँ-यही तो है बनारस। यंहाँ हर कार्य अपनी ‘रौ’ में होता है। यह बनारस का चरित्र है। आस्था, श्रद्धा, विरक्ति, विश्वास-आश्चर्य और भक्ति का मिला-जुला रूप बनारस है। काशी की अति प्राचीनता, आध्यात्मिकता एवं भव्यता के साथ आधुनिकता का समाहार ‘ बनारस’ कविता में मौजूद है। यह कविता एक पुरातन शहर के रहस्यों को खोलती है, बनारस एक मिथक बन चुका शहर है, इस शहर की दार्शिनक व्याख्या यह कविता करती है। कविता भाषा संरचना के स्तर पर सरल है और अर्थ के स्तर पर गहरी। कविता का शिल्प विवरणात्मक होने के साथ ही कवि की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है।
2. दिशा कविता बाल मनोविज्ञान से संबंधित है। जिसमें पतंग उड़ाते बच्चे से कवि पूछता है हिमालय किधर है। बालक का उत्तर बाल सुलभ है-कि हिमालय उधर है जिधर उसकी पतंग भागी जा रही है। हर व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है-बच्चे यथार्थ को अपने ढंग से देखते हैं। कवि को यह बाल सुलभ संज्ञान मोह लेता है। कविता लघु आकार की है और यह कहती है कि हम बच्चों से कुछ-न-कुछ सीख सकते हैं। कविता की भाषा सहज और सीधी है।
बनारस, दिशा सप्रसंग व्याख्या
बनारस –
1. इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
शब्दार्थ : लहरतारा या मडुवाडीह = बनारस के मोहल्लों के नाम। बवंडर = आँधी, तूफान।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश आधुनिक काल के कवि केदारनाध सिंह द्वारा रचित कविता ‘बनारस’ से अवतरित है। इस कविता में कवि ने प्राचीनतम शहर बनारस के सांक्कृतिक वैभव के साथ ठे बनारसीपन पर प्रकाश डाला है। बनारस शिव की नगरी और गंगा के साथ विशिष्ट आस्था का केंद्र है। बनारस में गंगा, गंगा के घाट, मेंदर और घाटों के किनारे बैठे भिखारियों के कटोरे जिनमें वसंत उतरता है। बनारस का हर कार्य अपनी रौ में होता है। यह बनारस का चरित्र है।
व्याख्या : कवि बताता है कि बनारस शहर में वसंत का आगमन अचानक ही हो जाता है। कवि ने देखा है कि यहाँ जब वसंत आता है तब बनारस के लहरतारा या मडुवाडीह मोहल्ले की ओर से धूल भरी आँधी उठती है। उस समय यह धूल इस पुराने महान शहर के प्रत्येक हिस्से में समा जाती है। धूल की किरकिराहट हर किसी की जीप पर महसूस होने लगती है। कहने का तात्पर्य यह है कि बनारस में वसंत के मौसम में आँधी के कारण संपूर्ण वातावरण धूल में भर जाता है। इस धूल के साथ यहाँ वसंत का प्रारंभ हो जाता है।
विशेष :
- यहाँ कवि ने बनारस में वसंत के आगमन के साथ धूल उड़ने का वर्णन किया है।
- ‘इस महान —-” लगती है’ में प्रभावी बिंब योजना है।
- मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
- शब्द-चयन सटीक है।
- भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।
2. जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब-सी नमी है
शब्दार्थ : सुगबुगाना = जागने की क्रिया। पचखियाँ = अंकुरण।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश केदारनाथ सिंह की कविता “बनारस” से अवतरित है। इन पंक्तियों में कवि ने बनारस में वसंत के आगमन को चित्रित किया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि जब बनारस के वाताचरण में बसंत की हवा चलती है तो जो है अर्थात् जो अस्तित्वमान है, उसमें सुगबुगाहट होने लगती है। यानी उसमें जागृति होने लगती है। जो अस्तित्वमान नहीं होता अर्थात् जिसमें चेतना का रूप दिखाई नहीं देता, उसमें भी नया अंकुरण होने लगता है। वह परिवर्तन पूरे वातावरण को प्रभावित करता है। लोग विगत असफलताओं के बीच भी नई उमंग और नए संकल्प से भर उठते हैं। इस प्रकार पूरे वातावरण में नया उल्लास आ जाता है। नए जीवन का संचार होने लगता है।दशाश्वमेघ घाट पर जाने वाला हर व्यक्ति यह महसूस करता है कि गंगा नदी को स्पर्श करता हुआ घाट का आखिरी पत्थर कुछ और नरम हो गया है। उसकी कठोरता में कमी आ गई है अर्थात् पाषाण हृदय व्यक्ति के व्यवहार में भी सहजता आ जाती है। घाट पर बैठे बंदरों की आँखों में एक अलग प्रकार की नमी दृष्टिगोचर होने लगती है।
विशेष :
- भाषा, सहज एवं सरल है।
- बैठे बंदरों, के कटोरों का में अनुप्रास अलंकार है।
3. तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़-रोज़ एक अनंन शव
ले जाते है कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
शब्दार्थ : अनंत = जिसका अंत न हो। शव = लाश, मुर्दा व्यक्ति।
प्रसंग : प्रस्तुत पक्तियाँ केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से अवतरित हैं। इस काव्यांश में वसंत के प्रभाव को दर्शाया गया है। वसंत आने पर भिखारियों के कटोरों में भी चमक आने का बिंबात्मक चित्रण हुआ है। शहर के भरने और खाली होने का भी प्रभावी चित्रण हुआ है।
व्याख्या : कवि प्रश्न पूछता है क्या तुमने कभी खाली कटोरों में वसंत का उतरना देखा है ? अर्थात् बनारस में वसंत के समय भिखारियों तक के चेहरों पर चमक आ जाती है क्योंकि भीख मिलने के कारण उनके खाली कटोरे भरने लगते हैं। कवि कहता है कि यह शहर इसी तरह खुलता है अर्थात् यहाँ हर दिन की शुरुआत ऐसे ही उल्लास के साथ होती है। हर दशा में प्रसन्न रहना बनारस का चरित्र है। इसके साथ-साथ यह शरीर इसी तरह खाली भी होता रहता है।
भरने और खाली होने का यह सिलसिला चलता रहता है। यहाँ प्रतिदिन अंतहीन शवों को उठाकर कंधों पर लाने का सिलसिला चलता रहता है। लोग अंधेरी गली से निकलकर चमकती हुई गंगा की तरफ शवों को ले जाते रहते हैं अर्थात् वे मृत्यु रूपी अंधकार से मोक्षदायिनी गंगा के पास शव को ले जाकर मृतक का दाह-संस्कार करते हैं। इस प्रकार कहीं खुशी तो कहीं गम की अनुभूति होती रहती है। इन दोनों का मिला-जुला रूप है – बनारस। यह सिलसिला प्राचीनकाल से चला आ रहा है।
विशेष :
- इस काव्यांश में कवि ने बनारस के हर्ष-विषादमय चरित्र का प्रभावी चित्रण किया है।
- शहर के खुलने, भरने, खाली होने का बिंबात्मक चित्रण किया है।
- ‘रोज-रोज’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- शब्द-चयन सटीक है।
- ‘खाली कटोरों में वसंत का उतरना’ प्रयोग दर्शनीय है।
4. इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है।
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
शब्दार्थ : दृढ़ता = मजबूती। सामूहिक = मिला-जुल।।
प्रसंग : प्रस्तुंत पंक्तियाँ केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से अवतरित हैं। इन पंक्तियों में बताया गया है कि हर काम को धीरे-धीरे करना बनारस की जीवन-शैली का अभिन्न अंग है।
व्याख्या : कवि बताता है कि बनारस में धूल धीरे-धीरे उड़ती है। यहाँ लोग भी धीरे-धीरे चलते हैं। मंदिर और घाटों पर घंटे भी धीरे-धीरे बजते हैं। यहाँ शाम भी धीरे-धीरे होती है अर्थात् हर काम को धीरे-धीरे करना बनारस की जीवन शैली का हिस्सा है। यहाँ हर काम अपनी ‘रौ’ में होता है।
सभी कामों का धीरे-धीरे होना यहाँ का स्वाभाविक चरित्र है। यह एक सामूहिक लय है। इस सामूहिक गति ने पूरे शहर को मजबूती से बाँध रखा है। इसी मजबूत बंधन के कारण यहाँ कुछ भी गिरता नहीं, कुछ भी हिलता नहीं। जो चीज जहाँ पर थी, वह अब भी वहीं पर रखी हुई है। गंगा भी वहीं है अर्थात् गंगा के प्रति लोगों की आस्था और श्रद्धा उसी प्रकार बनी हुई है जो पहले थी। नाव भी वहीं बँधी है। सैकड़ों वर्ष से तुलसीदास की खड़ाऊँ भी वहीं रखी हुई है। भाव यह है कि सैकड़ों वर्षों से बनारस के चरित्र में कोई बदलाव नहीं आया है। पुराने मूल्य, पुरानी मान्यताएँ, आस्था, श्रद्धा, विश्वास सभी कुछ अभी धरोहर की तरह सुरक्षित है। काशी की प्राचीन आध्यात्मिकता और भव्यता अभी तक उसी प्रकार बनी हुई है।
विशेष :
- इन पंक्तियों में बनारस के अपरिवर्तित रूप की झाँकी प्रस्तुत की गई है।
- ध्वन्यात्मकता का गुण विद्यमान है।
- ‘धीरे-धीरे’ को कवि ने सामूहिक लय का नाम दिया है।
- ‘धीरे-धीरे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- आकर्षक बिंबो का प्रयोग हुआ है।
5. कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आथा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है
शब्दार्थ : सई-साँझ = शाम की शुरुआत। आलोक = प्रकाश, रोशनी।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ से उद्धृत है। इसमें बनारस के सांध्यकालीन संंदर्य एवं विविधता का चित्रण किया गया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि कभी संध्या के समय बिना किसी सूचना के बनारस शहर में प्रवेश कर जाओ और आरती के प्रकाश में इस शहर को देखो। तब तुम्हें कई आश्चर्यजनक चीजें दिखाई देंगी। तब तुम्हें दिखाई देगा कि यह शहर आधा जल में है और आधा मंत्र में है (मंत्रोच्चार सुनाई पड़ता है); आधा शहर फूल में है अर्थात् संध्या के समय मंदिर-घाटों पर बनारस शहर जल, मंत्र और फूल भगवान की आरती करते हुए भक्ति में सराबोर दिखाई देता है।
उसी समय घाटों पर चिता की अग्नि भी दिखाई दे जाती है। इस प्रकार बनारस शहर आधा शव में नजर आता है। आधा शहर नींद में खोया प्रतीत होता है तो आधा शहर शंख की ध्वनि में जागता प्रतीत होता है अर्थात् इस शहर में कहीं नींद की बोझिलता है तो कहीं पूजा-पाठ का जागरण है। कवि कहता है कि यदि तुम ध्यान से देखो तो यह शहर आधा है और आधा नहीं है अर्थात् आधा बनारस प्राचीन संस्कृति के अनुरूप अपना मिथकीय स्वरूप बनाए हुए है और ‘आधा नहीं है’ का तात्पर्य है कि इस शहर में प्राचीनता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ आधुनिकता का भी समावेश हो रहा है।
विशेष :
- इन पंक्तियों में काशी की प्राचीन आध्यात्मिकता के साथ-साथ आधुनिकता का समावेश भी दर्शाया गया है।
- ‘आधा’ शब्द के बार-बार प्रयोग से अर्थ और भाव में विशिष्टता आ गई है।
- आकर्षक बिंबों का सुजन हुआ है।
- लाक्षणिकता दर्शनीय है।
- ‘सई-साँझ’ में अनुप्रास अलंकार है।
6. जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे हैं
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुएँ के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिल्कुल बेखबर!
शब्दार्थ : स्तंभ = खंभा। अलक्षित = जिसकी ओर किसी का लक्ष्य न हो, अज्ञात, न देखा हुआ। अर्घ्य = देवता के सामने दिए जाने वाला जल।
प्रसंग : प्रस्तुत काव्यांश केदारनाथ सिंह द्वारा रचित कविता ‘बनारस’ से अवतरित है। इन पंक्तियों में बनारस के प्राचीन आध्यात्मिक एवं भव्य स्वरूप के साथ आधुनिकता की भी झाँकी प्रस्तुत की गई है।
व्याख्या : कवि कहता है कि बनारस में जो विद्यमान है वह बिना किसी खंभे के खड़ा है अर्थात् यहाँ की प्राचीनता, आध्यात्मिकता, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, सामूहिक गति आदि सभी कुछ बिना किसी सहारे के अपने आप ही बने हुए हैं। यह सब विरासत के रूप में जन-जीवन में समाए हुए हैं। इसी प्रकार काशी का मिथकीय स्वरूप बिना किसी सहारे के सुरक्षित है। यह बनारस शहर जो खड़ा है उसे गंगा में बहती हुई मुदों की राख, रोशनी की ऊँचाइयों के स्तंभ, दहकती आग की लपटों के स्तंभ, धुएँ की ऊपर उठती ऊँचाइयाँ, खुशबू की ऊँचाई, प्रार्थना के लिए ऊपर उठते हुए हाथ, इस शहर को संभाले हुए हैं। किसी अलक्षित सूर्य को यह शहर शताब्दियों से अर्घ्य देता चला आ रहा है। यह शहर गंगा में एक टाँग पर खड़ा होकर प्रार्थना में लीन है। उस समय उसका दूसरे पैर की ओर ध्यान नहीं जाता। बनारस की प्राचीनता एवं आध्यात्मिकता अपनी भव्यता के साथ स्थिर है।
विशेष :
- कवि ने बनारस की आध्यात्मिकता के साथ आधुनिकता का भी मेल कराया है।
- ‘स्तंभ’ शब्द की आवृत्ति से कविता में भाव-सौंदर्य आ गया है।
- दृश्य बिंब, ध्वनि बिंब एवं गंध बिंब की सुंदर योजना हुई है।
- ‘बिल्कुल बेबर’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘टाँग’ का प्रतीकात्मक प्रयोग दर्शनीय है।
- ‘सूर्य’ को अलक्षित बताकर उसे अदृश्य सत्ता के प्रतीक के रूप में लिया है।
- भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।
दिशा –
1. हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर-उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!
प्रसंग : प्रस्तुत लघु कविता ‘दिशा’ केदारनाथ सिंह द्वारा रचित है। इस कविता में कवि पतंग उड़ाते बच्चे से पूछता है कि हिमालय किधर है ? उसका बाल सुलभ उत्तर कवि को कुछ सोचने को विवश कर देता है। हर व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है।
व्याख्या : कवि स्कूल के बाहर पतंग उड़ाते एक बच्चे से पूछता है कि बताओ, हिमालय किधर है ? बच्चा पतंग उड़ाने में व्यस्त है अतः वह भागती पतंग की दिशा की ओर इशारा करके बताता है कि हिमालय उधर की ओर है। उसे तो हर चीज पतंग की दिशा में प्रतीत होती है। कवि कहता है कि मैंने पहली बार जाना कि हिमालय किधर है अर्थात् कवि को यह ज्ञान हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना यथार्थ होता है। बच्चे दुनिया को अपने ढंग से देखते-अनुभव करते हैं। उनका सरोकार अपनी दुनिया से होता है। कवि को यह बाल-सुलभ संज्ञान मोह लेता है। हम भी बच्चों से कुछ न कुछ सीख सकते हैं।
विशेष :
- ‘उधर-उधर’ में द्विरक्ति है – इसमें दृढ़ता है कि हिमालय उधर ही है।
- ‘स्कूल के बाहर’ में यह व्यंजना है कि स्कूली लादे ज्ञान से परे।
- मैं स्वीकार ….. में अनुभव सापेक्ष ज्ञान की स्वीकृति है।
- भाषा में चित्रात्मकता है।
- भाषा सरल, सहज एवं सरस है।